मंगलवार, 26 सितंबर 2023

चक्र


 

ना कहीं पहुँचना है
ना कहीं से वापस आना है
ना ही कुछ पाना है
ना ही जो है उसे खोना है
मुझे तो बस-
जिस जगह हूँ वहीं से
थोड़ा ऊपर उठ जाना है
ताकि खुद को और अच्छे से
समझा सकूं-
आसमान कुछ नही,
एक विस्तृत भटकाव है
और
जमीन पर सबकुछ नश्वर है
जो मिला जो खोया सब मिट्टी है
तटस्थता का अधर
साधना ही लक्ष्य है।

.

.
सबको सबका देते हुए
हम अपने से दूर हो जाते हैं
इस दूरी को पाटते हुए
स्वयं की ओर लौटना
ही जीवन वृत्त का
अंतिम छोर है
जोड़ लिया तो चक्र पूर्ण हुआ
नही जोड़ पाए तो
वृत्तों की
अर्द्ध आवृत्तियाँ
बन कर रह जाता है आदमी
तड़पता...
बिखरता...
भटकता...
आदमी।

रविवार, 17 सितंबर 2023

मेरा बसंत

                   चित्र साभार इन्टरनेट
 



जानते हो मेरे मन की आरामगाह में

एक बेहद सुकून भरा कोना है

जिसमें एक बड़ी सी खिड़की है
बिना सलाखों वाली
और जिस पर लगा रखा है मैंने
एक झीना  आसमनी रंग का लेसदार परदा
टांकें उस पर पीली सरसों के छोटे-छोटे फूल
एक 'विन्डचाइम' भी झूला दिया है बाई तरफ
बैठती हूँ आकर थका मन और तन लिए खिड़की की चौखटे पर और करती हूँ प्रतीक्षा हवा के उस झोंके की
जिसमें भरे होते हैं तुम्हारे महकते एहसास
पाते ही तुम्हारा स्पर्श झनक उठता है 'विन्डचाइम'
बंद हो जाती हैं मेरी पलकें...
भर लेते हो आलिंगन में अपने
और मैं भर जाती हूं 'तुमसे' लबालब
तुम्हारी पदचाप होते हैं विन्डचाइम के स्वर
यूं ही जब शरारत सूझती है तो उतार कर रख देती हूं
उसे,,
और तुम दबेपांवों से मेरी कमर को कसते हुए
अपने पाश में
फुसफुसा देते हो मेरे कानों में महुआ
रोम-रोम बन जाता है मेरा 'विन्डचाइम'
कमरे के बाहर एक तख्ती टांग दी है
'मेरा बसंत'❤

कोई बात ना हो फिर भी


गीत


कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती  हो
मैं नज़रे उठा कर कहूं
तुम मुस्का के सुनते हो

खामोश किनारों पर
लहरें भी चुप सी हों
बन लहरों सी छू जाऊं
तुम तट से गीले रहो

कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती हो

कहने सुनने को अब
कुछ भी ना रहा बाकी
मैं आँचल सा सागर हूं
बन सूरज ढल जाओ

कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती हो

जब बूंदों ने छूकर
लहरों को तृप्त किया
मैं नीरव मौजे हूं
तुम इन पर लहराओ

कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती हो
मैं नज़र उठा के कहूं
तुम मुस्का के सुनते रहो


नदी और गुलाब






नदी और गुलाब

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उसने एक गुलाब दिया

बंद पंखुड़ियों को

खोलते भँवर दिखाए

और कहा- ये नदी सा गुलाब है

जो तुम्हारे अंदर बहती है

करती है आमंत्रित इन भँवरों

में डूब जाने को,

रंगत सुर्ख लाल है इसकी

ग्रहण के बाद के चाँद सी..

अब नदी उछल रही है

पत्थरों पर लहरों की

अंगड़ाइयां चटखाती

किल्लोलती....

अपने मैदानों को भीगोती

अपने पहाड़ों पर रीझती

 

मैंने कहा-रुक जाओ! बस करो!

गुलाब के इन

भंवरों पर और उंगलियां मत फेरो।

इतना साध नही पाएगी नदी

झर जाएगीं पंखुड़ियां गुलाब की भी
 



 

सोमवार, 11 सितंबर 2023

बगावत


 

 बगावत

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 अलग बहना चाहे

नदी की कोई एक लहर,

कोई बूँद छिटक कर सागर से

फिर से बन जाना चाहे बादल,

जिस डगर जाते हों

हवा के झोंके झूमते

कोई एक झोंका तोड़ कर खुद को

चुपचाप निकल जाए,

किसी ख़ामोश से

जंगल के झुरमुटों तरफ ...

कभी ऐसा होना सम्भव हो सके तो बताना मुझे भी,

मै भी एक टुकड़ा तोड़कर खुद से

उस नदी की लहर,

उस सागर की बूँद

और

उस हवा के बागी झोके संग

भेज देना चाहती हूँ।

बगावत की सुगबुगाहट को

कुचलने का अब जी नही करता।

मंगलवार, 5 सितंबर 2023

गुरु


                           चित्र साभार गूगल


गुरु बिना नहीं तर सके, तम सागर का छोर

कारे आखर जल उठे, उजियारा सब ओर।।


धर धीरज धन ज्ञान का, मिलती गुरु की छाँव

ज्यों पीपर के ठाँव में , बसे विहग के गाँव।।


ज्ञान मिले ना गुरु बिना, ज्ञान बिना ना ईश

सूने घट सा मन फिरे, बूँद बूँद की टीस।

लिली