सोमवार, 24 अप्रैल 2017

जीवन की सांझ हो चली है,,,

                         (चित्र इन्टरनेट से)

जीवन की सांझ हो चली है
वह भी जानती है वह अब जाने को है
समेट रही है अपनी ज़िम्मेदारियां
आहिस्ता-आहिस्ता,,,
बांट रही है जो है बचा-खुचा,,,
रोज़ गुछाती है घर-संसार अपने बेटा का,,,,
पता नही कौन सी शाम जीवन का सूरज ढल जाए,,।
कभी अलमारियों के कपड़े सहेजती है,,कभी रसोई की सफाईयां करती है,,,कभी भविष्य मे उसकी तकलीफों को कम करने के उपाय सोचती है,,,,और खुद को बहुत असहाय पाती है।
रोज़ बेटियों को फोन भी करती है,,,त्योहारों पर आशीष भी देती है,,,,,,,,,,,,,
क्योंकी वह जानती है जीवन की सांझ हो चली है,,,।
आंसूओं को छुपाती है,,,,जीवटता दिखाती है,,,पोती को पढ़ाती है,,स्कूल के लिए तैयार कराती है,,,उसके आने का इन्तज़ार करती है,,,,,गरम भात परसती है,,सब कुछ करती है,,,,,,,,,,क्योकी वह जानती है ,,,,
जीवन की सांझ हो चली है,,,,।
छोटी-छोटी गुजारिशें करती है,,,कुछ अटके कामों को करवाने की सिफारिशें करती है,,,,,,सबको खुश रखने की कोशिश करती है,,,,जानती हूँ अच्छे से,,,वो अकेले मे हाथ जोड़ भगवान के आगे खुद को अब बुला लेने की मिन्नते करती है,,,,,,,,क्योकि वह अब जानती है ,,,,,
जीवन की सांझ होने को है,,,
जीवन की सांझ होने को है!!

6 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन की संपूर्णता को दर्शाती प्रस्तुति। पढ़ते समय प्रतीत हुआ कि शब्द हांफ रहे हैं और भावनाएं तेजी से दौड़ रही हैं। एक यात्रा की मार्मिक अनुभूति हुई।

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  3. बहुत सुंदर तरीके से एक नारी के दिल की बीत बयान कर दी.हर स्त्री इस कविता में अपने आप को टटोल लेगी .

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  4. सुन....ये जो बचा खुचा आहिस्ता आहिस्ता जिम्मेदारियों का संसार है ना...इसको सहेजना ही औरत की यकीनन एक खूबसूरत कला है..जीवन की सांझ को बखूबी वणिर्त किया है लिलि तुमने��������यकायक मम्मी याद आ गई��

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  5. बहुत ही गहनता और मार्मिकता से तुमने एक स्त्री की ढलती सांझ के समय परिलक्षित मनोदशा का वर्णन किया है ।अति उत्तम

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