मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

जीवन की प्रयोगशाला,,,,, यथार्थ और कल्पनाओं का रासायनिक समीकरण

                          (चित्र इन्टरनेट से)
     
             ज़मीन नही बन सकी
             तो आसमान बन गई
             यथार्थ से परे बस कल्पनाओं
             का जहान बन गई,,,!!

ऐसा होता तो होगा सबके जीवन मे,,,,नही तो यह ख़्याल यकायक उफ़ान नही उठाता ज़हन मे। इस जीवन रूपी प्रयोगशाला मे, हम सभी की एक अपनी-अपनी ताख़ है,, अलग-अलग आकार के कांच के मर्तबानों मे रासायनो से रखे हुए हैं। प्रयोग निरन्तर चालू है,,,,,,कभी जलाकर,,कभी तपाकर,,,,कभी हल्के से घोलकर,कभी डूबोकर छोड़ दिया जाता है परीक्षण हेतु,,,।
हर दिन कुछ ना कुछ नया बनता रहता है इस प्रयोगशाला मे।मानवीय स्वभाव का सहज कौतूहल,,,हर कदम पर प्रकृति के गूढ़ रहस्यों से परदा हटाने का प्रयास करता है,,, ऐसा क्यों है? यह मोड़ कहाँ तक जाएगा? ऐसा करके देखते हैं,,क्या होताहै देखें तो ? आदि आदि,,,   की जिज्ञासा हमे एक बहुत बड़ी सी परखनली मे डाल देती है,,जिसमे कहीं घूमावदार रास्ते हैं,,तो कहीं पतली संकरी नली,,कहीं हम अचानक से एक नली से एक गहरी बोतल मे गिर जाते हैं और नीचे रखे परिस्थियों के बर्नर से निकलती आंच हमे पकाना शुरू कर देती है,,,। फिर चाह कर भी इस पेंचीदा यंत्रजाल से निकलाना असमंभव हो जाता है। फिर तो कौतूहल का जोश धुआं बन यंत्र की किसी नली से बाहर निकल जाता है,,और हमारा एक नया ही व्यक्तित्व आकार ले रहा होता है।
   'ओखली मे सिर दिया तो मूसल के वार से क्या डरना ' वाले मनोभाव लिए एक वीर जूझांरू सिपाही की तरह,,, वीर तुम बढ़े चलो,,धीर तुम बढ़े चलो !!!! ,,,,,,हमारा यथार्थ हमे जला रहा होता है,,एक पेंचीदा यंत्र जाल मे बुरी तरह फंस चुके होते हैं,,,,परन्तु,,,,,,,,,,,, यह हमारा खुद का कौतूहल था खुद की जिज्ञासा थी नई परतों को खोल ताका-झांकी करने की,,,,अतः इस प्रयोग के अंतिम परिणाम तक हमे हर प्रतिक्रिया से गुज़रना ही पड़ेगा,,,।
   यहाँ से कल्पनाओं का संसार जीवन की वैज्ञानिक प्रयोगशाला से परे अपना आसमान दिखाने लगता है,,,।एक बहुत विस्तृत सा अशेष फैलाव,, एक क्षितिज लिए,,, जो प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे बड़ा मायाजाल है,,, मनुष्य की नज़रों का धोखा। आसमान छूने की चाह प्रबल हो जाती है इस क्षितिज रूपी मायाजाल को देखकर,,,,लगता है ,,,थोड़ा चलना ही तो है,,फिर तो ज़मीन पर खड़े होकर दोनों बाहों मे पूरा आसमान समेट लेंगें,,,,,मुस्कुरा उठी मै यह वाक्य लिखकर,,,,,,,,,। कभी कभी सत्य जानते हुए भी उस बात की कल्पना करना  जिसका वजूद ही नही,,,,फिर भी हम उसे सोचते हैं,,,,,,यह तथ्य मुस्कुराहट ला देता है,,।शायद 'कल्पनाएं' इसीलिए प्यारी लगती हैं,,, 'परीलोक' की परिकल्पना ऐसे ही तो आई,,। कहानियां इसी लिए तो दिल को छू जाती हैं,,यदि उनमें हमारे जीवन से मिलता-जुलता एक सामान्य सा अंश भी हो। जीवन की वास्तविकताओं से दो-दो हाथ करने की ताकत 'काल्पनिक जगत' से ही मिलती है,,,,,। "बेतार का तार" एक तार है जो जोड़े है,,दिखता नही ,,,,,, है भी और नही भी ,, 'वेन डायग्राम' सब कुछ छल्ले से दूसरे छल्ले कड़ीबद्ध है भी और नही भी 😃😃😃😃 ।
      ऐसा कोई नही जो जीवन की प्रयोगशाला के जटिल यंत्र मे ना फंसा हो,,,, ऐसा मुझे लगा,, हो सकता है कोई अपवाद भी हो,,, कुछ भी दावे के साथ नही कहना चाहिए,,क्योंकी ज़िन्दगी बस उतने ही घेरे में सीमित नही जितनी आपकी दृष्टि देख पाती है। चमत्कार और आश्चर्य भी यहाँ देखने को मिलते हैं,,,,। यहाँ विज्ञान बस अवाॅक सा मुहँ बाये खड़ा रह जाता है,,,,,। हाँ तो मै कह रही थी कि- कुछ अपवादों,आश्चर्यों एंव चमत्कारों को छोड़, सभी को इस जटिल यंत्र मे अपने कौतूहल के वशीभूत हो कर फंसना पड़ता है,,, एक बार जो फंसे भइय्या,,,,,,तब तो रासायनिक समीकरण झेलना ही  पड़ता है😃 फिर O2, H2O , K2SO4 या और कुछ बनने तक पकते रहो,,घूमते रहो,,गिरते रहो,,,और दिल को बहलाने के लिए कल्पनाओं के आसमान पर उड़ते रहो।
 
नए सपनों की परिकल्पना करो,,रोज़ नए 'परीलोक' की सैर करो,, । कोई एक उम्मीद लेकर ही कौतूहल जागा होगा जिसने हमे परखनली मे कूद जाने को उतावला कर दिया होगा,,,,उस उम्मीद की सुनहरी तस्वीरें आसमान पर खींचते रहिए,,मिटाते रहिए,,रंगते रहिए,,,।
 इसतरह हम मे एक रचनात्मकता का अंकुर फूटने लगता है। यह एक मूक संदेश है,,जीवन का हमारे नाम। जो हमे कुछ सम्भावित सम्भावनाओं के टूट कर बिखर जाने पर खुद को टिकाए रखने के लिए एक सहारा सिद्ध होने वाली होती हैं।
     आह,,लगता है मेरा यह लेख भी आसमान सा विस्तृत होने वाला है,,, पर तो मै विराम लगा सकती हूँ क्योंकी यह मेरे वश मे है,,,परन्तु उन्मादी विचारों पर विराम लगा पाना मेरे वश मे नही,,। मै भी प्रयोगशाला के जटिल यंत्र मे फंसी हूँ,, प्रयोग प्रक्रिया चालू है,,,, और मै कल्पनाओं के आसमान पर,,,यथार्थ से परे कुछ 'परीकथाएं' लिख रही हूँ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. You know you’re on the right path when you’re not in a position where you feel you have to negotiate your sense of integrity. You don’t feel like you have to compromise who you are. It feels right. It doesn’t feel like you are losing life or yourself. You are not betraying yourself.” – Caroline Myss

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  2. वाह वाह लिली क्या खूबसूरती के साथ जीवन रूपी विज्ञान की प्रयोगशाला का इतना सटीक वर्णन तुमने किया ये तो कोई तुम्हारे जैसा अनुभवी ओर संवेदनशील व्यक्तित्व ही कर सकता है ।
    सही कहा तुमने इन ऊंचे नीचे टेढे मेढ़े संकरे तंग हाल गरम ठंडे उबलते उफनते धुंध भरे रास्तों को पार करना बेहद ज़रूरी है जो हिम्मत से सफलता पूर्वक पार कर गया वो सोना बनकर निखर गया यही दुष्कर पथ ही हमे खुले आसमान में उड़ना सिखाता है ।

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  3. जीवन को प्रयोगशाला नाम दिया जाना सार्थक है। मनुष्य की सामान्य से गहन संवेदनाओं को।विश्लेषित करता लेख अचानक आध्यात्म की ओर मुड़ जाता है। आदि से अनंत तक को पहचानने की कोशिश, यथार्थ से कल्पना तक विस्तृत क्षितीज, मोह से मुग्ध तक की भावनात्मक उड़ान, स्थूल से सूक्ष्म तक की पहचान इस लेख को पढ़ने के बाद सोच और चिंतन दोनों प्रक्रिया स्वतः तौर पर आरंभ हो जाती है। लिली जी ने जीवन की विषमताओं को मुट्ठी में कैद कर विश्लेषण करने का प्रयास किया है। एक परीलोक जैसा आकर्षक और उत्कंठापूर्ण लेखन।

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  4. निःसंदेह ये आम जीवन का जो चक्र चलता है वो हमारे विज्ञान के प्रयोगशालाओं गणित के समीकरण सह साहित्य की खयालों ज सम्मिश्रण है। इसी कड़ी मे एक दो चर वाले समीकरण आते है अगर x का वैल्यू मिल गया तो निःसंदेह आपको y का भी मिल जायेगा।अगर नही मिलता है तो आप मिश्चित तौर पर पहले समिकरन मे गलती कर बैठे है।ठीक मानव जीवन मे अगर हम पहले भाग को सुदृढ़ कर लेते है तो अगले भाग को हम निश्चित हो जाते है।अगर दूसरे भाग मे कमी रह जाती है तो गलती है पहले भाग मे देखनी चाहिए।।और पहले भाग मे उत्तर नही निकलता है तो निश्चित तौर से भविष्य अंधकारमय।।
    लिली दी आपने बहुत ही उपयुक्त एवम् सटीक लेख लिखा है।
    Lot of thanks

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