बुधवार, 13 नवंबर 2019

बालदिवस विशेष



फूलों में रंग है भरता कौन?

फूलों में रंग है भरता कौन?
क्यों रहता है चंदा मौन?

चिड़ियों के नाम धरे किसने?
आम को आम कहा किसने?

दही का जामन बना कैसे?
आसमान यूँ तना कैसे ?

सही/गलत सब होता है क्या?
वाॅच मैन भी सोता है क्या?

संग रेल के क्यों चलता है सब? 
माँ बोलो-भोलू उड़ता है कब?

हमको उलझाते जटिल सवाल
बाल हृदय के सुलभ बवाल
लिली👼👼


गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

असंतुष्ट प्रश्न


असंतुष्ट प्रश्न

कमरे की हर दीवार,छत, खिड़की दरवाज़े पर
प्रेम बसाया,
एक साथ बैठकर, खिड़की के बाहर दिखने वाले
आभास के आकाश पर
तराशे कल्पनाओं के बादल,
दरवाज़े से होकर गुज़रने वाली अजनबी पदचाप से,
होकर सतर्क
हम मुँह दबा कर हथेलियों से, हँसते रहे एक शरारती हँसीं
मोबाइल पर होते संवादों की नही थी कोई सीमारेखा,
परन्तु अब कुछ अजीब सा हो गया है
हृदय उद्वेलित है भीतरी उथल-पुथल से,
अशान्त मन उसी कमरे  की दीवारों और कोनों
में बसे प्रेम से पूछने लगा है सवाल,
लगाने लगा है आक्षेप,
करने लगा है अपेक्षाएँ
खिड़कियों के बाहर दिखने वाला आभास का आकाश
लगने लगा है सीमेन्ट की पक्की सड़क सा,
जिसपर तैरते नही बादल,
दौड़ रहे हैं वाहन,
जिससे निकलते काले धुएँ बादलों का भ्रम देते हैं
पर तराशे नही जा सकते,
अब संवादों को मिटाते वक्त प्रेम गिन कर बता देता है
वाक्यों की संख्याएँ,
'संवादों' ने बदल लिया है पैराहन
अब वे पहनते हैं 'चर्चा का जामा,
और कहा जाता है पूछने पर -"आदतन,बता दिया,
क्योंकि छुपा नही सकता कुछ''..
कभी-कभी पारदर्शिता का अतिरेक भी
बाधित कर देता है सांसों की अविरल आवाजाही!
इसलिये, बस इसीलिए,भागना चाहता है कमरे में बैठा
प्रेम, खुले मैदानों की ओर,
हाट बाज़ारों की ओर,,
होना चाहता है 'अन्यमनस्क',
बंद कर लेना चाहता है हृदय गुहा के कपाट,
यह कैसा पड़ाव है? यह कैसा विस्तार है?
प्रश्न असंतुष्ट हैं सभी यहाँ,
लिली😊

रविवार, 22 सितंबर 2019

स्याह..भयावह नीला रंग

                    (चित्राभार इन्टरनेट)



अच्छा हुआ किया तुमने
जो सारे बादल अपने साथ ले गए
आसमान अब साफ़ दिख यहा है
अब मै देख पा रही हूँ साफ़-साफ़
के बादलों के पीछे ,दरअसर कोई
गांव नही है, वहाँ कोई दरिया नही बहता
जिसमें तैरती हैं चमकती हुई मछलियाँ
वहाँ कोई पेड़ नही जिसकी शाखाओं
पर चाँद टिका कर बैठता है अपनी ठुड्ढी
वहाँ तो बस गहरा गड्ढा है जो नीले रंग
में रंगा किसी कैनवास सा भ्रम देता है
ब्रश चुबो कर सपनीले रंगों से बनाने
जाओ अपने मन की आकृतियां तो,
खींच कर खुद में घसीट लेता है,
और यह गिरना बहुत भयावह होता है
किसी अंतहीन गुफा में गिरते जाना
जो काली नही नीली है, नीला रंग शायद
काले स्याह से ज्यादा डराता है,इस हालात में ये अब जाना। किसी धरातल पर पटके जाने की प्रतीक्षा में गिरते जाना..गिरते जाना...गिरते जाना... इस नीले डर से जुझते हुए जाना कि- ज़मीन पर गिर कर चोट खाना कितना सरल है। जख़्म कुछ दिनों में सूख जाते हैं। एक निशानी दे जाते हैं स्मृति के तौर पर। लेकिन आसमान पर गिरना- ना ज़ख्म दिखता है खुद को,ना सूख कर कोई निशान दे जाता है। नसों को दबोच कर खून सूखा देता है जिसको बयां नही किया जा सकता।
समझ नही आता मुझे बादलों से इतना बैर क्यों हो गया?
और आसमान से इतना ख़ौफ़?
लिली😊

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

अतृप्ता पर, ताराचन्द शर्मा जी की अनूठी समीक्षा..


कुछ अलग हटके।
आज एक खत कविताओं के नाम
आज कविताओं की एक कविता

लाजवाब कवयित्री लिली मित्रा के कविता संग्रह "अतृप्ता" की सशक्त कविताओं की एक कविता।
यह संग्रह 51 बेशकीमती मोतियों की एक ऐसी माला है जिसका प्रत्येक मोती अपनी एक अलग ही आब लिए हुए है। उन 51 कविताओं के शीर्षकों को क्रमशः गूँथ कर मैंने भी एक माला बनाने की कोशिश की है। पर इनका असली आनन्द तो आपको "अतृप्ता" पढ़कर ही प्राप्त होगा।
***********************************

ऐे मेरे देव!
#मेरी_कविताओं_के_कवित्व
नमन तुम्हें।

#हे_साहित्य_मैं_तुम्हें_आत्मसात_करती_हूँ"
सत्य की तरह।
क्योकि ये
#शिव_सम_साहित्य_मेरा
जो सर्वाधिक सुन्दर है।

मैं अपने भीतर भी
अपनी कविताओं की तरह
#बंधन_मुक्त_कविता" हूँ।
नही चाहती मैं किसी भी तरह की
#सीमाओं_का_बंधन"
न कविता में, न खुद में।

जानती हूँ
#कुछ_यूँ_था_अपना_अफ़साना"
कि
#मैं_गीत_हूँ_उसके_लिए"
उसके प्यार में
#कुछ_शब्द_यूँ_ही_गिर_जाते_हैं
मेरे प्रिय
#तुम्हारी_यादों_की_रजनीगंधा
से महका ये मेरा
#मन_गिलहरी" सा हो गया है।
तुम्हे
याद होगी
#वो_दिसम्बर_की_भोर
जब,
चंद पलों के बिछोह से भी
अनायास निकला था मेरे भीतर से
#आई_मिस_यू


#मेरे_आत्मसंगी
#सुनो_मेरे_वट
मैं जब भी सोचती हूँ तुम्हे
#समुद्री_लहर_सा_पाती_हूँ
इस
#मैं_और_तुम" में
तुम ही तो हो
जो मैं हूँ।
तुम
#तुम_टेसू_के_जंगल"
मेरे लिए।
मेरा
भूगोल भी
मेरा
#भूडोल" भी।

सुनो देव!
इस
#अपराजिता_की_अभिलाषा" है
जान सकूँ कि
#खुशबू_क्यों_अदृष्यमान?"

#सुनो_सजना
तुम
#यूँ_सताया_न_करो"
तुम
जब भी चाहोगे
जहाँ भी चाहोगे
#मुझे_पाओगे

कहते है
#प्यार_को_पूर्णता_कहाँ?
सच ही कहते है।
ये तो अनन्त है, अपार है।

और
एक सवाल
तुझसे भी
#ऐ_ज़िन्दगी!
तूने ये
#मेरे_हाथों_की_लकीरें"
किस तरह से लिखी हैं?
मुट्ठी में बंद ही नही होती।

तूने तो
मेरा
#मन_गौरैया_बना_डाला
जो
आ जाती है चहकती हुई
शयनकक्ष में
और बैठ जाती है
सिरहाने
#तकिये" पर।
और तकिया
मुझे कहता है
#हौले_से_सरक_जा"

ये
मेरा ममत्व,
#मेरे_मन_का_मधुमासी_कोना"
फिर चल दिया
एक अजाने
"सफ़र" पर।
एक बार
फिर लगा
"न जाने कैसा हो मेरा अवसान"
फिर बन गया
मेरा
"दिल एक अंतहीन मैदान"
जिसमें कोई
"ठहराव" ही नहीं है।
इसलिए
अब
"मुझे विषय मत बनाइए"
मैंने
"निज जीवन तुम पे वारा है..."
तुम्हारे संग
बस ये
"एक ख़्वाहिश" रही है मीत
कि ये
"नदी रूख़ मोड़ लें"
ये
"फुसफुसाती ख़ामोशियाँ"
दोनों मिलकर सुनें।
इसलिए
मेरे देव
"लो फिर हाज़िर हूँ" मैं।
"मेरी निराशाओं के अंधकार"
रौशनी चाहते हैं तुमसे।
मेरे
"दास्तानी परिंदे"
परवाज़ करना चाहते हैं
तुम्हारे खुले आकाश में।
हाँ प्रिय हाँ
"हाँ यह मेरा ही जलाया अग्निकुंड" है
जिस में तप कर
कुंदन होना चाहती हूँ मैं।
तुम्हारी
"वो झूमती, किसी गाछ-सी" लड़की
शिला होना चाहती है
जिसपर तुम जीवन-तप कर सको।
मेरे साथी
ये
"मेरे रोज़नामचे"
कड़ियाँ हैं
तुम्हारे और मेरे बीच की।
सत्य की।
बीच में कोई और
"मुखौटा" नहीं है।
ना ही इनमें कोई
"निष्कर्षविहीन आत्म-मंथन" है।
सब
मेरे "मन की मथनी" का मथा हुआ
नवनीत है।

ये
जो
"एलीफेंटा के भित्तिचित्र"
मेरे वजूद में उभर आए है
मुझे समझने के लिए
"काफी हैं" तुम्हारे लिए।

समझो
तो तुम्हारी
"अतृप्ता"

~~ताराचन्द 'नादान'

सोमवार, 19 अगस्त 2019

परित्यक्ता,,,



 हे पुरूष सुनो!
तुम प्रेम करना,,
फिर,
राम बन जाना,,
कृष्ण बन जाना
बुद्ध बन जाना
कालिदास बन जाना
मै तुम्हारे हर अवतार की
सहचरी बन
तुम्हारे पौरूष को
अपने सुकोमल प्रेमिल
स्पर्श से,,वज्र सा पुरूषत्व
गढती रहूगीं,,,
फिर,
तुम बेहिचक चले जाना
अपने कर्तव्यपथ पर,,,
मै बस चुप रहूँगीं,,
तुम्हारे संग बिताए
अह्लादित प्रेम सरोवर
को हृदय में दबोचकर
सीता सी सुमरी जाऊगीं
राधा सी पूजी जाऊगीं
यशोधरा सी घुटती जाऊगीं
मल्लिका सी बिसरा दी जाऊगीं

रविवार, 18 अगस्त 2019

एक टुकड़ा ज़िन्दगी,,,

                    (चित्राभार इन्टरनेट)

मुझे बारिश से तर सड़कों पर
आस-पास की सब्ज़ महकती हरियाली
के बीच
तुम्हारे संग चुपचाप चलना है
किसी फूँस की बनी  चाय की टपरी
पर रूक कर,,
चाय पीनी है,,,
जो
अचानक धमक पड़ी बारिश
में मिली पनाह हो,,,,,
आस पास कुछ और ना हो
कुल्हड़ की चाय से उठता
धुँआ और तुम्हारे मेरे साथ
की गरमाहट,,,
बस यही दो गर्माहट का
जरिया हो,,
बाकी सब बारिश में भींग
कर कपकपाता ,,ठिठुरता दिखे,,
मुझे चुप ही रहने का मन है
बोलना बस तुम,,,
तुम्हारी कहन के सुर संग
मैं बारिश के साज़ों
की संगत बिठाती
बस शरमाऊगीं,,
मुस्कुराऊँगी,,या फिर
अपने भीतर उठ रहे एहसासों
के बवंडर को छुपाने के खातिर
ज़ोर का ठहाका लगाऊगीं,,,
पूरा ना सही
एक टुकड़ा ज़िन्दगी
मिल जाती
किसी मोड़ पर ऐसी भी ,,,
बरसात बन के
चाय की टपरी बन के,,
एहसासों का बवंडर बन के
लिली❤

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

वो तेरा मुझको ,,याद आना,,,


वो तेरा,,,,मुझको याद आना
जैसे बारिश की बूँदों का
बिजली के तारों पर ,,,,,ठहर जाना,,,
जाना सुनो!
शीशे से चमकते मेरे
एहसासों पर
ज़रा हौले से
हवा बन के गुज़र जाना,,

वो तेरा,,,, मुझको याद आना
जैसे, भारी बारिश के बाद
पीले कनेर की डालियों,,का झुक जाना,,
जाना सुनो!!
दो पल मेरी छांव तले
झरती प्रीत
में नरम दूब सा
तुम भी भींग जाना,,,

वो तेरा,,,मुझको याद आना,,
जैसे तार पे बैठे गीले पंक्षी का
पर फुला कर गदरा जाना,,
जाना सुनो!
निगाहों को तौलिया बना
हौले हौले
बड़े प्यार से सहलाकर
दुलरा जाना

वो तेरा,,मुझको याद आना❤

लिली😊

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

जागती आँखों का ख्वाब



आसमान से गिरा
और ज़मीन से टकरा कर
चकना चूर हो गया,,,
इतने बारीक हुए टुकड़े
के फिर जुड़ना
नामुम्किन सा हो गया,,
वो कोई तारा नही था,,
वो तो 'एक ख्वाब' था
जागती आँखों का,,
और ये सब मेरी आँखों के
सामने हुआ,,
मैने उसे बादलों की
आगोश में पनपते देखा था,,
उगते सूरज की अलसाई
नरम धूप में उगते देखा था,,
चाँद की हथेली पर
अपने नूरानी चेहरे
को थमा
चाँदनी सा बिखरते देखा था,,
नदी की लहरों पर
बरसते सावन सा
झूलते देखा था,,
जागती आँखों
का वही ख्वाब,
जिसके हर किरचें
में एक सख़्त सा दर्द है
जो  हर नर्म एहसास
से डरता है,,
वो 'प्रेम का जला है
नेह भी फूँक-फूँक
के पीता है' ,,,,
कंकरीट ही बिछाता है
पत्थर ही चबाता है
वह प्रेम का जला है,
नेह भी फूँक फूँक के पीता है
फूँक-फूँक के पीता है
वो जागती आँखों
ख्वाब,,,,

लिली😊

रविवार, 28 जुलाई 2019

बच्चों के लिए देशगीत

                    (चित्राभार इंटरनेट)

आन तिरंगा है
शान तिरंगा है
हर भारतवासी का अभिमान तिरंगा है

आज़ाद चमन के हम
फूल निराले हैं
हीमा सी मृग के हम
स्वर्ण शिवाले हैं
दृढ़ निश्चय की मन में बहती गंगा है

शान तिरंगा है
आन तिरंगा है
हर भारतवासी का अभिमान तिरंगा है

प्रगति करें अविरल
नही रुकने वाले हैं
ले चंद्रयान के पंख
बस उड़ने वाले हैं
उन्नत भारत का आगाज़ मृदंगा है

शान तिरंगा है
आन तिरंगा है
हर भारतवासी का अभिमान तिरंगा है।

रविवार, 21 जुलाई 2019

हाँ,,मै ही ज़िन्दा हूँ


#हाँ_मै_ही_ज़िन्दा_हूँ

चिथड़ों मे लिपटा
सरदी,गरमी,बरसात
हर मौसम में
सड़क के किनारे
फुटपाथ पर
दुकानों के शेड तले
और आजकल
बरगद के पेड़ के नीचे
अपना डेरा जमाए है
खुद में बड़बड़ाता
खोखली निगाहों में
ना जाने क्या कुछ भरता
जी रहा है,, या मुर्दा है?
नही पता !
खुड़दड़ी सड़क पर
अपनी पीठ को
घस घसकर खुजलाता
मंदिर के पास लगे
नलके के नीचे
जब तब खुद को भीगाकर
गरमी को दुलारता
वो जी रहा है,,या मुर्दा है?
नही पता!
एक कम्बल और
गुदड़ी की पोटली
सी सम्पत्ति
को खुद से चिपकाए
वो खुद गठरी बना
निश्चिंत सोता मिलता है
अक्सर मुझे
और मैं,,,,,
डबल बेड के आरामदायक
फैलाव में फैलकर भी
ठंडे एसी के सुकून
भरे माहौल में भी
बेचैन,,थकी,,और उलझी हुई!!!
शायद जीवन तो मै ही जी रही
वो तो मुर्दा है,,!
अपने होने का कारण
खोजती
लक्ष्यों की लिस्ट बनाती
उन तक पहुँचने
के पथ खोजती
हाँ,,,, मै ही ज़िन्दा हूँ,,
लिली😊

मुझे तुम याद आते हो,,


मुझे तुम याद आते हो
ढली शामों संग आते हो

वो गलियां फिर चहकती  हैं
दबी हसरत मचलती हैं

मुझे तुम  याद आते हो,,,

ये दूरी बन गई क़ातिल
होकर भी नही हासिल
कहो किसको कहें जाकर
अकेले हैं मिलो आकर

मुझे तुम याद आते हो,,,

जुड़े दिल, फिर भी टूटे हैं
तसव्वुर में भी छूटे हैं
तुम्हारे साथ के सायें
ना जाने रूठे रूठे हैं

मुझे तुम याद आते हो,,,

मै सावन की घटा घिरती
बरस कर भी मैं सूखी हूँ
भींगे दिल मोहब्बत में
वो मंजर फिर नही आते

मुझे तुम याद आते हो,,


शुक्रवार, 28 जून 2019

हमारा अंतहीन शून्य

   (खत्म होता दिन और शुरू होती रात परन्तु वो भी अगली सुबह खत्म हो जाए)


तुम क्या खत्म कर देना चाहते हो?
हमारे बीच जो है
वो तो शुरू ही होता है
खत्म होने के बाद
तो ऐसा है
सुनो मेरी बात
आओ पहले जो खत्म होने
वाला है उसे खत्म करें,
ये रात खत्म होती है
और उसके बाद
जो दिन शुरू होता है
वो भी खत्म हो जाता है
रोज़ाना यही चक्र
घूमता रहता है
हम इस चक्र के साथ
थोड़े ही घूम -घूम कर
रोज़ एक दिन
और रोज़ एक रात
खत्म करेगें,,,
कुछ समझे? या नही?
हम तो शुरू होंगें
इस 'खत्मचक्र' के
खत्म होने के बाद,,,
क्योंकि,,,,,
उस शुरू का उद्गम शून्य में
होता है, ,
और मुझे ऐसा लगता है
शून्य में सब कुछ
अंतहीन होता है,,,

बुधवार, 26 जून 2019

स्पाॅन्ज

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

स्पाॅन्ज

अपने हर एक पोर को खुला रखना
आसपास का गीलापन
खुद में जज़्ब करना,
जब सामर्थ्य से अधिक भर जाए
पोर-पोर 
कस्स के निचोड़कर 
खाली देना खुद को
और तैयार हो जाना
अपने आसपास के गीलेपन को
सोख लेने के लिए 
एक स्पाॅन्ज की तरह
लिली😊

शुक्रवार, 31 मई 2019

ग़ज़ल

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

पैरों में पहन पायल,
झनकती सी उतरती है
नदी सी ग़ज़ल कोई
छू पहाड़ों को मचलती है।

चूमती है शम्स-ए-निगाह
चिंगारी सी छिटकती है
क्यों तासीर तरावट की
अंगारों सी दहकती है।

पत्थर के उभारों को
लहर से सहलाकर,
सिहरन से बाहवों को
ले झम्म से गिरती है।






इश्क,,

गीली रेत पर फिसलती मछली,
आसमान की दाहिनी पीठ पर
दो जलते सितारों से तिल
समन्दर नहलाता है
ज़ार-ज़ार
ना मछली की तड़प कमती है
ना तिल की जलन धुलती है,,
दो पाटों पर इश़्क
भींगता सा
पर सुलगता हुआ,,,,
लिली😊

गुरुवार, 23 मई 2019

अजय कुमार जी की समीक्षा 'अतृप्ता' पर,,




लिली जी की अतृप्ता अब मैंने भी पढ़ ली है.. आद्योपांत... और इस किताब पर लिखी गयी  कुछ समीक्षाएं भी...यूं तो बहुत कुछ कहा जा चुका है इस बहुचर्चित किताब के बारे में... पर फिर भी मैं इस पुस्तक के संदर्भ में कुछ बातें  रखना चाहूंगा...
        पहले एक बात कविता के बारे में मेरी समझ को ले कर...हर अंतस का एक मौलिक और एक निर्दोष  आईना होती है एक सच्ची  कविता...जिसमें कोई पाठक भी बरबस ही अपना चेहरा , अपना मन और स्वयं के जीवन को देख सकता है...
          और अब उनकी  किताब अतृप्ता..जिसके आवरण पर स्वयं उन्होंने लिखा है.."अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को विकसित करने का प्रयास है ये"....मैं कहूंगा और कि लेखिका के द्वारा ये अपने मन और अनुभव से खुद को ही टटोलने का एक तटस्थ और बेबाक प्रयास है...जिसके आईने में हमें अपनी जानी पहिचानी लिली जी अपनी पूरे गांभीर्य और एक स्पष्ट सोच के साथ परिलक्षित होती दिखती हैं...
        अपने 'स्व' की हर मुमकिन सींवन को स्वयं बेरहमी से उधेड़ना...अपने मन के एकान्त विवर में जो भी भाव छुपा बैठा हो उसको कविता दर कविता उद्घाटित करना
सचमुच एक प्रशंसनीय और ईमानदार  कार्य है...किताब का शीर्षक 'अतृप्ता' ही जैसे ये किताब हर कविता के पढ़ने के बाद हर बार
एक सिक्के की तरह आपके जेहन में छन्न से उछाल देती है...पर इसके बारे में भी एक बात कहना चाहूंगा...एक स्त्री की  अतृप्ति का आयाम केवल सामाजिक और आर्थिक ही नहीं होता...बल्कि एक सभ्य शालीन महिला से ये भी अपेक्षा की जाती है कि वह शारारिक तौर पर भी हर संयम और हर मर्यादा को बरते ..किसी किस्म की भी प्रगल्भता या वाचालता को  चाहते हुए भी न दिखाए...ये केवल और केवल पुरूषों का युगों से क्लासिक क्षेत्र है..पर बस इसी आयाम में ये किताब सर्वाधिक मुखर सर्वाधिक निर्भीक दिखाई पड़ती है...इसी बात को रेखाकिंत करती हैं इस किताब की ये तीन कविताएं...वो दिसंबर की भोर...भूड़ोल और शीर्षक कविता अतृप्ता...पर  यही  प्रेम एक पूर्णता एक अध्यात्म और अपने ही अस्तित्व को भी तलाशता नजर आता है..मेरे आत्मसंगी...सुनो मेरे वट और समुद्र लहर सा पाती हूं...कविताओं में...
किताब की पहली चार कविताओं में लिली जी ने अपनी इस काव्य यात्रा अपने शिल्प और शैली पर आत्मकथ्यात्मक कविताएं लिखीं हैं जो हर कवि का बेहद निजी और अनुसंधान का क्षेत्र है...इस बारे मैं कुछ भी नहीं कहना चाहूंगा...पर हां एक और कविता है...एलिफैंटा के भित्तिचित्र ..जिसमें कवयित्री विस्मित है एलिफैंटा की गुहाओं के प्रस्तरों पर उकेरे गये भित्तिचित्रों को देख कर...पर मेरे ख्याल से सायास ये कार्य उन्होंने स्वयं कर डाला है हमारे समक्ष अपने मन के भित्तिचित्रों को एक काव्य संकलन के् रूप  में प्रस्तुत कर के...और उनको नये सिरे से समझने का हमें एक मौका दे कर...
         इस किताब के लिए मेरी  उनको हार्दिक बधाई और उनकी इस कमाल की निड़र रचनाक्षमता पर मेरा उनको सलाम और उनके कावित्व के सतत उज्ज्वल भविष्य के लिए सादर शुभकामनाएं....

शुक्रवार, 10 मई 2019

पिय तुम्हरी अंजुरी में भर जाऊं



मन भटके, या
हो बोझिल,,
प्रीत हिया की
तब हो झिलमिल
पिय तुम्हरी अंजुरी में
भर जाऊं
सब तज मोह जाल
इह जग का
स्नेहिल थपकी पा
सो जाऊं

हो तृप्त आत्म का हर
स्नायु
अतृप्त लगे यह
लम्बी आयु
किल्लोल करे तेरे
संग का स्पंदन
सांस सांस जैसे
हो चंदन,

तृष्णा साजन से
मिलने की,
ले अंतस में ही
गोता खाऊं
प्रेम मणिक से
कर खुद को प्रज्जवलित
जनम जनम
तेरी हो जाऊं

प्रीत हिया की
जब हो झिलमिल
पिय तुम्हरी अंजुरी
में भर जाऊ,,

लिली😊

बुधवार, 8 मई 2019

सड़कें



                      

सड़कें


चित परिचित सी सड़कें,
वही राहें,वही ख्याल
बस वक्त बदला..
ये 'बस वक्त का बदलना'
इतना सरल भी नही था,
एक कठिन सफ़र तय हुआ था
खुद का खुद तक...
परिवर्तन हुआ 
सड़कें गवाह रही हैं।
ये बहुत अच्छी श्रोता हैं,
तब भी सुनती थीं मेरे मौन संवाद
आज भी सुनती हैं,
कंकरीटों की फाँकों और
तारकोल की तहों में
सहेज कर रख रखी थीं उन्होने
मेरी नितान्त अपनी बातें..
स्कूटर के पहियों नें
उन फाँकों को कुरेदकर..
और खोजा
मैं बस कौतूहल लिए
अपने सफर के पन्ने
पलटती रही,
कुछ भींगे थे,कुछ खिलखिलाते से थे
कुछ सिहरे से थे..आज भी मौजूद
उसी ताज़गी के साथ,
शायद मैं उन्हें कहीं दर्ज ना कर पाऊं,
आज लगा वो बहुत सुरक्षित हैं
कंकरीटों की फाँको में।
वर्तमान को जीना है
और जिए वर्तमान को
इन सड़कों की..
कंकरीटों की...फाँकों और
तारकोल की तहों में
सहेजते जाना है।
क्योंकि भविष्य में जब
वक्त और बदल जाए,
खाटी शुष्क यथार्थ को
वर्तमान मान जीना पड़ जाए
तब..
अपने इतिहास की भीगी
नितांत अपनी बातों को
 पुनः जी सकूँ,
बदलते वक्त के साथ
नए वर्तमान को आत्मसात
करने का नया सफ़र
इन्ही सड़कों संग तलब कर सकूँ

लिली😊

बुधवार, 1 मई 2019

प्रेम मत खोजना

                   (चित्राभार इन्टरनेट)


अब प्रेम मत खोजना
क्योकि वो अब 'परिपक्व' हो चुका है
और 'परिपक्वता'
प्रर्दशनलोलुप नही होती,,
'प्रेम' शब्द के 'ढाई' में
जो 'आधा-अधूरा' सा है
वह वहीं है,,,
अब प्रेमाकुल हृदय को
प्रेमरंजित प्रत्येक अनुभूति को
एकान्त में घूंट-घूंट
गटकना प्रिय हो चला है,,
वो गटकन का स्वर, कंठ से निकल
दोनो कानों तक टंकार लगाता
हृदय  प्रशान्त में
घुल जाता है,,,,,
इस असीम परमान्द
की अमृतानुभूति
की,,,,,मैं अब प्रदर्शनी लगाने की
इच्छुक तनिक भी नही हूं,,,,
इसलिए,,,,
सुनो हे!
मेरी कविताओं में अब 'प्रेम' मत खोजना,,,
वो परिपक्व हो चुका है अब
लिली🌷

सपनों_का_श्राद्ध


सपनों से प्रेम किया
,,,,और,,
हकीकत से दुनियादारी
सपने सरल थे सरस थे
भोले भाले थे,,
ना जाने कब उनके दिल
की दीवारों पर महत्वाकांक्षाओं
की बेल पनपने लगी,,
ना जाने कब वे बंद आँखों
से निकल खुली आँखों की
दुनिया में शाखाएं फैलाने लगीं,,,
हकीकत से अक्सर ईर्ष्या खाने लगीं
और दुनियादारी पर भी
अपना अधिकार जताने लगीं,,
ये दो अलग-अलग ध्रुवों का
टकराव ले डुबा,,
वजूद अस्मंजस में
के अब करना क्या है?
सपनों के साथ दुनियादारी निभानी है
या ,हकीकत को आसमान
पे सजाना है?
एक वजूद के
दो ध्रुवों की जंग में
किसी एक को वीरगति पा नी थी,,
हकीकत के वार तगड़े थे
सपनों की महत्वाकांक्षाएं खोखली,,
वे ढेर हो गई कुछ ही वार में,,
बस आज उनका श्राद्ध कर दिया गया,,
अब हकीकत का एकछत्र साम्राज्य है,,
लिली🌷

नारी हूं,,,,,घर सजाती हूं

             


नारी हूं
घर सजाती हूं
सारा संसार सजाती हूं
सजा कर रखना मेरी प्रकृति है
अस्त-व्यस्त कमरे,अलमारियां
टेबल,ऑफिस,फाइलें
घर-बाहर
सब व्यवस्थित कर सकती हूं

किसी भी जगह की
शांत सौम्य सुसज्जा मेरी मौजूदगी
का प्रमाण होती है,,

सीमित साधनों में
असीमित आशाओं का पूरण
करना मेरा गुण है
सबकी नज़रों से छुपा कर
रक्खी मेरी 'चोर-गुल्लक'
मेरी मितव्ययता का प्रतीक है
खाली जेब को बाहर निकाल
सिर पकड़ के माथे की
बल पड़ी पेशानियों को छुपाते
हाथों पर
हमेशा मैने उम्मीद की खनक
इन्ही 'चोर-गुल्लकों' से निकाल
कर रखी है,,,
भले ही 'बहुत ख़र्चीली' कह कर
हास-परिहास का विषय बनती रही हूं,,

बच्चे अक्सर कहते हैं
-"माँ तुम घर पर नही रहती तो खाने का मन नही करता,
पर तुम्हे देखते ही हमेशा भूख लगती है"
सुखद है ये अनुभूति
मै भूख को भी वात्सल्य से पकाती हूं,,,

जो मिलेगा मुझे मै सब
सजा दूगीं,,,
व्यथा,अवहेलना,उपेक्षा,दुत्कार सबकुछ
और इतने व्यवस्थित रूप में संवारूगीं,
के देखने वाले सोचेगें ,,,,,,,
अरे वाह! अद्भुत!
पीड़ा,वेदना,अवहेलना,उपेक्षा ,तिरस्कार भी
इतने सौन्दर्यपूर्ण होते हैं!!

सुनिए! ये मैं आपको सुना नही रही,
ये सब मैं खुद से कहती हूं,,
मैं स्वयं से सिंचिंत
मै स्वयं से चालित
मैं स्वयं से ऊर्जित होती हूं,,,
बस इसीलिए हर बात जैसी भी हो
बस कह कर हल्की हो लेती हूं😊

लिली मित्रा💁‍♀️

मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

श्राद्ध

आवारा बेलगाम काल्पनाएं कितनी भयावह हो सकती हैं,इसका पूर्वानुमान नही लगाया जा सकता।
जब तक आप उस ब्लैक होल में खींच नही जाते
तब तक वीभत्स अंधकार और अनिश्चित पतन की
की ओर किस तेज़ी से गिर रहें हैं,,
उसकी गति,रूप, आकार का अंदाज़ा नही लगाया जा सकता।
परन्तु कुछ होता है हमारे अंदर जो रह रह कर हमे अनेक माध्यमों से चेताता रहता है। परन्तु हम किसी मदमस्त हाथी से महत्वाकांक्षी कल्पनाओं के रूपहले पाश में बंधे,आँखों को चौंधिया देने वाले प्रकाश से अनंत अंधकार की ओर खींचे चले जाते हैं।
     कुछ ऐसा ही सफर पर है शामली । अपने कंधों पर अपने अपूरित सपनों की खंडित देह लादे बैठी थी उनका अन्तिम संस्कार करने। मृत आकांक्षाओं के मुख पर मरणोपरान्त भी एक लोभनीय आकर्षण स्पष्ट दिखता था। जैसे कह रही हो -"मुझे मृत मत समझ, आ एकबार फिर मेरी आवारगी की चपेट में , थथार्थ की शुष्कता में कुछ नही धरा। जीवन का स्वर्ग मेरी पनाहो में है।"
"आजा ! क्यों मेरी मृत देह को अग्निकुंड में झोक रही मूर्ख?'
आ एकबार चूम ले मेरे मुखारविन्द को मैं पुनः जीवित हो तुझे फिर उड़ा ले चलूं, बादलों के पार आसमान के नीले समन्दर में। जहाँ धूप सुखाती नही है।
पुष्प झरते नही हैं।
बसंत जाता नही है । आ ना,,,,क्यों कान बंद कर रखें हैं तूने?
पर शामली पूरी तरह से श्राद्ध कर्म के अनुष्ठानों में मग्न थी।
सब सम्पन्न होने के उपरांत शान्ति जल का छिड़काव हुआ,,,और उसकी आँखें खुल गईं।
   वो अपलक अंधकार में कमरे की छत तलाशती, स्थिर शरीर में धड़पड़ाती दौड़ती दिल की धड़कनों को लिए शून्य सी पड़ी रही।
      किसी तरह मध्यरात्रि की उचटी निद्रा को पुनः सुला कर । प्रातः हुई। बहुत कुछ देखा सुबह की टहल वाले वही चित परिचित मार्ग पर। सूखी पात पथिकों के पांवों तले कचर कर धूल संग एकाकार हो गईं हैं। सूखी घास अब सींचने पर भी हरितिमा ना पाएगीं। कोयल की कूक खिसियाई सी लगी। धूप ने सुबह की हवा में लू सा असर कर दिया। सबकुछ जैसे शुष्क हो चुका है। स्वप्न में बेलगाम कल्पनाओं का श्राद्ध अपने हाथों कर जैसे शामली अब यथार्थ के असल धरातल पर चल रही थी।
       कुछ वर्ष पूर्व देव के उसके जीवन में आने के साथ उसने इस धरातल पर चलना छोड़ दिया था। वह उड़ रही थी।
आत्म के अंश पाने के उन्माद में बावरी सी अपने परमात्म की आवाज़ को भी अनसुना करती बस उड़ रही थी,,,बस उड़ रही थी। उसे खुद पर दंभ हो चला था कि- सच और स्वप्न का सही मिश्रण करना उसे आता है। परन्तु महत्वाकांक्षाएँ अट्टाहास कर रहीं थी उसके इस नादान दंभ पर और विजयी महसूस कर रही थीं अपने मासूम नादान शिकार पर।
     तमाम संकेतों को नज़र अंदाज़ करते हुए आखिर  वह ब्लैक होल के अंधेरों में आ फंसी। उसे अपनी उत्कट बेलगाम कल्पना जगत का श्राद्ध आज करना पड़ा।

रविवार, 28 अप्रैल 2019

#ऑनलाइन_मुहब्बत 🙃 लघुकथा

           (हिमोजी स्टीकर हिन्दी की पहली स्टीकर ऐप)



प्रेम ने बहुत देर तक व्हट्सऐप पर लगी सना की डी पी निहारने के बाद मैसेज किया,

सुनो! तुम्हारी आँखों का रंग क्या है???

सना - 'हाय री किस्मत! अब मेरे इतने बुरे दिन आ गए।
          खुद की आँखों का रंग आइने में देखूं !
          अरे तुम प्रेमी बन कर जीवन में किस लिए आए       हो?
प्रेम - अरे तुम तो शुरू हो गई बाल की खाल नोंचने

पूरा वाक्य प्रेम लिख भी ना पाया कि- सना ने फिर एक विस्फोटक कटाक्ष दे मारा।
  'चार साल से प्यार कर रहे मुझे मुझसे पूछो मुझे तुम्हारी आँखों का रंग ,बालों का रंग कंधे के तिल का रंग सब पता है।
  और तो और आज ये भी पता चल गया तुम्हारे दिल का रंग बड़ा गहरा काला है
😭😭😭😭😭😭😭😭😭

प्रेम- अरे बाप रे! तुम तो धोबी पछाड़ देने लगती हो।
        वो तो तुम्हारी डी पी में आँखे भूरी भूरी दिख रहीं।
        तो मुझे डाउट हुआ ,

सना- डाउट हुआ मतलब???? क्या डाउट हुआ?
         बोलो ? आज पता चल गया तुम मुझे ध्यान से देखते ही नही😪
       जितनी भी तारीफ़े करते हो सब झूठी होती हैं।
         कितने बड़े झूठे हो !!🤧🤧🤧🤧

प्रेम को महसूस हुआ उसने अन्जाने में एक बड़ी गलती कर दी है। बात मज़ाक मज़ाक में बढ़ती जा रही।
उसने तुरंत ढीली लगाम को खींचते हुए कहा-
      "जानू तुम्हारी  आँखें इतनी गहरी हैं, के इन्हे जी भर देखने से घबराता हूं। कहीं डूबा तो निकल ना पाऊंगां।
इतनी नशीली हैं के की मदहोशी में बहका तो सम्भल ना पाऊंगां ।
 मुझ गरीब की हालत तुम क्या समझों ।
 हाय ये 'भूरी काली गहरी आँखे' जिस दिन जी भर के देखा उस दिन ले डुबूगां अपने साथ तुम्हे भी मेरी क़ातिल

सना का दिल अब तक पिघल चुका वो बोली -"अरे तुम्हारा कोई दोष नही ये फोटो ही मैने फोटो शाॅप कर दी थी।

प्रेम - तभी तो,,,,,,,,! जानू मैं इतना भी नालायक नही के अपनी ज़िन्दगी को ना पहचानूं। इन आँखों के समन्दर में ना जाने कितने तलातुम के लुफ़्त उठाए हैं मैने ।
ये सब 'ऐप एडिटिंग' का दोष मुझ मासूम को कटघरे में खड़ा कर दिया।😪

सना ने तुरंत अपनी एक ताज़ा बिना एडिट फोटो प्रेम को भेज दी।
प्रेम - हाय क्यों जान लेने पर तुली हो?

         इन सुरमयी मयखानों में
         इतनी मुहब्बत से ना पिला साक़ी
         पयमाना तेरा दीवाना है वो भी
          काँच से बना,,,,,

सना- ❤

लिली

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

तभी बात बनती है

                   (चित्राभार इन्टरनेट)


बाज़ारीकरण के इस दौर में, हर चीज़ समसामायिक हो
तभी बात बनती है।

कही बातें भी फैशन के अनुकूल  बदलें लिवाज़
तभी बात बनती है।

टेक्निकल जुमलों के दौर में,मुहावरे बाबा आदम के दौर के!!

कुछ अपग्रेडेड साफ़्टवेयर के तड़के लगाओ सनम,
तभी बात बनती है।

शिव जी पर रचे भाव  मंगलवार को लिख दिये !
ईद का हो माहौल और इस्टर की कह दिए!

उम्ह! कुछ सेवाइयों की छेड़ो मिठास,,
तभी बात बनती है।

कहाँ दिल,चाँद,ज़मी,आसमां,इन्द्रधनुष मे सुकूं खोजते हो,

दहकते मुद्दों की बदलती बिसात पर करो बात
तभी बात बनती है।

इसकी करो खिंचाई,उस पर करो हमला आत्मघात

भाई,,भाई का करे हर बात पर प्रतिवाद
तभी बात बनती है।

लिली😀

दीवाने हो गए

                    (चित्राभार इन्टरनेट)


कुछ इसकद़र बढ़ी मुहब्बत
के दीवाने हो गए
जिस गली में था उनका घर
उसी से बेगाने हो गए,,

जिस चेहरे को कहा चाँद
और चाँदनी से नूर था
बेनूर बना लिया इसे,और
उसी से अन्जाने हो गए।

मौजूदगी मेरी थी कभी
हवाओं में घुली मिली
मनचली हुईं फ़िजाएं,और
बदले मेरे ठिकाने हो गए

बिन कहे ना दिल कि
बात उनको करार था
बस सोच मुस्कुरा दिए,
सुने उनको तो अब ज़माने हो गए।

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

कल्पनाओं को अपना 'यथार्थ' मिल चुका है,,,

                   (चित्राभार इन्टरनेट)

कैनवास फट चुका है
और रंग सूख चुके हैं
तूलिका विक्षिप्त पड़ी है,,
जब से 'कल्पनाओं' को
उनका जगत 'यथार्थ' में
मिल गया है,,
अब वे खुश हैं अपनी
संकल्पनाओं को मूर्त रूप
में पाकर,
वे अब मोहताज नही रहीं
किसी प्रेम चितेरे दो जोड़ी
हृदयों की 'एहसासी उधारी' की,,

कविताएँ बेरोज़गार हो गई हैं
कलम गर्त खोदने के काम
में लगी हैं,,
क्योंकि कावित्व को उसका
वास्तविक रसातल मिल चुका है,,
वह भी मोहताज नही रहा अब
कवि मन की प्रसव पीड़ा का,,

आस,प्यास,उजास सबने
सन्यास ले लिया है,,
जाओ बाबा! अपने दुनियावी
काम निबटाओ,,
ये बेकार की ख्याली मगजमारी
में हाथ रूक जाते हैं,
कामों के ढेर लग जाते हैं,,
मिलना-मिलाना कुछ नही होता,,
झमेले कम हैं इस जान को?
जो चले आते हो मुँह उठाए,,,,
हुह्ह,,,,,,,कैनवास पर कल्पनाओं
के रंग उकेरने हैं,,,!
कागज़ पर शब्दों का कावित्व
बहाना है,,,,!
जाओ बाबा जाओ,,
काम करो !



बुधवार, 13 मार्च 2019

पतझड़


                    (चित्राभार इन्टरनेट)

हल्की बारिश होगई
लगता है मेरी कविता पढ़ ली होगी,,
'शुष्क आँसू' हवा के
पतझड़ को खुश्क़ बनाते हैं,,,,,!
खैर,,
धूल ज़मीन की सतह पर बैठी मिली,,
पर हवा तब भी बह रही है,,
बहुत रोने के बाद
आवाज़ में जैसे हिचकियों सा स्वर है,,
सड़क पर टपक रहे बड़े-बड़े पीले पत्तों की
ठप्पप् सी आवाज़ में
ज़मीन की दुनियां पर अनजान पथिक से,,ये सूखे पत्ते!
 किसी वाहन की तेज़ गति के बहाव में
दूर तक लुढ़क कर सरकते,,,
देख कर लगा जैसे ,,,,,,,,
हरी पात की उम्र में टहनियों  से चिपके,,
दूर से बस इन वाहनों को आते-जाते
देख ही पाते थे,,,,
क्या पता इनका मन करता हो,,इन दौड़ते-भागते
शोरगुल करते वीरान शहरों को
जीवन्त बनाते वाहनों को करीब से देखें,,,
एक स्कूटर का पीछा करता
एक पीपल का पीला पत्ता,,,
दूर तक गया पर स्कूटर को छू भी ना पाया,,,
और फिर थक कर वहीं पड़  गया सड़क पर,,
ऐसे ही ना जाने कितने वाहनों का
पीछा करने के विफल प्रयास करता,,
किसी के पैरों तले कचर गया,,,
या किसी पहियें के तले मसल गया,,
तो कुछ पीले पात,,,उसकी तरह
चंचल प्रवृत्ति के नही थे,,,
सो पेड़ के इर्द-गिर्द ही घास पर
ढेर से इकट्ठे होते गए,,,
किसी म्यूनिसिपल के सफ़ाई-कर्मी
द्वारा झाडूं से समेट ,, आग की आहूति
चढ़ा दिए गए,,,,,
और इस तरह पत्तों के एक जीवन-काल
का दौर,,,,पूर्ण हुआ,,पतझड़ के रूप में,,,
नई कोपलें तैयार हैं,
एक नए जीवन-क्रम का आगाज़ लिए,
एक नए मौसम के साथ,,,

सोमवार, 11 मार्च 2019

पतझड़ की हवा

हवा की आवाज़ में
एक कराहट सी सुनी
दर्द पुराना अरसे बाद
उभरा है शायद,,
सांय-सांय में टीस
इतनी की,,, टसक से
पेड़ बदहवास से डोलते दिखे
हवाओं की पीर
दरवाज़ों को खड़काती
तो कभी खिड़कियों
से टकराती,,
गुहार लगाती फिरीं
दर्द की चीख से
चीरती वेदना को जब
कुछ ना मिला तो
वह बहा चली सड़कों पर पड़े
सूखे पत्तों को मुट्ठियों में
दबोच कर,,,
पतझड़ की  हवा
आद्रता आँसुओं की सूख चुकी है
खुश्क,कराहती सांय-सांय,,
कोई दर्द पुराना
उभरा है शायद


रविवार, 10 मार्च 2019

कालचक्र

                      (चित्राभार इंटरनेट)


कभी-कभी कुछ
नही लगता
बस सब कुछ 'चल'
रहा होता है
क्योंकि 'चलते जाने' ही
नियम है,,,
ना ही कुछ अच्छा है,,,ना ही कुछ बुरा,
बस 'है' क्योंकि उनका 'होना' ही
नियम है,,,
एकान्त में जब सामना होता है
स्वयं से,,
सवाल उठते हैं और उठ के
शान्त हो जातें हैं,,
क्योंकि प्रश्नों का उठना और शान्त
हो जाना ही नियम है,,
ना खोने दुख, ना पाने की खुशी,,
सब लगता है एक छलाव
खुद को बनाए रखना है
अंत तक
क्योंकि बनाए रखना ही
नियति है,,
ना अधूरे होने का गम ना पूर्णता
का एहसास
सब कालचक्र की चाल
घूम रहा है क्योंकि 'घूमना' ही
नियम है,,
लिली😊

गुरुवार, 7 मार्च 2019

अतृप्ता,,,,महिला दिवस पर एक महिला की अभिव्यक्ति



#अतृप्ता 😊

लिखते-लिखते कभी-कभी अंदर से एक हूंक उठती है ,,के मैं इस भाव को शब्द नही दे पा रही। काश के, मुझे चित्रकारी करनी आती! काश के मुझे रंगों की भाषा समझ आती! मै कागज़ पर मन की बात लिखने के साथ-साथ हथेली भर के अपने भावों के अनुकूल रंग भर कर कागज पर फैला पाती! वो फैले हुए रंग अपने वृहदत्तम और अपने सूक्ष्मतम् रूप के हर भाव को ,विभिन्न आयामों को परिलक्षित करते हुए मेरी अनुभूतियों का सम्प्रेषण कर पाते।
        तो कभी लगता है स्वर लहरियों की एक छोटी सी तरंग मेरे उर में भी होती जो कंठ की स्वर ग्रन्थियों से निकल मेरे मन के संगीत को सरगम रूप में संप्रेषित कर पाते। ऐसा भी कई बार पाया की कुछ अभिव्यक्तियाँ पाँवों को थिरका कर ,,अपनी ग्रीवा,नेत्र,भुजा, कटि, को मटका कर भावभंगिमाओं के माध्यम् से स्व अनुभूतियों को प्रेषित कर सकूं।
      कभी कभी लगा कि मैं एकदम शान्त होकर सुनूं,,,वह सब जो सुन्दर है ,या असुन्दर है मेरे आसपास । सुन कर उसे नापूं,तौलूं,आंकू। स्वीकार करूं अस्वीकार करूं । निहारूं अपलक बिना किसी लज्जा,भय,बाधा के।
      बहुत कुछ अभेद्य है। कितना अपूर्ण पाती हूं खुद को। कोई एक कैसे किसी जीवन वजूद को पूर्णता प्रदान कर सकता है? अचम्भित होती हूं सोचकर। खुद को अलग कर के जीने का सोचा तो हर पल निर्भरता को तरस उठी। निर्भरता के साथ पोषित करना चाहा तो शोषित महसूस करने लगी। फिर अचानक एक निष्कर्ष खड़ा कर लिया, जीवन की सार्थकता समग्रता को समेटते हुए आत्म की एकाग्रता में ही निहित है। क्या नारी ?क्या पुरूष ? जीवन सबके लिए चुनौतीपूर्ण । अधूरापन हर तरफ़। लगता है फेंक दिया गया है इस भवसागर में। जाओ सीखो! तैर कर पार लग जाना या डूब कर तलहटी की रेत बन जाना।
       सम्प्रेषित करने के लिए इतना गहन,,,,कोई एक माध्यम् कैसे चुनूं? बहुत अपूर्ण हूं! बहुत अतृप्त हूं !
लिली😊

बुधवार, 6 मार्च 2019

गज़ल तुम सुनाओ,, गीत




किसी शाम कोई गजल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फिज़ा को मनाओ
मै बिखरा ज़ुल्फ़े बैठूं बगल में
तुम चाँद बनकर उनमें समाओ

किसी शाम कोई गज़ल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फ़िज़ा को मनाओ

तलब कोई भूली लहरा के झूमे
खड़कते से पत्ते टहनी को चूमें
बंद जज़्बात बह जाऽऽए हवा संग
तुम पुरानी वही नज़म गुनगुनाओ

किसी शाम कोई ग़जल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फिज़ा को मनाओ

झरने लगे फिर से बातों के मोती
तुम तकते मुझे मै तुमको पिरोती
आँखों आँखो में बनने लगे सूत कोई
महकी सी तुम कोई माला बनाओ

किसी शाम कोई ग़जल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फ़िजा को मनाओ

शनिवार, 2 मार्च 2019

शब्द ध्वनि खो जाते

                    (चित्राभार इंटरनेट)

बंधन जब उच्छृंखल बन जाते
मार्जित रेखा पर टिक ना पाते
वृथा लगे कागज सा जीवन
शब्द भी निज ध्वनि खो जाते

क्षितिज लगे भ्रम का विस्तार
अस्तित्व प्रयोजन बिन आधार
मिथ्या सारे बंधन हो जाते
शब्द भी निज ध्वनि खो जाते

नैराश्य  लगे सबसे प्यारा
हृदय झुलसाए उजियारा
रक्त प्रवाह शिथिल हो जाते
शब्द भी निज ध्वनि खो जाते
लिली😊



शुक्रवार, 1 मार्च 2019

प्रतिक्रिया अजय जी द्वारा

रजनीगंधा,,मै गीत हूं उसके लिए

हम हमारे हर अनुभव में सर्वथा अकेले होते हैं...अपनी ही परिधि में कैद ..हम हर चीज को पहचानते भी अपनी ही तरह है...हर अवधारणा हमारी अपनी समझी हुई व्याख्या है...बस प्रेम ही एक माध्यम है जब हम खुद पर किसी दूसरे को प्राथमिकता देते हैं हमें अपने अहम् और अपनी पहिचान से बाहर निकलना होता है ..हम होते तो हम है पर हमारी वल्गा दूसरे के हाथों में चले जाते हैं...आपकी दो कविताएं "मैं गीत हूं उसके लिए"और "तुम्हारी यादों की रजनी गंधा" इसी भाव इसी उत्सर्ग और समर्पण के भाव को लिए  हुए हैं...एक बात और सतही प्रेम की पहली कोशिश ये होती है कि वो अपने को देने की बजाय दूसरे पर काबिज होने का प्रयास करता है यानि पजैशन का भाव पर दिव्यता या प्रेम का अमरत्व है जब है कि वो खुद को दे कर और खुद को ही पाता है एक निर्मलता और नयी परिभाषा के साथ जिसमें प्रेम अपनी उत्कृष्टता तक पंहुचता है...बस इसी भाव का विस्तार है इन कविताओं में....


सीमा का बंधन,,,
सीमाओं का बंधन...पढ़ी...ये हमारे असतित्व की चाह है...होने की...ये साबित करने की कि हम हैं..सभ्यता...वर्जना है..कल को संवारने की इच्छा है..एक के लिए नहीं सब के लिए करने की सबसे जुडे रहने का सलीका है...पर हमारा क्या..हमारी आदिम लालसा का क्या..जो सभ्यता से हर बंधन से हर रिश्ते से अधिक पुरानी और शाश्वत है...और तुरंत हमें सुख देती है...ये एक यक्ष प्रश्न है...और इसका उत्तर आसान नहीं है..हम एक क्षण के लिए जिएं या एक युग के लिए...
आपकी ये कविता उसी दर्शन का उच्छवास है जिसका मैं भी विद्यार्थी हूं...बांध कर रखती है ये कविता...

हर कवि के समक्ष ये समस्या है कि वो शब्द चुन सकता है,अपने को अलंकृत रूप में प्रस्तुत कर सकता है..भाषा का एक मायावी जाल भी रच सकता है पर वो मौलिक तब होता है जब वो खुद को लिखता है..बेलाग वस्त्रहीन प्रस्तुत होता है सबके समक्ष...आपकी पहली तीन कविताएं पढ़ी..पहली में आप स्वयं आहूत करती हैं कावित्व को की वो आपके जीवन में भी प्रवेश करे...बस यही बात खास है..शब्द छल हैं...उनका आयोजन भी छल है..और वो नश्वर भी हैं..जब तक आप स्वयं उनमें सहज भाव  प्रस्तुत न हों...वही बात वही पीड़ा मुखरित है आपकी पहली कविता में...दूसरी और तीसरी कविता में भी..
          कविता रचना आसान है उसका हो जाना और कठिन और उस भाव को जीवन का व्यवहार और आधार बना लेना सर्वाधिक कठिन...आप उस तरफ जाने की बात करती हैं तो आपकी ये यात्रा स्वयमेव एक साधना बन जाती है...
        आपने कहीं लिखा था कि चित्रलेखा को पढ़ कर आपका मन बदल गया उसमें एक अत्याधिकता से अघायी एक नगरवधू एक योगी से अधिक वैराग्य को समझती है और अपनाती है
आप में ये भाव कविता के प्रति समर्पित होते दिखता है
        ये नहीं कहूंगा कि आपकी कविता शिल्प और
आधुनिक कविता के आजकल के कलेवर में बहुत ऊपर या समकक्षी है पर आपका ये भाव निसंदेह आपको अलग करके दिखाता है...
        पहला जोश दिखा दिया है..बहुत उत्सुक था आपकी किताब के लिए पर अब आराम से चबा चबा कर आगे लिखू़गा..जल्दी जल्दी लिखा है कोई शब्द इधर उधर हो तो देख लीजिएगा.....

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

जाना सुनो !

                     (चित्राभार इंटरनेट)

आने के लिए जाना
जाना सुनो ! बदल ना जाना,,

दिल की दीवारों पर महफ़ूज़ रखा
हर एक पल का फसाना,,
जाना सुनो! आने के लिए जाना,,

यादों की गठरी में बांधा मैने
गुज़रे वक्त का बहता तराना
जाना सुनो! आने के लिए जाना,

मुड़कर ना देखना तुम्हारी आदत सही
ये आदत मुझ पर ना आज़माना
जाना सुनो! आने के लिए जाना,,

माना के बदलते हैं मौसम वक्त के साथ
दस्तूर समझ तुम भी ना बदल जाना
जाना सुनो! आने के लिए जाना,,
लिली😊

बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

शूल चुभे हों



शूल चुभे हो हिय में तब
फूल की कैसे बात करूं!

समर छिड़ा हो भीतर ही
खुद को ही आघात करूं
भूल थी मेरी आधार खोजना
किस पर अवलम्ब निज आज करूं
शूल चुभे हो हिय में तब
फूल की कैसे बात करूं!

भाल ढाल सब खोए निज में
किसका अह्वाहन आज करूं
छिलती पीड़ा पर नमक लेपती
खारे अश्रु विलाप करूं
शूल चुभे हो हिय में तब
फूलों की कैसे बात करूं!

जीवन रण के सब कौशल भूली
स्व को कैसे आज़ाद करूं
कोई पाठ ना लागू होता इसपर
लो स्वयं पराजित आत्म करूं
शूल चुभे हों हिय में तब
फूलों की कैसे बात करूं!




'अतृप्ता समीक्षा',,,,,, विनय जी द्वारा

                        (चित्राभार विनय चौधरी जी)

अतृप्ता को स्नेह देने के लिए विनय जी की हृदय से आभारी हूं,,

अतृप्ता 


रायपुर से भोपाल तक की रेलयात्रा ने..लिली मित्रा जी द्वारा रचित "अतृप्ता " को पढ़ने का समय दिया ...बहुत दिनों बाद किसी को शिद्दत से पढ़ा ...और गुना भी ...और उसी गुनिये मन निकले मन के उदगार ...मित्रो को इतवार की भेंट ।।

#अतृप्ता अब #लिली_मित्रा के आँगन से निकल कर उड़ान पर है ...जाने कितने विद्वानों कवियों ..समीक्षकों आलोचकों के गली कूचों, चोवारों , छतों से निकलती हुई ..अनंत यात्रा पर है ...! सब अपने अपने दृष्टिकोण से परखेंगे तौलेंगे ...साहित्य तुला पर कसेंगे .पर.....इन सबसे बेखबर .. !! ....." अतृप्ता " यह स्थापित करने में कामयाब रही ...लिली मित्रा एक संवेदनशील कवियत्री है ..उनकी कविताओं में नवीनता / मन की गहराइयों के भाव ...और भावों से भरे समंदर ठाठें मार रहे हैं..और इस भाषाई मंथन से निकली उनकी कविताई .. प्रेम अमृत भी उगलती है और कड़वी सच्चाई भी ...।

शुरू की कविताएँ कावित्व/ साहित्य /शिव सम साहित्य मेरा .... साहित्य के प्रति उनका गहरा अनुराग है जिसमें वे कविताई को यथार्थ से परे रखती तो है पर कल्पनालोक से निकल सख्त धरातल पर लाने की कशमकश को बड़ी सरलता से उकेरने की कामयाब कोशिश भी करती है ।

"तुम्हारे यादों की रजनीगन्धा " में नायिका रजनीगंधा की खुशबू सी विलीन होकर महकती है ..पर दिखती नहीँ ...भला फूल से खुशुब कोई अलग कर सका है क्या ? ..यादों के नुपर गजब की उपमा है . ..मदन के प्रेमपाश में खुद को ढूंढती खोती नायिका .. पूरा प्रेमग्रंथ जी लेती है ..अदभुत कविता ।

कविताओं में कहीं कहीं प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का तड़का ..सृजन का अनुपम प्रयोग है " आई मिस यू " ट्राफिक और दिसम्बर की भोर में प्रयुक्त "रेडियो" जैसे शब्द लिली जी की कविताई के विशेषण है ।

" सुनो मेरे वट " . ..उरभूमि में खड़ा विशाल प्रेमवट ...की पंक्तियां " उसकी घनी छांव में .....खुद को वट की बाह्य जड़ो के आगोश में जकड़ा पाती है ..निश्चल नेह... मरुभूमि में अंकुरित प्रेम बीज जब वट बन जाता है .. तब कविता प्रेम में अपना अस्तित्व खोजती सी प्रतीत होती है ।

"टेसू के जंगल "-गजब की उपमाएँ हैं ..टेसू की शब्द व्यंजना बहुत प्रभावित करती है ।

"ऐ जिंदगी " लिली जी के कल्पना लोक के अपरिमित आयाम की बानगी भर है .. #खूंटियों_से_बांध_देती_है_किस्मत_रस्सी_की_लंबाई_तक_भटका_कर_खींच_लेती_है_उन_खूंटियों_को_उखाड़_क्यो_देती ...जिंदगी से विद्रोह ..की खूब जद्दोजहद है ...कभी यूँ भी लगता है आपकी सौवी किताब पढ़ रहा हूँ ।

इससे इतर कुछ रचनायें .. जरूर " यूँ सताया न करो ..मुझे पाओगे .." इतनी उच्च रचनाओं के इंडेक्स में अपना वजूद खोती सी लगी !

मित्रों ...इन चंद रचनाओं को पढ़ कर यूँ लगा ..मात्रिक छंदों ...और अपने व्याकरणीय इंद्रजाल से परे " अतृप्ता " सहज सरल शब्दों में बेलाग सी बहती गंगा सी है जिधर से गुजरती है पाठक के मन पर अपनी रंगत छोड़ जाती है ..या कहुँ अपने रंग में रंग लेती है ...।।

इस समय मेरे मित्र मिहिर " जय मालव" जी की पंक्ति याद आती है .." |
#सबसे_कठिन_है_सरल_हो_जाना_कवि_का_भी_और_कविता_का_भी " ...यही सब मिलता है " अतृप्ता " में ...पढिये भी पढ़ाइये भी ।



ऐसी नवोदित लेखिका को अपरिमित शुभकामनाएं ...

शुभाकांक्षी : विनय चौधरी ..भोपाल

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

आना कभी,,,

                    (चित्राभार इंटरनेट)

आना कभी फ़ुरसत निकालकर,,
बैठेगें मन के बागान में,,
कुर्सिंयां डाल कर,
किसी पेड़ को दिखते हुए,,
कहुंगीं मैं,,,,
देखो ये वही पौध है
हमारे प्यार कि ,,
जिसे दिया था तुमने भेंट स्वरूप,,
पा चुका है पेड़ का रूप
अब शरद की सुबह
देखा करती हूं इसपर झड़ते-खिलते शिउली के फूल,,
तुम विस्मय से देख
जोड़ो कुछ और धुमिल सी यादें,,,
पुष्पित हो उठे बिन मौसम शिउली,,
झर जाए दो मन लहरा के,,,
आना कभी फुरसत निकालकर,,
बैठेगें मन के बागान में
कुर्सियां डाल कर,,,


मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

मैने बांध लिए निज प्राण,,

                   (चित्राभार इन्टरनेट)


#रवीन्द्रगीत_अनुवाद
#आमी_तोमार_शोंगें_बेंधेछी_आमार_प्रान

मैने संग तुम्हारे बांध लिए
निज प्राण,,
हृदय स्पन्दन के सुर संग तान लिए
निज प्राण
तुम ना जानो प्रियतम्!
तुम जानो ना,,,,
बंधी प्रीत अंजाने साधन संग
जिसमें घुलती पुष्प सुगंध
जिसमे घुलते कवियों के छंद
तुम ना जानो प्रियतम!
तुम जानो ना ,,

आच्छादित तुमको कर रखा मैने
छंद-गंध की छाया से
अरूप सुवासित छवि तुम्हारी,
है प्रज्जवलित फाल्गुनी काया से,,
बासंती बंसुरि के सुर
गुंजित सुदूर दिगदिगंत
सोनाली आभा से है कंपित
नील उत्तरीय भर आनंद
तुम ना जानो प्रियतम
तुम जानो ना

मैने संग तुम्हारे बांध लिए
निज प्राण
हृदयस्पंदन के सुर संग तान लिए
निज प्राण

लिली😊

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

झूठे ख़्वाब,,

                     (चित्राभार इंटरनेट)

 

देखूं तुम्हे छूकर
करीब से 'झूठे-ख़्वाबों',,,,
पलकों पर सजा देते हो
झिलमिलाते अनगिनत
सितारों के मखमली अहसासी-शामियाने,,,
जिनकी क्षणिक चकाचौंध से,,,
भरमा जाता है यह 'मूढमन',,
भूल कर चिमिलाती धूप
जीवन की,,,
झूम जाता है लोलुप मनगगन,,
और फिर दिखाते हो तुम अपना
असली रंग,,,
अपने करीब होने का देकर
भरकस भरम,,,लुप्त हो जाते हो
अगले ही क्षण,,,,
बिलखती आशाएं और विक्षुप्त आत्म
छूकर,पलकों को
तुम्हे बार-बार खोजती हैं
व्याकुल अंगुलियां,,,
शायद मिल जाओ पलकों की
कोरों पर छुपे ,,,
पर तुम नही मिलते,,,जा चुके होते हो किसी की
संवेदनाओं को छल कर,,,,
मै देखना चाहती हूं तुम्हे छूकर ,,
तुम्हारे छद्म हृदय को छूकर,,,
कोई प्रतिक्रियाएं उठती हैं
तुम्हारे हृदय में?
या अंतस तुम्हारा पाषण है,,,?
लिली😊

प्रेम




जो कहता है प्रेम त्याग का नाम है
प्रेम अधिकार नही चाहता,
प्रेम दूर रहकर भी खिला रहता है
प्रेम जलता दरिया है
प्रेम बहती नदिया है
प्रेम शून्य है
तो बता दूं आपको-
प्रेम जब अपनी गहनतम्
गहराइयों में पहुँच,
अपने प्रियतम् को छुपाता है,
उस गहराई में जाकर कोई
दुनियावी कर्तव्य अपना आधिपत्य
जमाने का प्रयास करता है,
तब प्रेम 'त्याग' की परिभाषा भूल जाता है,
तन से लेकर मन के रोम-रोम में
बसा कर रुधिर कणिकाओं का अंश
बने प्रेम ,पर कोई अन्य अपना वर्चस्व
जमाना चाहता है तब-
 प्रेम में 'अधिकार' का स्वर प्रचंड नाद
सा चिल्लाता है,
भौगोलिक दूरियों की सीमाएं एक हद
के बाद सह पाना दूभर हो जाता है,
एक अंतराल के बाद सुकोमल भावों
के पुष्प सा 'प्रेम'
किसी विषैले चोटिल विषधर सा
बौखला उठता है
और एक स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति
पाने के लिए..
अंधाधुंध फुंफकारता..विष वर्षा करने पर आमादा हो जाता है,
अहसासों का शीतल जल
आग का दरिया
और
शून्य का वृहद किसी बूंद सा...
सिमट जाता है आँखों के पोरो पर
इसलिए निवेदन है
उदारवाद का पैराहन जबरन
बिचारे प्रेम की मूक अभिव्यक्तियों को मत पहनाओ
चरम के उत्कर्ष पर प्रेम बहुत उग्र है।


रविवार, 27 जनवरी 2019

हवामहल ने कहा,,,


   
#हवामहल_ने_मुझसे_कहा

#जयपुर_डायरिज़

बेजान इमारतों
में जान भरने को
ना जाने कितनी नक्काशियां करता है
दिवारों में झरोखे,,
और झरोखों पर रंगीन कांच मढता है,,
धूप के रंगीन पैबंध
अंधेरे कमरों में कुछ तो उम्मीद भरते हैं,,
चारदिवारों में कैद़ दिल की
हसरतों को आवारगी नज़र करते हैं,,,
वरना,,,
इन पुख्ता मोटी दीवारों के बाहर कि दुनिया,
बड़ी हैवान है,
आँखों पर पलकों का नक़ाब धरे
घूरता शैतान है,,,
आबरू का सौदा एक झलक देखकर
ही हो जाता था,,
फिर तो उसे लूट लेना का मसौदा
तूल खाता था,,
और ना जाने कितनी पदमावतियों
को जौहर की आग में जलाता था,,,
शायद इसलिए ही कफ़स को
इतना आबाद किया होगा
हवाओं में घोल कर कृत्रिम बसंत
परिंदों को प्रांगण 'आज़ाद' दिया होगा

लिली😊

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

फुटपाथ ने कहा,

लिखित-अलिखित,वाचाल-मौन सबकुछ पढ़ने की आदत पड़ जाए तो कभी-कभी लेने के देने पड़ जाते हैं😃😃 सबकुछ हमसे कुछ बोलता सा ही नज़र आता है।🤓 रोज़ जिस फुटपाथ पर टहल करती हूं उसको खोदकर रख दिया है। उस पर बिछी सीमेन्ट की छोटी डमरू आकार जैसी टाइलों पर नज़र जमा कर चलना, थोड़ा खिलवाड़ करते हुए अपनी धुन में कदमों को जमाना अच्छा लगता था।
    मै पागल नही हुई हूं।आदत का जिक्र कर रही हूं। क्या पता आपके साथ भी होता हो?
आगे सुनिए । तो हुआ ये की आज हैरत में पड़ गई मैं,,! जब फुटपाथ ने भी कविता सुना दी मुझे बोली--
     विकास अक्सर विध्वंस
     के मलवे पर अपनी
     नींव बनाता है,,,
     परिवर्तन का दौर
     निर्ममता से सारे
    मोह-बंधनों को
    खोद,
    नए स्तम्भो के लिए
    जगह बनाता है,,,
    हाँ,,,,आगत निश्चय ही,
     विगत को बेहतर बनाने
     के लिए ही होता है,,,
     पर फावड़े की चोट,
      अंतस के गहनतम्
      एहसासों को खोद
       देता है,,, 
     
        फुटपाथ-
मै  कविता की संवेदनशीलता से भीतर तक स्पर्शित हो चुकी थी। फुटपाथ अब खामोश था। जत्र-तत्र खुदे हुए अपने शरीर के भागों को देखता । मै उसकी कही काव्य वेदना की समीक्षा करती सड़क पर आगे बढती रही।

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

नीरव सा कुछ,,,,




नीरव सा कुछ लिख जाऊं
बस तुम समझो,वह कह पाऊं
जग सारा खोजे शब्द-सृजन
मै काव्य शून्य सम रच जाऊं,,

जो दिखकर भी ना दिखता हो
अनुभूति प्रबल आधिक्यता हो
आभास सबल परिभाषित हो
रख शब्द परे,बहती जाऊं
मै काव्य शून्य सम रच जाऊं

नीरव सा कुछ लिख जाऊं
बस तुम समझो,वह कह पाऊं

रंग बहुल पर बेरंग दिखे
भावप्रवण पर निर्भाव लिखे
गीतों का सुर निःशब्द बजे
जग खोजे और मैं मुस्काऊ
मै काव्य शून्य सम रच जाऊं

नीरव सा कुछ लिख जाऊं
बस तुम समझो,वह कह पाऊं
लिली❤






मंगलवार, 8 जनवरी 2019

ओ साथी मेरे मन के,,,,,,, गीत



ओ साथी मेरे मन के
मनवीणा तुझे पाकर झनके
प्रीत मेरी थी अधूरी
बिखरे बिखरे थे मनके
ओ साथी मेरे,,,,,,,

सूनी थीं मन की गलियां
मुरझाई होठों की कलियां
बगिया की बुलबुल गुमसुम
खोए मक़सद जीवन के

ओ साथी मेरे ,,,

सूखी धरती का दामन
चिरता था यूं मेरा मन
कोई बादल आकर बरसे
झरते नयना बिरहन के

ओ साथी मेरे,,,,

सांझ सिंदूरी सजकर
ड्योढी पर ताके रस्ता
आएगें प्रितम् मेरे
दीप जलेगें आंगन के

ओ साथी मेरे,,,,

तुम्हे पाकर सूरज चमका
चंदा का भाल है दमका
हर जनम तुझको पाऊं
मन्नत से धागे बंधन के

ओ साथी मेरे,,




गुरुवार, 3 जनवरी 2019

पत्थर बना रहे,,



ना जाने कौन सा आशीष मांगते हैं वो
पत्थरों की मूरतों के आगे,,
यहाँ जीवन से भरे देव पाषाण
हुए जा रहे,,,
लगता है विश्वास निर्जीव पत्थरों
में अधिक सशक्त है उनका,,
तभी प्रीत के मंदिर में मुझे
पत्थर का बना रहे हैं,,
लिली😊

न,,मालूम कौन बदल गया,,,?

                    (चित्राभार इन्टरनेट)

गुनगुनी धूप का छनकर आता
अर्क दिखता था,,
चाँद दिखता था,,
खुला आसमान दिखता था,,
अब उन्ही खिड़कियों से
धूप का अर्क़ धूल में घुला मिलता है,,
चाँद जालियों में कैद मिलता है,
आसमान नक्काशीदार फ्रेमों
से लैस मिलता है,,
न,,मालूम कौन बदल गया है,,,,,???
खिड़की के इसतरफ़ बैठी निगाहें,,
या,,
उस तरफ़ के नज़ारे,,??
या खिड़कियां ने ही कुछ
फेरबदल कर दी,,,,?????
आना कभी फुर्सत से,,
बैठकर बिस्तर पर मश्'वरा करना है,,,
खिड़कियों की छानबीन करनी है,,
नज़ारों का मुआएना करना है,,,
लिली😊