बुधवार, 9 अगस्त 2017

मै कुमुद-कुंज सी बन जाऊँ,,,,


                            (चित्राभार इन्टरनेट)
                     

आज शुभरात्रि बोलने का मन नही है,,,,,चांद को,,,,,।कुमुदिनियों ने अभी तो अलसाई पलकों को मलना शुरू किया है। धवल,,सुकोमल,,,अधखुली पंखुड़ियों ने अभी तो चांद को देखना शुरू किया है।
     दिन भर तो खुद को कली सा समेटे ,,,,सूरज के ताप से,मन की नरम अभिव्यक्तियों,,भीनी-भीनी सुगन्ध को मुरझाने से बचाए रखा था। अब अपने चितेरे की उपस्थिति मे खुद को खिला रही है।
      रात निःशब्द है,,,और चाँद मेघों से ढ़का हुआ। थोड़ा बोझिल सा है। खुलकर सामने नही आ पाने की विवशता दिख रही है। कोई आग्रह करने का भी आज मन नही,,,। ऐ चांद आज मेघों की झीनी चादर से तुम मुझे निहारो,,,मै तुम्हे निहारूँ,,,,,,,,,,।
       बस आज शुभ रात्रि बोलने का मन नही,,,,,। मै इन कुमुद कुंज के साथ खुद को भी खिला देना चाहती हूँ,,,। पूरी तरह से तुम्हारे ख्यालों मे खुद को लीन कर,,मन के शांत सरोवर पर तैरना चाहती हूँ। जब कभी मन भयभीत कर देने वाली भविष्य की विनाशकारी आशंकाओं के दलदल में फंस जाता है,,,,,,कई दिनो तक विषाद,,भय से तड़पता है,,,रोता है बिलख लेता है,,,सारे नकारात्मक उद्गारों को कहीं अनंत पाताल में छुपा देता है,, तब एक अजीब से ठहराव की अनुभूति आती है।
       उस पल मै अपने को कुमुदिनियों के सौम्य,,उज्जवल,सुकोमल कुंज के बीच बिठा लेना पसंद करती हूँ,,,। मन करता है,,,इस सृष्टि के सुन्दरतम् सृजनों से अपना परिवेश सजा लूँ।
       सब कुछ भूलकर कुमुद कुंजों संग अटखेलियां करती रहूँ।
अपनी अंगुलियों से उन खिले हुए पुष्पों के आकारानुरूप स्पर्श खींचूँ,,,। कभी नयन को झील सा गहरा बना कर,,,उन कुंजोंके झुंडों को बसा लूँ ,,,। अपनी नसिका द्वारा एक दीर्ध निःश्वास के साथ सभी व्यग्रताओं और चिन्ताओं की श्वास बाहर फेंक खाली कर लूँ,,,और बड़े प्यार से एक एक कर हर पुष्प की सम्मोहिनी भीनी-झीनी सी सुगंध को अपने अंतर तक भर लूँ।
           सुकुनी सुगंध का संचार रक्तकोशिकाओं मे भर जाए,,।
मन से मस्तिष्क तक सब कुमुद- कुंज बन जाए। और मै एक शांत सरोवर,,,, सुन्दर कल्पनाओं के कुमुद-कुंज को अपने ऊपर  तैराती हुई,,,मेघों की आगोश में सोए बोझिल चाँद को,,,,,,,,असीम प्रीत से भरी पूरी तरह खिली कुमुदिनी सी अपलक निहारती रहूँ।
          आज शुभरात्रि बोलने का मन बिल्कुल भी नही,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,🌼🌝

3 टिप्‍पणियां:

  1. अपने परिवेश के प्रति यह अनुराग यह दुलार प्रीत के मेघों से आच्छादित है। चाहत की हवाएं मंद गति से बगिया की सुगंध से आपूरित है। हर पल पायल की रुनझुन की तरह स्वरलहरी निर्मित कर रहा है। नारी जब अपनी दुनिया सजाती है तो प्रकृति का सहारा लेती है और उस निर्माण प्रक्रिया को निरख प्रकृति भी ठगी रह जाती है। नारी मन के संसार का सजीव चित्रण। हृदय का हरण कर लेनेवाली रचना।

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  2. सुंदर....बहुत ही सुदंर रचना...जी लिया मैंने भी रात के उन दृश्यों को��

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    1. आभार,,,पारूल!! रचना के भावों के साथ तुमने भी कुछ पल बिताएं,,,रचना सार्थक हुई!!

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