मंगलवार, 31 जनवरी 2017

स्मार्ट सिटि की स्मार्ट सोच,,,,,,


(चित्र इन्टरनेट की सौजन्य से)

रोज़ की तरह आज भी स्कूटर लेकर अपने चित-पराचित उबड़-खाबड़ सड़कों पर 'ऊँट की सवारी सी अनुभूति' तो कहीं चिकनी सपाट सड़कों पर मक्खन से फिसलते पहियों  के साथ स्कूटर चालन का आनंद लेती मै ,,,। वाहहह ऐसी चिकनी सड़कों पर स्कूटर चलाना जैसे जीवन संगीत की धुन पर लहराते बलखाते मेरे स्कूटर के पहिए,,,,,, खैर यह बात तो मैं चिकनी सतह पर फिसलते पहियों की रफ्तार मे फिसलते भावों के आवेग में बोल गई ,,,। कई तरह के भाव ,, विचार इस समय मन मे पल्लवित होते और लुप्त हो जाते हैं। परन्तु आज इन सड़कों की कहीं सुधरी तो कहीं बुरी तरह क्षत-विक्षत अवस्था,  कहीं हाल ही मे मरम्मत किये जाने के कुछ ही समय बाद 'केबिल या गैस- पाइप लाइन' डालने के लिए पुनः खोद कर रख देना,,, दूर तक दुर्गन्ध फैलाते कचरों के ढेर ,,,, गाड़ियों के शीशे नीचे उतार पानी की खाली बोतल, चिप्स के पैकेट, फलों के छिलके निरविकार भाव से फेंकते, दुपहिया वाहनो पर सवार हेलमेट उठा बेहिचक गुटखों की पिचकारी छोड़ते स्मार्ट शहर के नागरिक,,,वहीं दूसरी ओर बनते 'फ्लाई ओवर' , फर्राटे से सर के उपर से गुजरती मेट्रो ट्रेन, देखकर ख्याल आया ,, अरे मेरा शहर विकास कर रहा है पर क्या हमारी सोच भी विकास कर रही है?????
     विकास की प्रक्रिया धड़ल्ले से प्रगतिशील है, सरकारी दस्तावेज़ों एंवम् सरकार के घोषणा पत्रों पर 'स्मार्ट-सिटि' का नक्शा एक रूप लेता नज़र आ रहा है। एक शहर से दूसरे शहर को जोड़ती मेट्रो लाइने, चौड़ी एंवम् 'फाइव-लेन' होते राजपथ, पार्कों का रख-रखाव, आदि,,आदि अवश्य ही यह सभी कार्य एक शहर को स्मार्ट  बनाने की सरकार के पुरजोर प्रयासों के परिणाम हैं,,,,, परन्तु बन्धु!!  क्या 'प्रतिव्यक्ति सोच' भी इसी रफ्तार में स्मार्ट बन रही है? मुझे इसकी रफ्तार अपेक्षाकृत धीमी महसूस होती है।
   सब कुछ कितना अस्त-व्यस्त है। यूँ लगता है एक संकरे मुँह वाले छोटे  पात्र में अधिक मात्रा मे कुछ रखने का प्रयास किया जा रहा है,,कभी इधर से कुछ बह रहा है,,तो कभी उधर से गिर रहा है,,,तो कभी पात्र ही उलट जाता हो। सार्वजनिक स्थलों पर ' स्वच्छ भारत अभियान' के प्रतीक चिन्हों के साथ लगाए गए 'लाल' और 'हरे' 'कूड़ेदान',,,,, अक्सर कचड़ा इनके अन्दर कम बाहर अधिक शोभायमान रहता है। जहाँ कचरा कूड़े पात्र मे डालने की सोच विकसित नही वहाँ 'हरे' और 'लाल' कचरापात्रों  का सही इस्तेमाल क्या होता है? इसकी अपेक्षा करना तर्कसंगत नही है। खैर छोड़िए आगे बढ़ती हूँ।
     अकस्मात् मुझे वर्षा ऋतु का एक दिन याद आ गया जब स्कूटर  बारिश के कारण हुए जल जमाव मे आधी डूबी निरन्तर 'हे प्रभु किसी  तरह नैय्या पार लगा दो' का जाप करते हुए  निकाली,,,। आस-पास की गाड़ियां नांव की भांति लहरों संग डोल रही थीं, तब लगा की शहर स्मार्ट बन रहा है,,,,चार पहिया,दुपहिया वाहन चालन के अलावा अब शहरों मे नौका विहार का भी भरपूर आनंद ले सकते हैं। अनाधिकृत रुप से भूमि अतिक्रमण कर मकान एंवम् व्यवसायिक भवनों का निर्माण करते समय योजना बद्ध तरिकों से बने 'जल निकासी' व्यवस्था को पूरी नज़र अन्दाज़ कर दिया जाता है। यहाँ 'सोच' पर बरबस ही ध्यान आकृष्ट हो जाता है।
     आज सड़कों पर ही देख रही हूँ स्मार्ट सोच के कुछ नज़ारे,,,,,।गाड़ियों का उमड़ता सैलाब और अधैर्यता के साथ बजते उनके 'हार्न' वैसे कई गाड़ियों के पीछे स्पष्ट लिखा होता है,,"  डोन्ट होन्क प्लीज़",,, देखकर लगता है आज अपने शहर के निवासी आर्थिक रूप से सक्षम हैं ,देश की आर्थिक उन्नति पर फक्र होता है,,,, परन्तु बात यह नही ,,,बात तो सोच की है। वाहनों को खरीद पाना या ना खरीदपाना बड़ी बात नही,, क्या इनको चलाते वक्त वे 'यातायात नियमों' का पालन करने मे भी सक्षम् हैं???? किसी एक 'ट्रैफिक लाइट' चौराहे पर यदि चार यातायात पुलिसकर्मी खड़े होकर इन्हे ना नियंत्रित करें तो अव्यवस्थित, फूहड़, अभद्र भाषा एंवम् एक दूसरे को आंखें तरेरते अंधा धुन्ध गति से गलत तरीके से गाड़ी निकालती 'सोच' दर्शनीय होती है। क्यों हमारी सोच को नियन्त्रित करने के लिए एक डंडे की आवश्यकता प्रतिपल होती है?????यह ज़रूरी नही की स्मार्ट सोच के उदाहरण मुख्य सड़कों ,बाजारों या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर ही दिखते हैं ,,,,।आइए आपको अपने आवसीय परिसर मे भी इसके कुछ छुटपुट उदाहरणों से अवगत कराती हूँ।
   अब मेरा स्कूटर अपनी 'काॅलोनी' के अन्दर प्रवेश कर चुका है थोड़ी चर्चा आपसे इसकी भी कर लूँ,,। बहुत ही हरी-भरी और खुला-खिला वातावरण हैं।मेरे घर आने वाले अतिथि इस खुले-खिले परिसर को देख मुग्ध हो जाते हैं। परन्तु कहते हुए खेद होता है कि यहाँ के प्रतिवेशियों द्वारा अवैधानिक रूप से किये गए भूमि अधिग्रहण के परिणाम स्वरूप कार पार्किंग की विकट समस्या उत्पन्न हो गई है यदि भूमि अधिग्रहण ना किया गया होता तो प्रति घर यदि तीन कारें भी होती तो भी यहाँ जगह का अभाव ना होता,,,, बच्चों के खेलने के पार्क,, जहाँ कुछ वर्ष पूर्व शाम को हर उम्र के बच्चों के खेल मे मदमस्त आवाज़े आती थीं ,,वही पार्क अब 'कार पार्किंग एरिया' मे परिवर्तित हो गए हैं लोग बच्चों को,," जाओ कहीं और खेलो,,गाड़ियों के कांच तोड़ोगे क्या?" की फटकार लगाते और बच्चे मायूस हो आपस मे भुनभुनाते जाते दिखाई पड़ते हैं।
       मेरे आवासीय परिसर में 'पशु प्रेमियों का भी बाहुल्य है, मै इसकी विरोधी नही ।मानव और पशु का सम्बन्ध सभ्यता की शुरूवात से ही देखा गया है अतः पारस्परिक प्रेम स्वाभाविक है। प्रातः और संध्या काल ये पशु-प्रेमी अपने पालतु कुत्तों,,,, माफ कीजिएगा "डाॅगी" बोलना सम्माननीय होगा ,,,को शान से साथ लेकर तथाकथित 'मार्निंग एवंम् ईवनिंग वाॅक' करते और अपने पड़ोसी के उद्यान के मुख्यद्वार के सामने अथवा उनकी गाड़ियों के पीछे मल-मूत्र विसर्जित करवाते बड़ी सज्जनता के साथ देखे जाते हैं। यही प्रतिवेशी जब विदेश यात्रोपरांत विदेशों के साफ सुथरे परिवेश का गुणगान कुछ इस प्रकार करतें हैं "कनाडा मे तो लोग अपने 'पेट्स' को 'वाॅक' पर ले जाते वक्त 'पैन' और 'गारबेज बैग' साथ लेकर चलते हैं,,, और नाक भौं सिकोड़ते हुए बोलते हैं-" इन्डिया इज़ सो डर्टी कन्ट्री " (भारत बहुत गन्दा देश है)  आहहहहहह् अफसोस होता है ऐसी सोच पर,,,, परन्तु सरकारी दस्तावेज़ों पर मेरा शहर "स्मार्ट सिटी" के रूप मे दनदनाते हुए विकास पथ पर अग्रसर है।

1 टिप्पणी:

  1. व्यावहारिक समस्याओं को सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है। सामान्य भारतीय जनमानस को व्यापकता से स्पष्ट किया गया है। लेख में वेदना और जागरूकता की ललक को प्रत्येक परिच्छेद मरीन नए रूप मरीन अनुभव किया जा सकता है।

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