मंगलवार, 31 जनवरी 2017

स्मार्ट सिटि की स्मार्ट सोच,,,,,,


(चित्र इन्टरनेट की सौजन्य से)

रोज़ की तरह आज भी स्कूटर लेकर अपने चित-पराचित उबड़-खाबड़ सड़कों पर 'ऊँट की सवारी सी अनुभूति' तो कहीं चिकनी सपाट सड़कों पर मक्खन से फिसलते पहियों  के साथ स्कूटर चालन का आनंद लेती मै ,,,। वाहहह ऐसी चिकनी सड़कों पर स्कूटर चलाना जैसे जीवन संगीत की धुन पर लहराते बलखाते मेरे स्कूटर के पहिए,,,,,, खैर यह बात तो मैं चिकनी सतह पर फिसलते पहियों की रफ्तार मे फिसलते भावों के आवेग में बोल गई ,,,। कई तरह के भाव ,, विचार इस समय मन मे पल्लवित होते और लुप्त हो जाते हैं। परन्तु आज इन सड़कों की कहीं सुधरी तो कहीं बुरी तरह क्षत-विक्षत अवस्था,  कहीं हाल ही मे मरम्मत किये जाने के कुछ ही समय बाद 'केबिल या गैस- पाइप लाइन' डालने के लिए पुनः खोद कर रख देना,,, दूर तक दुर्गन्ध फैलाते कचरों के ढेर ,,,, गाड़ियों के शीशे नीचे उतार पानी की खाली बोतल, चिप्स के पैकेट, फलों के छिलके निरविकार भाव से फेंकते, दुपहिया वाहनो पर सवार हेलमेट उठा बेहिचक गुटखों की पिचकारी छोड़ते स्मार्ट शहर के नागरिक,,,वहीं दूसरी ओर बनते 'फ्लाई ओवर' , फर्राटे से सर के उपर से गुजरती मेट्रो ट्रेन, देखकर ख्याल आया ,, अरे मेरा शहर विकास कर रहा है पर क्या हमारी सोच भी विकास कर रही है?????
     विकास की प्रक्रिया धड़ल्ले से प्रगतिशील है, सरकारी दस्तावेज़ों एंवम् सरकार के घोषणा पत्रों पर 'स्मार्ट-सिटि' का नक्शा एक रूप लेता नज़र आ रहा है। एक शहर से दूसरे शहर को जोड़ती मेट्रो लाइने, चौड़ी एंवम् 'फाइव-लेन' होते राजपथ, पार्कों का रख-रखाव, आदि,,आदि अवश्य ही यह सभी कार्य एक शहर को स्मार्ट  बनाने की सरकार के पुरजोर प्रयासों के परिणाम हैं,,,,, परन्तु बन्धु!!  क्या 'प्रतिव्यक्ति सोच' भी इसी रफ्तार में स्मार्ट बन रही है? मुझे इसकी रफ्तार अपेक्षाकृत धीमी महसूस होती है।
   सब कुछ कितना अस्त-व्यस्त है। यूँ लगता है एक संकरे मुँह वाले छोटे  पात्र में अधिक मात्रा मे कुछ रखने का प्रयास किया जा रहा है,,कभी इधर से कुछ बह रहा है,,तो कभी उधर से गिर रहा है,,,तो कभी पात्र ही उलट जाता हो। सार्वजनिक स्थलों पर ' स्वच्छ भारत अभियान' के प्रतीक चिन्हों के साथ लगाए गए 'लाल' और 'हरे' 'कूड़ेदान',,,,, अक्सर कचड़ा इनके अन्दर कम बाहर अधिक शोभायमान रहता है। जहाँ कचरा कूड़े पात्र मे डालने की सोच विकसित नही वहाँ 'हरे' और 'लाल' कचरापात्रों  का सही इस्तेमाल क्या होता है? इसकी अपेक्षा करना तर्कसंगत नही है। खैर छोड़िए आगे बढ़ती हूँ।
     अकस्मात् मुझे वर्षा ऋतु का एक दिन याद आ गया जब स्कूटर  बारिश के कारण हुए जल जमाव मे आधी डूबी निरन्तर 'हे प्रभु किसी  तरह नैय्या पार लगा दो' का जाप करते हुए  निकाली,,,। आस-पास की गाड़ियां नांव की भांति लहरों संग डोल रही थीं, तब लगा की शहर स्मार्ट बन रहा है,,,,चार पहिया,दुपहिया वाहन चालन के अलावा अब शहरों मे नौका विहार का भी भरपूर आनंद ले सकते हैं। अनाधिकृत रुप से भूमि अतिक्रमण कर मकान एंवम् व्यवसायिक भवनों का निर्माण करते समय योजना बद्ध तरिकों से बने 'जल निकासी' व्यवस्था को पूरी नज़र अन्दाज़ कर दिया जाता है। यहाँ 'सोच' पर बरबस ही ध्यान आकृष्ट हो जाता है।
     आज सड़कों पर ही देख रही हूँ स्मार्ट सोच के कुछ नज़ारे,,,,,।गाड़ियों का उमड़ता सैलाब और अधैर्यता के साथ बजते उनके 'हार्न' वैसे कई गाड़ियों के पीछे स्पष्ट लिखा होता है,,"  डोन्ट होन्क प्लीज़",,, देखकर लगता है आज अपने शहर के निवासी आर्थिक रूप से सक्षम हैं ,देश की आर्थिक उन्नति पर फक्र होता है,,,, परन्तु बात यह नही ,,,बात तो सोच की है। वाहनों को खरीद पाना या ना खरीदपाना बड़ी बात नही,, क्या इनको चलाते वक्त वे 'यातायात नियमों' का पालन करने मे भी सक्षम् हैं???? किसी एक 'ट्रैफिक लाइट' चौराहे पर यदि चार यातायात पुलिसकर्मी खड़े होकर इन्हे ना नियंत्रित करें तो अव्यवस्थित, फूहड़, अभद्र भाषा एंवम् एक दूसरे को आंखें तरेरते अंधा धुन्ध गति से गलत तरीके से गाड़ी निकालती 'सोच' दर्शनीय होती है। क्यों हमारी सोच को नियन्त्रित करने के लिए एक डंडे की आवश्यकता प्रतिपल होती है?????यह ज़रूरी नही की स्मार्ट सोच के उदाहरण मुख्य सड़कों ,बाजारों या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर ही दिखते हैं ,,,,।आइए आपको अपने आवसीय परिसर मे भी इसके कुछ छुटपुट उदाहरणों से अवगत कराती हूँ।
   अब मेरा स्कूटर अपनी 'काॅलोनी' के अन्दर प्रवेश कर चुका है थोड़ी चर्चा आपसे इसकी भी कर लूँ,,। बहुत ही हरी-भरी और खुला-खिला वातावरण हैं।मेरे घर आने वाले अतिथि इस खुले-खिले परिसर को देख मुग्ध हो जाते हैं। परन्तु कहते हुए खेद होता है कि यहाँ के प्रतिवेशियों द्वारा अवैधानिक रूप से किये गए भूमि अधिग्रहण के परिणाम स्वरूप कार पार्किंग की विकट समस्या उत्पन्न हो गई है यदि भूमि अधिग्रहण ना किया गया होता तो प्रति घर यदि तीन कारें भी होती तो भी यहाँ जगह का अभाव ना होता,,,, बच्चों के खेलने के पार्क,, जहाँ कुछ वर्ष पूर्व शाम को हर उम्र के बच्चों के खेल मे मदमस्त आवाज़े आती थीं ,,वही पार्क अब 'कार पार्किंग एरिया' मे परिवर्तित हो गए हैं लोग बच्चों को,," जाओ कहीं और खेलो,,गाड़ियों के कांच तोड़ोगे क्या?" की फटकार लगाते और बच्चे मायूस हो आपस मे भुनभुनाते जाते दिखाई पड़ते हैं।
       मेरे आवासीय परिसर में 'पशु प्रेमियों का भी बाहुल्य है, मै इसकी विरोधी नही ।मानव और पशु का सम्बन्ध सभ्यता की शुरूवात से ही देखा गया है अतः पारस्परिक प्रेम स्वाभाविक है। प्रातः और संध्या काल ये पशु-प्रेमी अपने पालतु कुत्तों,,,, माफ कीजिएगा "डाॅगी" बोलना सम्माननीय होगा ,,,को शान से साथ लेकर तथाकथित 'मार्निंग एवंम् ईवनिंग वाॅक' करते और अपने पड़ोसी के उद्यान के मुख्यद्वार के सामने अथवा उनकी गाड़ियों के पीछे मल-मूत्र विसर्जित करवाते बड़ी सज्जनता के साथ देखे जाते हैं। यही प्रतिवेशी जब विदेश यात्रोपरांत विदेशों के साफ सुथरे परिवेश का गुणगान कुछ इस प्रकार करतें हैं "कनाडा मे तो लोग अपने 'पेट्स' को 'वाॅक' पर ले जाते वक्त 'पैन' और 'गारबेज बैग' साथ लेकर चलते हैं,,, और नाक भौं सिकोड़ते हुए बोलते हैं-" इन्डिया इज़ सो डर्टी कन्ट्री " (भारत बहुत गन्दा देश है)  आहहहहहह् अफसोस होता है ऐसी सोच पर,,,, परन्तु सरकारी दस्तावेज़ों पर मेरा शहर "स्मार्ट सिटी" के रूप मे दनदनाते हुए विकास पथ पर अग्रसर है।

सोमवार, 23 जनवरी 2017

प्यार को पूर्णता कहाँ,,,,,,?



 क्या होगा
 जब हमारा
प्यारअंतरमुखी
हो जाएगा,
रस्मों रिवाज़ों
 से मजबूर दूर से
ही प्रीत की  उष्मा पाएगा,
कोई राह तुम तक
नही पहुँती होगी,
बस कल्पनाओं मे ही
 अपनी मंजिल पाएगा,

मन घर का कोई
ऐसा कोना खोजेगा,
जहाँ कोई और
ना आएगा जाएगा,
आंखें मूंदकर
फिर तुम्हारी यादों
 का बटन दबाएगा,
मानस पटल पर
कल्पनाओं की
स्क्रीन सेट करेगा,

उस पर उभरेंगे
वो सजीव से चलचित्र
जिसमे हमारी
अभिलाषाएंऔर
इच्छाएं मेरे निर्देशन मे
अभिनय करती नज़र
आएँगीं,शुरूवात से
अन्त सब मेरे मुताबिक
घटित होगा,हाँ तब तक
मै बहुत परिपक्व हो जाऊँगीं,

तुम्हे पाने की चाह को
 मन मे छुपाकर ,
सबके साथ पूर्णता से
 जीना आ जाएगा
किसी की पुकार पर
अचानक उसे बंद कर
दिया जाएगा,कुछ बिखरे
कामों को समटते हाथ,
पर मन उन्ही लम्हों को दोहराएगा,

कोई शब्द तुमसे जुड़ा
कानों मे गूँज जाएगा,
लिखे अलफाज़ों मे
तुम्हारा चेहरा नज़र आएगा,
'बातों का समय' तब भी
यादों का आलार्म बजाएगा,
प्यार को पूर्णता कहाँ
यह सत्य भली-भांति समझ आ जाएगा।

बुधवार, 18 जनवरी 2017

हिन्दी भाषा की वेदना

(चित्र इन्टरनेट से)


           हिन्दी भाषा की वेदना
          ***************

भारत विभिन्नताओं का देश है, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सरसरी दृष्टि से इसका सर्वेक्षण किया जाए तो भौगोलिक,सांस्कृतिक,धार्मिक,क्षेत्रिय, भाषायिक वैभिन्नता देखने को मिलती है, परन्तु इतनी विविधताओं को समेटे भारत की माटी पूरे विश्व को अवाक् करने वाली अद्भुत एकता की स्वामिनी है, इसकी यह विशिष्टता एक ऐसा इन्द्रधनुषी रंगो का चक्र है जब यह धूमता है तो इसके सभी रंग एक दूसरे मे समाहित हो एकरंगी हो जाते हैं। ऐसी अक्षुण्य एंव विलक्षण 'अनेकता मे एकता ' का गुण शायद अन्यत्र कहीं देखने को मिले।
    भारत का हर नागरिक अपनी मातृभूमि की इस विलक्षण प्रतिभा को महसूस कर गौरवांवित होता है,परन्तु कष्ट होता है जब अपने ही कुछ भाई-बंधु निम्नकोटि की राजनैतिक स्वार्थों के वशीभूत हो देश की अक्षुण्ता को छिन्न-भिन्न करने का सतत् प्रयास समय समय पर,,अलग अलग तरीकों से करते रहते हैं। आठवीं अनुसूची मे भोजपुरी और राजस्थानी बोलियों को सम्मलित कर भाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास ऐसी ही 'भाषायिक राजनीति' का उदाहरण जान पड़ता है। 'हिन्दी , हिन्दोस्तान की पहचान है' , जितना उदार 'मेरे भारत' का ह्दय, उतनी ही उदार इसकी भाषा ' हिन्दी'। भोजपुरी, ब्रज,अवधी, पूर्वी हिन्दी, कुमायुनी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि जितनी भी अन्य आंचलिक एंव क्षेत्रिय बोलियां हैं, सब मिल कर हिन्दी का शरीर निर्माण करती हैं,,,, यह बोलियां हिन्दी को रक्त संचार करने वाली धमनियां हैं, हिन्दी साहित्य का इतिहास उठाकर देखा जाए तो 'वीरगाथा काल से आधुनिक काल तक के विकास मे यह बोलियां  निरन्तर 'हिन्दी' को पोषक तत्व प्रदान कर सुन्दर,सुगठित एंव विस्तृत रूप प्रदान करती रहीं हैं,,और भाषायिक राजनीति परस्त अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु इस पर कुठाराघात कर इन्हे हिन्दी से अलग करना चाहते हैं। क्या कभी सोचा किसी एक रक्त संचार करने वाली धमनी को काटकर अलग कर देने के दूरगामी परिणाम,,,,???? क्या वास्तव मे एक दूसरे से अलग हो किसी एक का अस्तित्व विस्तार पा सकेगा,,,,??? जी नही,,,,,,कदापि नही,,,,,,हैरानी होती ऐसे लोगों की विवेकहीन और संक्षिप्त सोच पर,,,,,और कष्ट भी।
    आंठवीं अनुसूची मे हिन्दी के साथ 21 अन्य भाषाएँ भी शामिल हैं जिनका अपना एक 'मानक व्याकरण' है, 'लिपि' है और प्रान्त मे उन्हे बोलने वाला एक विशाल जनसमुदाय भी है। परन्तु भोजपुरी बोली का ऐसा निजस्व कोई लिपि, व्याकरण अथवा साहित्य नही है,,,,यह तो मात्र एक 'घरवा बोल-चाल' की भाषा है,,इसको 'राजभाषा' का दर्जा दिलवाने की बात बेहद बचकाना है। किसी राज्य के सरकारी कार्यालयों मे राजभाषा के रूप मे व्यवहार किए जाने के लिए जिस स्तर की समृद्ध,सुदृढ़,परिष्कृत और सम्पन्न  भाषा की आवश्यकता होती है,,,ऐसे गुण 'भोजपुरी' बोली में नही हैं।
   इस तरह तो आज भोजपुरी को सूची मे शामिल करने की मांग की जा रही है कल कोई अन्य आंचलिक बोली सर उठाती दिखेगी, और इस तरह इन बोलियों से 'खाद',, माटी,,पानी,,और ऊर्जा प्राप्त कर स्वस्थ और सुदृढ़ वृक्ष के रूप मे पल्लवित हो रही हिन्दी मुरझाकर सूख जाएगी। यह एक भाषा के अस्तित्व को चोट पहुँचा कर कमजोर करना होगा,,, जिसके परिणाम स्वरूप हिन्दी कभी भी 'अंग्रेजी' भाषा के समानान्तर  अपना स्थान नही बना पाएगी। अंग्रेजी भाषा का बढ़ता प्रभाव और हर क्षेत्र मे पैर पसारता इसका वर्चस्व 'हिन्दी के हिन्दोस्तान पर ग्रहण के भांति सदैव के लिए लग जाएगा।
    देश के साहित्यकार, माननीय प्रधानमंत्री जी, समस्त हिन्दी प्रेमी जहाँ हिन्दी को केवल राष्ट्रीय ही नही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रतिष्ठा और मर्यादापूर्ण स्थान दिलाने के लिए प्रयासरत हैं,, वही कुछ स्वार्थपरक लोग हिन्दी को अपने ही रक्तसम्बन्धियों से अलग कर भावनात्मक,रचनात्मक एंव शारीरिक रूप से कमजोर और छिन्न-भिन्न करने की सोच को दिशा देना चाह रहे हैं।
   एक भाषा का वेदनापूर्ण निवेदन है, सदियों से उसको समृद्ध बनाने वाली, प्राण फूंकने वाली सदैव विकास पथ पर चोली-दामन सा साथ निभाने वाली आंचलिक बोलियों को इतनी निर्ममता से उससे अलग करने का विचार भी मन मे ना लाएं , वरन एकजुट हो भाषा का समग्र विकास सोचें,,,छोटे-छोटे प्रान्तिय एंव क्षेत्रिय स्वार्थों से ऊपर उठ राष्ट्रीय एंव अन्तर्राष्टीय स्तर पर 'हिन्दी' को अपनी अमिट पहचान बनाने मे आपना योगदान दें।
जय हिन्द, जय हिन्दी!!

शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

बाबा और बेटी💖


स्मृतियां जीवन्त होती हैं, मानव शरीर क्षण भंगुर है। अपने निकले हुए पेट को छुपाते हुए 'बाबा' और उनकी वह हंसीं बस इस तस्वीर मे ही दिखेगी। 'स्मृतियां' मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त एक अमूल्य उपहार है।
  आज फिर से जीवन्त हो उठी बाबा की स्मृतियां,,,, यूँ तो उनकी हर बात, उनकी भाव-भंगिमाए,उनकी आवाज़ की अनुगूँज रह रह करकानों मे गूँजती है और आंखों केआगे तैर जाती हैं,,,, कभी मन मुस्कुरा उठता है,,,तो कभी द्रवित हो जाता है,,,पर आज लिखने के लिए प्रेरित कर गई उनकी यह फोटो😊 ।बहुत सारी बातें हैं यादों के खजाने में,,सबको एक लेख मे समेट पाना असम्भव,, बस एक अंश मात्र है जो मन मे तरंगित हो रहा हैऔर उँगलियाँ टाइप कर रही हैं।
      'बाबा' बहुत ही सरल, कमर्ठ,उसूलों के पक्के, दुनिया की 'टिटिम्मेबाज़ी से अलग अपनी एक अलग सोच रखने वाले, खाने के बहुत शौकीन उनको खिलाना बहुत आनंद देता था😊 परन्तु 'खाने के लिए जीवन नही, जीवन के लिए खाना' पर अमल करने वाले, बच्चों के साथ बच्चे, माटी के मानुष, कलम के धनी, निर्भीक, भावुक और गुस्सैल भी😃। मेरे व्यक्तित्व को विस्तार देने वाले मेरे जीवन के 'प्रथम पुरूष',,,कहते हैं बेटियों के जीवन मे 'आर्दश पुरूष' की परिकल्पना उसके पिता को देखकर ही निर्मित होती है,,,और भावी भविष्य में लड़कियां अपने पति में पिता सा स्नेह,संरक्षण,सुरक्षा  खोजती हैं,,,जिसका प्रथम पाठ वे अपने पिता से ही सीखती हैं।
     मेरे व्यक्तित्व आकार माँ ने दिया परन्तु विस्तार का प्रारम्भ बाबा ने,,,। माँ बताती हैं जब मैं शिशु थी ,,बाबा के ऑफिस के आने के समय ही रोना शुरू कर देती थी और चुप बाबा के गोद में जाकर ही होती थी।,,  "बाबा की बेटी",,, बहुत ही अह्लाद से वह मेरे सिर पर हाथ सहलाते हुए अपने सीने से लगाते थे वह स्पर्श आज जीवित हो उठा  उनको याद करते हुए😊।
   बाबा से पढ़ना भी बहुत अच्छा लगता था 'इतिहास के ज्ञाता ' थे,,कितनी ही रोचक कहानियां उनको पता थी जो किताबों में नही मिलती। अक्सर रात मे लाइट चले जाने पर आंगन मे फोल्डिंग चारपाई डाल बाबा के पास बैठकर कहानियाँ सुनना बेहद पसंद था,,यह कहानियां पौराणिक, ऐतिहासिक और कभी कभी मन गढ़न्त होती थीं😃😃😃😃 जोकि बेहद रोचक और किश्तों मे सुनाई जाती थीं,,इनका कोई अंत नही होता था,,मै मंत्र-मुग्ध हो उनको सुनती थी। ज्यादा देर हो जाने पर रसोई से माँ गुस्से मे आवाज़ लगाती - अरे अब उठेगी या बाबा की बकर-बकर सुनती रहेगी,,,,तब बाबा धीरे से हंसते हुए बोलते-' जा,,जा तेरी माँ का पारा हाई हो गया है'😃😃😃😃 मन एकदम भी नही होता था पर उठ जाती थी।
     कहाँनियों की बात क्या छिड़ी ,,,मै पढ़ाई वाली बात से भटक गई,,, गणित मे मै शुरू से ही बहुत कमज़ोर थी,,इसलिए मौका मिलते ही गणित बाबा से पढ़ना पसंद था,,क्योंकी उनसे कोई प्रश्न पूछो वह उसे पूरा हल कर के बता देते थे और मैं उसको आपनी काॅपी में 'टीप' लेती थी,,, नही तो माँ के पास बैठना मतलब मार खाकर पढ़ना ,,,अक्सर माँ रोटी बनाते हुए पढ़ाती थींऔर न समझ आने पर बेलन से मार पक्की😃😂😂। वैसे बाबा को समय कम मिलता था,,हर बार बोलते थे-' बेटा इस माह की 15 तारिख को लेकर बैठूँगा,,पर उनकी वह 15 तारिख जल्दी नही आती थी
       हाई स्कूल की बोर्ड परीक्षा में अंग्रेजी की तैयारी बाबा ने कराई एक पाठ था ' साॅक्रेटीज़" वह उन्होने बहुत अच्छे से समझाया और भाग्यवश 50% प्रश्न उसी पाठ पर आधारित थे, मेरा पेपर बहुत अच्छा गया, प्रश्नपत्र देखकर बाबा बोल पड़े-' सुकरात महाराज लहा दिए'😃😃😃।
   उनके कुछ निर्धारित कार्यकलाप थे,, हम तीनों भाई बहनों के परीक्षा देकर आते ही प्रश्नपत्रों पर 'मार्किंग करना,,,हमने क्या उत्तर लिखा कभी नही पूछते थे बस इतना पूछते थे,, "बेटा हवा लग?" और हमारे उत्तर देने के अंदाज़ पर ही उनकी मार्किंग होती थी जोकि इतनी सटीक होती थी कि मजाल है रिर्पोट कार्ड में 3-4 अंक से अधिक इधर-उधर हो जाए,,,अद्भुत दूरदर्शिता थी।
   खाना बनाने का तो नही परन्तु खाने के साथ प्रयोगात्मक पंगे लेने की मेरी आदत छोटी उम्र से ही मुझमे रही है, जो कभी कभार बहुत अखाद्य होते थे,,, और मेरे ये 'अखाद्य अत्याचार' बाबा ने सदैव सराहना और प्रोत्साहना के साथ प्रशंसा के साथ खाए। जब मेरे प्रयोग सफल होने लगे तब, जब भी मुझे मौका मिलता मै उन्हे चखाने के लिए ले जाती थी,,, उनकी उन्मुक्त कंठ से प्रशंसा और प्रोत्साहन मुझे एक सफल 'शेफ' की सी अनुभूति देते थे। अब यह सब बस स्मृतियों मे ही जीवन्त रहेगा और आंखों के आगे एक फिल्म सा चलता दिखेगा परन्तु,,,,,,,,,,,,,,,।
       बाबा सशरीर साथ नही पर अपनी यादों के साथ, शिक्षा एंव संस्कारों के साथ आजीवन साथ हैं,,,, नही हैं तो बस हमें लेकर उनकी वह वात्सल्यमयी चिंताएँ ,,, कि मेरी बेटी ठीक से खाना खाती है या नही? परिवार की देखभाल मे सारा दिन दौड़ धूप करती,,अपने स्वास्थ्य का ख्याल करती है या नही? मेरी थकान जैसे बाबा ही पहचान पाते थे,,शाम को मिलने जाती थी तो सबसे पहले माँ को बोलते थे -'इसको एक ग्लास पानी देना' अब वह आवाज़ नही सुनाई देती,,,, छोटी से छोटी उपलब्धियों को बाबा को बताना और उनकी शाबाशी पाना,,, छोटा सा काम करने पर उनका बड़ा सा आशीर्वाद-" जा राजरानी हो जा,,;क्वीन विक्टोरिया हो जा "!!! बहुत कुछ चला गया उनके साथ ,,, जिन्हे शब्दों मे व्यक्त कर पाना मेरे लिए असंभव है ।

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

मन की बात ,,लिली और गीतांजली के साथ 😊

आज एक पोस्ट पर मेरी और गीतांजली के बीच काव्यमयी वार्तालाप हुआ जो ह्दय स्पर्शी लगा,,मैने इसे सदा के लिए अपने पास संजो लिया।




गीतांजली  *  हिरदय होय बेकल और शब्द भय गऐ मौन
                 मन खोयो वीरानी मे तुम बिन समझे कौन

लिली     *   मौन भए जब शब्द तो भाव बहे प्रबल
                सखी तुहारी पीर को मुझसा समझे कौन

गीतांजली *  इक तू ही तो है सखी जो समझे मोरी बात
                जान बूझ कर नित करू तेरे  चित पर घात

लिली   *     लिली गीतांजली यूँ जुड़ी ज्यों दिन और रात
                घात नही ये सखी प्रेम है मोहे लगे पुष्प पात।

लिली      *    दिल की विरानियों मे तुझ संग रहूँ चपल
                  कह दे सारी बीतणीं मुझ सा सुनेगा कौन।

गीतांजली   *  विरानी भी लगे तुझ संग सखी मनोहर
                   बिन कहे सब बूझ ले तू  है मोरी धरोहर

  

बुधवार, 4 जनवरी 2017

मै जीना चाहती हूँ,,,,,,,,

                         (चित्र इन्टरनेट से)


            बेफिक्र हो सबसे अब जीना चाहती हूँ,
            अपने खोए वजूद को छूना चाहती हूँ।
            बन्द पिंजरे मे पंख फड़फड़ाती रही हूँ,
            खुद के आसमान मे उड़ना चाहती हूँ।

            कई दायरों में बाँधकर रख दिए,
            ख्वाहिशों के दरियाओं को।
            रवाज़ों को तोड़ अब बहना चाहती हूँ,
           बेफिक्र हो सबसे अब जीना चाहती हूँ।
 
           मेरी ज़िन्दगी के फैसले मोहताज से होगए,
           उम्र के हर पड़ाव मे किसी और के हो गए।
           बेबसी के ये दौर अब तोड़ना चाहती हूँ,
           बेफिक्र हो सबसे अब जीना चाहती हूँ।

           जज़्बातों को रौंदकर महल नए बनाती गई,
           हर इक दीवार को मुस्कुराहटों से सजाती गई।
           कुछ तस्वीरें अपनी हसरतों की लगाना चाहती हूँ।
           बेफिक्र हो सबसे अब जीना चाहती हूँ।

           मेरे दर्द की पीर खुद में सुबकती रही,
           ऐ ज़िन्दगी फिर भी मै खिलखिला के हंसती रही।
           दबे से ज़ख्मों पर खुद मलहम लगाना चाहती हूँ,
           बेफिक्र हो सबसे अब जीना चाहती हूँ।