मन एक लम्बे अरसे से बह बहकर जैसे खुश्क़ रेगिस्तान सा हो चुका था। इतना के हौले से रेत का सरकना भी कर्कश लगने लगा।
बस इतना ही कहा था करन ने प्यार से -
मुझे तुम चाहिए ,,,
मेरा उन्मुक्त आकाश ,मेरी सांसों का महकता स्पंदन!
मिला करो ना फिर से वैसे ही जैसे पहले मिलती थी।
चहकती सी, प्यार में मुझको भिगोती हुई।
और कुछ बोलता करन उससे पहले ही
शिखा बोल पड़ी - मत बोला करो अब ऐसे।
कमरे में सामान हटाए -बढ़ाए जा सकते हैं । एक टेबल के जगह कोई और नई टेबल लगाई जा सकती है। और इसपर भी गुंजाइश उतनी ही होती है जितनी कमरे में जगह हो। गोदाम थोड़े बनाया जा सकता है। चलने-फिरने के लिए भी तो जगह होनी चाहिए ना?
पर दिल में इंसान की रिप्लेसमेंट नही हो सकती।
कोई किसी की जगह कभी नही ले सकता।
ये बात मैने खुद को बहुत अच्छे से समझा लिया है।
प्राथमिकता सदैव प्रथम ,,,'दूसरा' होने की अपनी अलग ही पीड़ा होती है। मुझे उस पीड़ा से हरी-भरी रहने दो।
मेरे तुम्हारे एकान्त के वो डेढ़ साल मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत सावन रहेगा।
अब मुझे लौटने को मत कहना।
"ठीक है जैसी तुम्हारी मरज़ी जैसे रखोगी वैसे ही रहूँगा" करन से कुछ और कहा ना गया। एक मंज़िल के राही दो अलग रास्ते पर जाते दिखे।
इसी सोच के साथ , मन के रेगिस्तान फूटेगी कोई खजूर की पौध,यादों का सावन रखेगा उनको हरियाया,,
लिली