गुरुवार, 27 जुलाई 2017

मन्नो,,,,,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

लघुकथा

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  मन्नों



अक्सर छोटी-छोटी गलतियों पर माँ जली-कटी सुनाती थी,,,,, अरे जन्मजली! पैदा होते ही मर जात तो अच्छा होत,,।
भाग फूट गए हमार जे दिन तू हमार कोख से जन्म लिए रही ,,,। जेकरे घरे जाई ऊ घर के हो नरक बना देई,,! बहुतही दुख है तोरे कपाल मा,,!!
बोलते बोलते हाथ मे जो होता उसी से बड़ी निर्ममता से पीट देती थी मन्नों को ।
      और मन्नों दिल मे चीत्कार लिए बस आंसूओं की धार लिए पीटती रहती थी,,,और कड़ुवे वचनों का जहर जहन मे उतारती रहती थी।
        ज़हर के इन कड़ुवें घूंटों ने उसे अंदर से एकदम चकना चूर कर दिया था,,उम्र ही क्या थी उसकी यही कोई 14-15 साल,,। कई बार उसका जी करता की घर से भाग जाए,,या गांव के कुएं मे कूदकर अपनी जान दे दे। पर अपने परिवार की बदनामी का भय उसके पांवों लगाम दे जाता था।
           एक दिन पड़ोस की चाची गांव के बुधई कुम्हार की बेटी की बात बताने लगी,,उसकी बेटी धनिया के साथ हुए कुकर्म, से अपना आत्मसंतुलन खो धनिया ने खुद पर मिट्टी का तेल छिंड़क आत्मदाह करने का असफल प्रयास किया,,,। वह मरी तो नही,,,बुरी तरह जल गई,,,और अब जले हुए घावों के जख्मों ने उसे जीते जी मार तो दिया है,,,पर वह जीवित है।
               चाची की कहानी पर माँ की वैसी ही उलाहना भरी टिप्पणी,,,," लड़कियन की जान बड़ी सखत होवे है,, इतनी जल्दी नाही मरत ये,,भगवान ना जाने का खाए के इनकेर बानाए रहे,,। जो मर जात ,तबहीं  अच्छा रहत,,जिन्दगी भर का लिए मूँग दली बाप-महतारी के छाती पर,,,!"
          धीरे-धीरे मन्नों ने इन आत्मघाती उलाहनाओं के साथ जीना सीख लिया था।क्योंकी 'धनिया की पर गिरी गाज़, पर उसके माँ की टिप्पणी ने उसके मन मे घर कर लिया था,,। उसको लगने लगा - यदि उसका भी कोई प्रयास असफल रहा तो,,,,?????
          मन्नों ने इन झिड़कियों और कड़ुवी उलाहनाओं को अपना दैनिक आहार बना लिया,,अब वह ढींठ हो चुकी थी,,कभी-कभी उसे वही एक तरीकी बातें सुन हंसीं आ जाती थी,,।
माँ उस पर और खिसिया जाती,,,,, "देखा हो भूरे (भाई) के पापा,,कैसन निरलज होय गई है तोहार दुलारी,,,जाए देयो ससुराल,,,
सास के जब लाठी पड़ी तब भाग के आई हमरे द्वारे,,,,। पर सुन ले कान खोल कर हम नही घुसे देब अपने घर मा,,,। ईसवर जाने कब इस कुलक्षनी से हमार जान छुटी,,,।"
        मन्नों का दर्द सपने सजाना सीख गया था। शायद इसीलिए उसे अब उतनी तकलीफ नही होती थी।
          हमारे समाज मे ऐसी मन्नों की भरमार आज भी है,,,भले ही हम आधुनिकता का तथाकथित आवरण अपने समाज को पहनाने का दावा करते हों।
         एक औरत ही औरत की शत्रु है?,,,या मन्नों की माँ बचपन से ही उसे नारी जीवन की सत्यताओं का आभास कराने का प्रयास कर रही थी,,?? जितने भी दमघोंटू परिवेश मे जीवन पटक दे,,, हम औरते जी लेती हैं,,,मुस्कुरा लेती हैं,,,,,सपनों की दुनिया के आवरण मे अपना यथार्थ छुपा लेती हैं।

                *समाप्त**

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया...कैसा सजीव चित्रण कर डाला आपने....जैसे मैं सामने ही किसी मां बेटी को देख रही हो.....शायद इसीलिए खत्म होते ही धक्का सा लगा...एकदम से बाहर आना मुश्किल लग रहा है...मैं कहानी की आशा में थी शायद...हो सके तो इसी को पूरी कहानी का रूप दे दें...मन को तृप्त करना है!

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  2. पारूल टुकड़ों टुकड़ों मे थोड़ा थोड़ा समेट रही हूँ,,अभी हाथ उतना सधा नही है,,। तुम्हारी टिप्पणी एक प्रेरणा है,,एक दिन कहानी पूरी ज़रूर करूगीं। हार्दिक आभार दोस्त☺

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  3. मन्नो की मानसिकता से लेखिका ने परिचय बेहद स्वाभाविक परिचय कराया। किशोरी मन की मानसिकता के सजीव चित्रण ने मन मोह लिया पर लगा कहानी अचानक समाप्त हो गयी। कहानी एक उत्सुकता भरी प्यास जगा गयी। कहानी संछिप्त रूप से पूर्ण है किंतु यदि खुली खुली रहती तो बात ही क्या थी। एक झकझोर देनेवाली लघु कथा।

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