बुधवार, 26 अप्रैल 2017

मै प्रतीक्षा रत,,,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

सुनो,,,,अन्जाने रिश्ते, अन्जाने ही होते हैं,,हवा मे तैरते से ,,,
बहुत सारे बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों से,,हाथों की मुट्ठी मे पकड़ने की कोशिश करना बेकार है,,,। कल्पनाओं की वाष्पित जल-बिन्दूं हैं।
       हालातों के सूरज ने मन के अतृप्त अधूरे स्वप्न-जलधि को वाष्प बनाकर हवा मे उड़ा दिया है। अब हमारे आसमान पर तैर रहे हैं सब बादल बन। बस इनको दूर से देखना,,,,बाहों मे भर अपना बनाने का अरमान मत रखना,,ये वाष्पित जल-बिन्दुएं हैं,,,,आलिंगन मात्र से झर जाएंगीं। बस भीग जाओगे कुछ क्षण के लिए,,,आह्लादित हुए से,,,तुम क्षण भर भाव-विभोर हुए से,,खुद को ही आलिंगिकृत किए,,,भ्रमित से,,,कि तुमने किसी को समेट रखा है भुजापाश मे,,,।
    होश मे आओ,,,!!! सुनते हो होश मे आओ,,,!!!!! देखो तो आंखे खोलकर कुछ नही है बाहुपाश मे,,,।अब तक वाष्पित जलकणों के जल से जो तुम्हारा आत्म-वस्त्र था वह भी सूख चुका है,,। सुनो,,,,!! उठो,,,,!
    यथार्थ की पुकार बड़ी कर्कश,,,,भेद जाती है हर अभेद्य को,,,फिर यह तो एक तन्द्रा थी,,एक स्वप्न था,,एक मृगतृष्णा थी,,,और यथार्थ कहते है,,,,, "जो प्राप्त है वह पर्याप्त है" (कहीं पढ़ा था इस पंक्ति को) नियति निर्धारित है "प्राप्त" अतः मृगतृष्णाओं के पीछे मत भागो,,,, जितना मिला उसे 'पर्याप्त' समझो और जीवन गुज़ारो,,,,,। उफ्फ यह कैसी शुष्कता आ गई यथार्थ की ज़मीन छूते ही मेरे लेखन मे,,,????
 जब तक मेरे शब्द आज के सुहाने मौसम के आसमान को देख लिख रहे थे,,,तब तक सब कुछ काव्यात्मक था,,,अनुभूतियों की अभिव्यक्तियां,,,बादल सी तेज़ अंधड़ के आवेग में इधर-उधर दौड़ रही थीं। जब आह्लादित हो मैने एक बादल बाहों मे भरा तो मेरा आत्म पूरी तरह भींग गया,,,,और मै बहुत देर तक आंखे मूंदें पड़ी रही उस भीगेपन की शीतलता लिए,,,।
      समझ नही पा रही क्या करूँ 'प्राप्त-पर्याप्त' को लेकर संतुष्ट हो जाऊँ,,या फिर आसमान मे उड़ जाऊँ।
 लिखने लगी थी तब कुछ और भावों को तैरते पाया था आसमान मे,,,,,,कुछ क्षण के लिए ज़मीन पर नज़र डालने लगी,,,आंधी के परिणाम स्वरूप घर मे प्रवेश कर रही धूल को रोकने के लिए,,खिड़कियां बन्द करने गई,,,,,,,,, बस भाव बदल गए,,,। कैसी अद्भुत चंचलता इन भावावेगों की,,,,,! उद्दंड हो जाते हैं तो कभी शालीन हो जाते हैं,,,,उन्मुक्त हो जाते हैं तो कभी बाधित हो जाते हैं,,,,!
   किसी निष्कर्ष पर नही पहुँच पाई,,, त्रिशंकु की तरह अधर मे अटक गई हूँ,,,,ठीक है ना जब सब नियति निर्धारित है तो अटकी ही रहती हूँ,,,देखती हूँ मेरी नियति मुझे धरातल पर पटकती है या आसमान मे उछाल देती है ,,,।
मै प्रतीक्षारत,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

7 टिप्‍पणियां:

  1. सब क्षणभंगुर है इस मायावी संसार में कल्पना की उड़ान हमे कहाँ से कहाँ ले जाती है प्राणी मात्र की बात ही क्या ये शब्द अनगिनत विचार मन में उठते भाव इनका कोई अस्तित्व नही ।थोड़ी के लिए कल्पना लोक में विचरण मन को सुकून तो देता है परंतु अगले ही पल यथार्थ का सामना होते ही मन विषाद से भर हटा है ।अतः जितना जल्दी हो सके एक स्वीकार भाव को आमंत्रण देना आवश्यक है तब सुख के लिए कल्पना लोक में विचरण ज़रूरी नही ये नियति बहुत से फूल बरसाने को प्रतीक्षारत है ज़रूरत है बस ह्रदय के द्वार सरलता सहजता से खुलें रहें सूंदर भाग्य आलिंगन को ततपर है ।

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  4. Samay bada balwan...
    Niyati ...me jo hai wahi hona... trisanku me atka me v... ab dekhna hai niyati ka kya khel nirala hai

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  5. प्रतीक्षा को नियति निर्धारित कहा गया है इस रचना में। यह यथार्थ है। वर्तमान के संग स्वप्न भी समानांतर चलते राहट हैं। बहुत कुछ पा लेने के बाद भी बहुत कुछ रीता लगता है। बदलियों को बाहों में भरना रक आह्लादित अनुभूति है जिसे भावनाएं सकारती हैं किंतु बुद्धि नकारती है। भावनाओं और बुद्धि का खेल निरंतर जारी रहता है। भावावेगों की उद्दंड चंचलता ही जीवन की अनहोनी और अनपेक्षित उपहार देती हैं। बौद्धिकता जिस समस्या का निदान न दे पाए टैब भाग्य का सहारा लेना ही श्रेयस्कर है। एक गहन विश्लेषण। एक संतुलित, स्पष्ट आउट प्रभावशाली प्रस्तुति।

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