रविवार, 26 नवंबर 2017

मै औरत हूँ,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)
 कागज़ पर
ही सही
मैं अपनी
कल्पनाओं के
बादल रचती हूँ
मै औरत हूँ
मै अपना
आसमान खुद
रचती हूँ,,,

घर-गृहस्थी के
कैनवास पर
भी सबकी
खुशियों के
रंग भरती हूँ
मै औरत हूँ
मै अपना
कैनवास रंगीन
रखती हूँ,,

ख्वाब आंखों में,
पर यथार्थ
के चश्में से
सब परखती हूँ
मै औरत हूँ
बड़ी महीन नज़र
रखती हूँ,,

अपनी चंचलता
से जहान को
शोख हसींन
रखती हूँ
मै औरत हूँ
मै फूलों में
खुशबू बन
महकती हूँ,,

नरम दिल ही
सही,हौंसले
बुलंद रखती हूँ
मै औरत हूँ
हर हालात में
जीने का दम
रखती हूँ,,,

लिली ☺

क्यों हर बार औरत को विषय बनाया जाय?

                          (चित्राभार इन्टरनेट)

   क्यों हरबार औरत को विषय बनाएं??
*****************************

रचनाकारो से कह दो
खुली छाती और चिथड़ों
में लपेट किसी औरत को,
अपने सृजन पर ना इतराएं
कभी विकृत मनोभावों और
कुलषित विचारों की अंधेरी
कोठरी में छुप छुप कर रोते
पुरूषों को अपने सृजन का
विषय बनाएं,,,,,,

कहकर,रोकर सबके सम्मुख
औरतें खुद को संभाल लेती हैं
वह धरा सम हर विकारव्यवहार
डकार लेती है,उन पुरूषों को
चाहिए सहानुभूति आपकी जो,
पौरूष के झूठे दंभ में अपना दर्द
हैं छुपाते,दमित कुंठाओं के उद्गारों
से समाज को विकृत हैं बनाते,,

ईश का सृजन दोनों,क्यों किसी
एक पर हो चर्चा? कभी पुरूष
भी अपने मन की खोह में दबे
दर्द,भय,अहम्,उत्पीड़न,शोषण
के चीथड़ों में लिपटा अपना वजूद
दिखलाएं,क्यों हर बार औरत को
ही आयोजनों का विषय बनाएं,,?

लिली 😊

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

हे साहित्य! तुम्हे आत्मसात् करती हूँ,,

(चित्राभार इन्टरनेट)

आसान नही होता
सांसारिकता में बंध
तुम्हे रचना,,
फिर भी मै प्रयास 
करती हूँ,,
हे साहित्य! 
मै तुम्हे आत्मसात 
करती हूँ,,,,

मिले हो ईशाषीश से
तुम्हे प्रीत का मुधरतम्
गीत मान 
मै तुम्हे काव्यसात्
करती हूँ,,
हे साहित्य!
मै तुम्हे आत्मसात 
करती हूँ,,

हाँ प्रेमासक्त हुई तुम
संग,मै प्रेम शंख का
निनाद् करती हूँ
मै तुम्हे विख्यात्
करती हूँ,,
हे साहित्य!
मै तुम्हे आत्मसात 
करती हूँ,,

लिली🌷

शिव सम साहित्य मेरा,,,

                       (चित्राभार इंटरनेट)
शिव सम
साहित्य मेरा,
शान्त,स्निग्ध,
सौम्य,सुन्दर
लीन है अभी
ध्यान योग में,
भावनाएं मेरी
गौरी सम,चाहती
हैं उसे जागृत करना
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,,,

उसे समर्पित
करनाचाहती हूँ
तपस्या मेरी,,
कर अर्पित मेरी
संवेदनाओं के
बेलपत्र,शब्दों
का दुग्धाभिषेक
मदार,धतुर से
उद्गार,मधु लेप
से रसालंकार,
सब उसे अर्पण
करना चाहती हूँ,
भावाभिव्यक्तियां को
गौरी बना उसे वरण
करना चाहती हूँ,,
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,,,

हो प्रसन्न मेरे
तप अर्चन से
जब वह खोलेगा
अपने योग मुदित
नयन,देखेगा मुझे,
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
दृष्टि से, मै शिवमयी
हो उसे खुद में समाहित
कर,बह जाऊँगीं,,,,
बन भावभागीरथी
स्वर्ग से धरा तक
अंतस से बाह्य तक
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,

चिरकाल से
हृदय कैलाश में
तपलीन, वह मेरी ही
तलाश में शायद
मै भी सती से
पार्वती सी तुम
से तुम तक पहुँचने
को अधीर,कितने
युग,कितने युग्मों
से उलझती निकलती
आ पहुँची हूँ,अपने
 इष्ट के निकट
अपने शिव के निकट
अपने साहित्य के निकट
शिव सम
साहित्य मेरा,
शान्त,स्निग्ध,
सौम्य,सुन्दर
लीन है अभी
ध्यान योग में,,,

लिली🌷

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

कृष्ण कृष्ण होय रहे,,,

                             (चित्राभार इन्टरनेट)


 🌷कृष्ण🌷
**********

कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

कृष्ण बदन रूप मदन
मनन मनन मोह रहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

कमल नयन कुंज सघन
मगन मगन खोय रहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

हिया हूँक पिया मिलन
सजन सजन रोम कहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

प्रेम सुधा झरत नयन
रहत रहत रोय रहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

लिली😊

रविवार, 19 नवंबर 2017

कुछ शब्द यूँ ही गिर जाते हैं,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

हवा ,घटा
नभ,चन्द्र चीर
उड़ते पक्षीं
नदिया का नीर
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,,
कुछ शब्द यूँ हीं
गिर जाते हैं,,,

उदधि हिंडोलें
सूरज की पीर
परवत का पौरूष
धरती का धीर
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द यूँ हीं
गिर जाते हैं,,,

नव कोपल की
शैशव सी गात
हिलती शाखों की
झनकीली बात
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द
यूँ ही गिर जाते हैं,,

उबड़-खाबड़
पथरीले पाथ
मै तुम और
कविता का साथ
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द यूँ ही
गिर जाते हैं,,

भौतिकता की
भड़कीले भेद
कुछ आत्मबोध
करवाते खेद
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द यूँ ही
गिर जाते हैं,,

लिली🌷

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

हे कावित्य! बस तुम्हे समर्पित,,

                          ( चित्राभार इन्टरनेट)

मेरी कविताओं के कावित्य को समर्पित,,


हे कावित्य!
रहते हो मेरी
कविताओं के साथ
कभी तो पकड़ों
जीवन पथ पर भी
मेरा हाथ,,,,,,,,,,,,,

शब्दों और भावों से
आओ निकल कर बाहर,
जिन सड़कों पर तुम्हे 
सोच कई बार मुस्कुराती,
कई बार नयन छलकाती
चलती हूँ,, चलो ना कभी
पकड़ कर मेरा हाथ,,,

हे कावित्य!
रहते हो मेरी 
कविताओं के साथ
कभी तो पकड़ो
जीवनपथ पर भी
मेरा हाथ,,,,

क्यों तुम मेरी कल्पनाओं
में रचते हो? 
एक मौन से
परन्तु नित नए काव्य 
गढ़ते हो?

ख्यालों की रसोई में
पकवानों से पकते हो,
खटकते पटकते बरतनों
में किसी 'राग' से बजते हो,
कभी आओ ना पास,
तुम्हे भी खिलाऊँ 
अपने हाथों से पके
भोजन के ग्रास,,
कहो तुम भी नयनों
में भर अह्लादित नेहपाश
मेरी प्रिये सम नही कोई 
दूजे का साथ 
हे कावित्य!
कभी तो बैठो
मेरे साथ,,,,

क्यों तुम्हे नित नए
उपमानों से सजाऊँ?
गीतों में ढालूँ और दुनिया
को सुनाऊँ?
क्यों तुम्हे एकान्त में समेटूँ
और भीड़ से छुपाऊँ?
तुम क्यों नही मेरे यथार्थ 
का धरातल बनते?
तुम में 'बोए' मेरे सपनों
के अंकुर पनपते,
मैं इन पौध की एक
बगिया सजाती,
बढ़ती फलती 
शाखाओं को तुम संग
देख तुममें सिमट जाती
'शाम' सीढ़ियां चढ़ती 
तुम्हारी आहटों पर,
धड़कनों का होता साथ
हे कावित्य!
कभी तो बैठो 
मेरे साथ,,,
जीवन पथ पर 
पकड़ो मेरा भी हाथ,,

लिली😊

सोमवार, 13 नवंबर 2017

निक्कर नई सिलो दो,,,

                          (चित्राभार इन्टरनेट)

#बालदिवस पर मेरे सभी बाल मित्रों के लिए ☺☺

घप्पूऊ घप्पूऊ
घप घप घप
मुहँ फुलाए
बैठा हप्प
निक्कर छोटी
होगई मेरी
नई सिला दो
झट झट झट

ऊँची ऊँची
दिखती है
कक्षा की टोली
हसँती है,,
मैडम भी
मुझसे कहती अब
नई सिला ले
झट झट झट

माँ बोली
सुन मेरे लाल
टेलर अंकल
नही दिखे थे कल
आते ही सही
करा दूँगीं
आज चला ले
बस बस बस

आज पहन
कर जाता हूँ
कमर के नीचे
खिसकाता हूँ
जो कल ना
निक्कर ठीक हुई
फिर  मानूँगा
ना कोई  बात
चाहे लगा लो
जितनी डांट
पापा से कह दो
कर के फोन
नई दिला दे
झट झट झट

👶👶👶 लिली 👶👶

शनिवार, 11 नवंबर 2017

अपराजिता की अभिलाषा,,,

                     
                           (चित्राभार इन्टरनेट)

मै आत्माओं का संभोग चाहती हूँ
वासनाओं के जंगलों को काट
दैविक दूब के नरम बिछौने
सजाना चाहती हूँ,,,

करवाऊँ श्रृगांर स्वयं का तुमसे
हर अंग को पुष्प सम सुरभित
खिलाना चाहती हूँ,,,,,

अधरों की पंखुड़ियों पर सिहरती
तुम्हारी मदमाती अंगुलियों की
चहलकदमी चाहती हूँ,,

भोर की लाली लिए अंशुमाली से
नयनों को तुम्हारी नयन झील
में डूबोना चाहती हूँ,,,,,

तन की अपराजिता बेल को सिहराते
तुम्हारे उच्छावासों की बयार से अपनी
हर पात को हिलाना चाहती हूँ,,,

खिल उठेगा भगपुष्प भुजंगीपाश से
प्रीत का रस छोड़ देंगी पुष्प शिराएं
यह रसपान तुम्हे कराना चाहती हूँ,

चहचहा उठेगीं खगविहग सी उत्कर्ष
की अनुभूतियां,मै आनंदोत्कर्ष का
यह पर्व मनाना चाहती हूँ,,,,

भौतिकता का भंवर अब नही सुहाता
संतुष्टि की जलधि में ज्वारभाटा बन
अपने चांद को छूना चाहती हूँ,,,

मै तुम संग आत्मिक संभोग चाहती हूँ

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

कुछ तार सुरों के बहके हैं,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कुछ तार सुरों के     बहके हैं,
मतवारे     पंछी      चहके हैं।
दिनमान में भी अब दीप जले,
रात में अब  दिनकर   चमके।

मन  सुन्दरवन  सा  घना घना
लिपटा भावों से हर तरू तना
वनजीवों सी चंचल अभिलाषा
नही निर्धारित कोई इनका बासा
सब अपनी ही  धुन में लहके हैं
कुछ तार सुरों    के  बहके   हैं
मतवारे    पंछी      चहके     हैं।

मन चाहे बस सब लिखती जाऊँ,
कभी कवँल कुमुदिनी बन जाऊँ।
फिर रूप   अनोखा लिए खिलूँ,
मंडराते भ्रमरदलों के हृदय हरूँ।
नव पल्लव झनझन खनके   हैं,
कुछ तार   सुरों के    बहके   हैं,
मतवारे      पंछी      चहके   हैं।

उन्माद उमड़   उर धड़क  रहा,
दमित दावानल अब भड़क रहा।
घनघोर घटा भी झमझम बरसी,
भरती नदियां भी प्यासी  तरसी।
काव्यकोष  भर   छलके      हैं,
कुछ तार सुरों    के बहके     हैं,
मतवारे  पंछी        चहके    हैं।

मन क्या कहने को व्याकुल है,
बंधेपाश खुलने को  आतुर हैं।
गगन भी अब उड़ता दिखता,
चन्द्र नही अब सीधा  टिकता।
सब बीच  अधर में  लटके हैं,
कुछ तार     सुरों के बहके हैं,
मतवारे    पंछी     चहके   हैं।

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

खुद को एक समुद्री लहर सा पाती हूँ,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कभी कभी खुद को
एक समुद्री लहर सा
पाती हूँ,,,,,,,,,

कई मनोभावों का एक
समग्र गठा हुआ रूप
जो किसी ठोंस अडिग
चट्टान से टकरा जाने
को तत्पर है,,,,,,,,,,

क्षितिज की अवलम्बन
रेखा से बहुत कुछ भरे हुए
खुद में,लहराती बलखाती
तरंगित होती,एक लम्बा
सफर तय करती हुई 'मैं'
चली आ रही,,,
मै बही आ रही,,,,,,,,

कई बार टूटी हूँ,कई बार
जुड़ी हूँ,यह मेरा व्यक्तित्व
यूँ ही नही गढ़ गया,असंख्य
छोटी बड़ी लहरों में घुली हूँ
भंवर में खींची हूँ,तब कहीं
अनुभवी हिंडोलों संग
तट तक पहुँचती, देखो!
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,



बहुत कुछ बर्फ के शिला
खंडों में जमा दिया मैने
फिर भी बढ़ती रही शेष
के अवशेष को   समेटे
किनारे पर घंसी हुई मेरी
चट्टान से टकराने को व्यग्र
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,

एक गहन शोर है उल्लास का
एक जोश है आनंदानुभूति का
जो बहुत तेज़ है,शान्त किए दे
रहा है यह  निनाद,आस -पास
का सब कुछ,,,,एक वेग
से टकरा कर छिटक जाने को
जो भर कर लाई हूँ दूर से, उसे
असंख्य जलबिन्दुओं में फैला
कर छितरा देने को, देखो !
मै चली आ रही हूँ,,
मै बही आ रही हूँ,,,

मुझे है दृढ़ विश्वास के तुम
सह जाओगे मेरा वेग,,,,
लेट जाओगे 'शिव' से शान्त
होकर धरा पर,'काली' के
प्रचण्ड रौद्र को सह लोगे
अपने वक्षस्थल पर,और
कर दोगे सब शान्त,,देखो !
मै चली आ रही हूँ,,,
मै बही आ रही हूँ,,

लौट जाऊँगीं फिर मै एक
शांत 'गौरी' बनकर 'शंकर' की
पुनः नव निर्माण करने,,,
बस यही आस लिए ,तुमसे
मिलकर खुद को विखंडित
कर,पुनः निर्मित करने, देखो !
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,,

शनिवार, 4 नवंबर 2017

सीमाओं का बंधन ,,उच्छृंखल बना देता है,,,

                      ( चित्राभार इन्टरनेट)

पड़ी हुई हैंउनींदी
आंखें तकिए पर
खिड़की से बाहर
झांकती हुईं,,,,
आसमान तो यहाँ से
भी दिखता है लेकिन
खिड़कियों की सलाखों
और जालियों में जकड़ा हुआ,,,,

चहकती गौरैया
पलड़ों पर फुदक
जाती है, झांक जाती है,,
हिलती पेड़ों की शाखों
से चलती बयार रह रह
कर मेरे चेहरे पर फूँक
सी मार कर छू जाती है,,,

सब कुछ तो मिलता है
बंद कमरों में बनी इन
खिड़कियों से, फिर भी
आंखें पुतलियों को फैलाकर
सलाखों और जालियों
के बंधन से परे क्यों देखना
चाहती हैं,,,???

कैसी चाहत है ये, जो
जालियों के छोटे से छेद
से आंखों का 'लेंस' पूरे
आकाश को खींच लेना
चाह रहा,,???
बहुत देर तक पड़ी
रहती हैं तकिये पर शून्य
को निहारती आंखें,,,,,

सरदियों की दोपहर
और गुनगुनी धूप तो
पड़ती है मेरे बिछौने पे
घंटों पड़े रहकर बदन भी
कुनकुना हो जाता है,,
फिर भी चाह किसी
फैले समुन्दर की रेत पर
औधें पड़ी रहूँ,,,,

रात का चाँद भी समा
जाता है इन खिड़कियों
के नक्काशीदार 'फ्रेम' में,,
फिर क्यों मन नदी का
किनारा और किसी पेड़
कि शाखाओं से झांकते
चाँद की तमन्ना करता है,,,??

मन बड़ा चंचल
सीमाओं का बंधन
इसे उच्छंख्ला बना देता है,,,,

बुधवार, 1 नवंबर 2017

निष्कर्षविहीन मंथन,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

दमघोटूँ कालकोठरी
सा एक कोना मन का
एक दरार सा
झरोखा खींसे
निपोड़ता हुआ

दबी कुचली कुंठाएं
अपनी उखड़ी सांसों
का मातम मनाती हुई
विद्रोह जैसे अभी भी
बाकी है,इस बेदम शरीर में

एक मास्क लगा दे
कोई ऑक्सीजन का
तो थोड़ी देर और जी लें
जानती हैं कि इन कुंठाओं
कि नियति कुचल कर
मसल जाना ही है,,
फिर भी सिर पटक रही हैं

एक झरोखा खोज ही लेती हैं
और खोजना प्रकृति है
विकारों का जमावड़ा
स्व के लिए विस्फोटक,,,,
और विकारों का उद्गार
समाज के लिए विकृतिकारक,,

क्या किया जाए????????
स्व का सुधार या,
समाज का सुधार?????
चलो एक ऐसे विकृत
मनोभावों का एक
'डंपिंग ग्राउंड' बनाएं
अंतस के उस खींसे
निपोड़ते झरोखे के
आमंत्रण को अपनाएं,,,

कुछ सांसे तो खींच ली
बाह्य का आवरण अब
मुस्काए,तनाव,खींझ
कुछ हद तक शांति पाए,,
चलो अब समाज को
सुधारने का अभियान चलाएं,,,

लिली 😊