शनिवार, 30 जून 2018

मेरे रोज़नामचे,,,










ऐ मेरे एहसासी दुनिया के हमसफ़र!!
मेरी क़लम की स्याही,,
मेरे काग़ज की सफ़ेदी,,
तुझे रोज़ लिखती हूँ
"रोज़ नामचे" की तरह उसपर,,,,
कितने नए 'शब्द' देता है तू
और मैं पूरे हक़ से उड़ाती हूँ
तेरी 'तनख्वाह' की तरह,,,
कोई 'अमृता' शायद मुझमें भी
पनपने लगी है ,,,
बड़ी ख़ामोशी से,,,,,
करने लगी हैं ख्वाहिशें,,
जिस्मे से परे कहीं क्षितिज
के उसपार  तुझसे मिलने की
हसरत हो रही हावी,,,,
घुलकर होने को एकसार ,,,
तब कलम से नही ,,,
लिखूँगीं अपनी अंगुलियों से तेरे
सीने पर अपनी कसमसाती
मोहब्बत की नज़्म को,,,
कर दूँगी मेरा वजूद
तुझमें तार-तार,,,,
हर तार में गुथ लूगीं तुझे,,,
इतनी शिद्दत् से ,,,
के तू मेरी गिरफ़्त से
कभी हो ना सकेगा आज़ाद,,,
तब तक,,,,
मेरे 'रोज़नामचे' दर्ज होते रहेगें,,,
मेरी कलम से,,,
तेरी स्याही से,,,
मेरे दिल के काग़ज़ पर ,,,
रोज़ ,,,,, हर रोज़,,,,,,,

लिली🍃

शुक्रवार, 29 जून 2018

खुली हथेलियां,,,बारिश में

                      चित्राभार इन्टरनेट)

एक प्रयास चित्र पर
🍃🍃🍃🍃🍃🍃

उमस बहुत थी,,,
चिलचिलाहट तपिश के साथ,,
कचोटने लगी थी बदन को,,,
कुछ था जो बादलों मे
बूँदों का बोझ बढ़ाता
जा रहा था,,,,,,
कुछ फटकर ,,
बेतहाशा बरसने को बेताब, ,,,,,,
,,,,,,,और देखो,,,,,,,,,
वो फट पड़ा,,,
यकायक,,,बेख़ौफ़
बेपरवाह,,,आज़ाद,,
हर बेड़ियों से होकर,,,
बरस पड़ा है मुझ पर,,,
मैने भी छोड़ दिया है पूरा
जिस्म आज़ाद,,,,,,,
नही कर रहीं मेरी हथेलियां,,,
बारिश को मुट्ठियों में कसने की,कोशिश,,,,
खोल दिया है हथेलियों को,,,
इस उम्मीद में,,,,
,,,,,के,,,,
शायद बह जाए लकीरों
मे छुपा मेरा चिलचिलाता नसीब,,
कुछ सावनी सी हरियाली
 की आस में मैं भींगती रही,,,
भींगोती रही,,,,

लिली मित्रा🍃

बुधवार, 27 जून 2018

तब मानू तुम मेरे हो

कुछ अपनी भी रिश्तेदारी हो
मजबूरी दुनियादारी हो,,
तेरी तनख्वाह मे जानम
कुछ मेरी भी हक़दारी हो,,

भाजी-सब्जी की बाते हों,
एक घर में दो अन्जाने सी,
हम दोनो की भी रातें हों,,
चाय का कप ले संग साजन
घर-गृहस्थी की सौगाते हों,,

लिपटे कई झमेले हों
तब तो मानू तुम मेरे हो,,


हर बात मेरी ही चलती हो,,
मर्जी तेरी ओ बालमवा !
झकमार के हामी भरती हो,
बाहर जितनी भी ठकुराई झाड़ो,
घर की ठकुराई मेरी हो,,

सुख-दुख के सजते मेले हो
तब तो मानू तुम मेरे हो,,,

ये एहसासों में कैसा जीना?
दिल की धड़कन तो कहते हो,,
जीवन की सरगम गहते हो,,
दो शब्द कभी तो बिन बोले ,
बस ख्यालों में जी लेते हो,,!!

दुनियावी बातों के ठेले हों
तब तो मानू तुम मेरे हो,,,

लिली

सोमवार, 25 जून 2018

वृष्टि,,,,,

बस मौसम ही ना बरस रहा शायद,,
वरना अंतस की आद्रता हर रोज़
वाष्पित हो रही,,परिस्थितियों की
तपिश से,,,,
बनते रहते हैं सतत् मेघ संवेदनाओं
के प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,

नयनों के कटोर बांधने में
असक्षम् हैं घनीभूत घनों के
जोर ,,,
देखो ना!!! देखो तो,,,,,
भीग रहा है गालों से
 हृदय तक का श्रापित धरातल
प्रतिपल,,प्रतिक्षण,,,,

अब किस मुख से करूँ गुहार??
हे देव तुमसे!!!
तुमने तो मेरी मरूभूमि को
'सदाबहार वनों' में कर दिया,,
परावर्तित,,,
अब कुछ भी कटीला नही,,,
भू का कोई भी कोना दरार लिए
हा हा का चीत्कार नही करता,,,
हर जगह उगी है हरियाली,,,
शान्त हो रही तृषा,,,
प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,

हे देव!!!!
यह कैसा समायोजन???
अतिरेकित अतृप्तताओं का,,,
तृषित हो रहा अब,,,,

घुलने को आकुल हो रही
हर वेदना,,हर व्यथा,,
सघन घन गर्जना संग होते
मौन वृष्टिपात में,,,
प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,,,,

मौसम बदल जाय

उमस,बारिश,
चिलचिलाती धूप,

दुर्गंध,मन,उचाट,
गहरी सांस,सूनापन,

उदास गज़ल,तल्खी,थकान,,,
ये भावों की बेमेल भीड़,

सार्थक वाक्य बनते नही
कागज़ उड़े,कलम चलती नही

फिर भी मै लिखने पर अमादा
ज़िद है एक,,शायद उतारने से
भाव कागज़ पर मौसम बदल जाए,,,,,,,,,,
~लिली😊

इन्द्रधनुष

सब रंग खोए मुझमें थे
मैं खोज रही थी
इन्द्रधनुष,,,
जाने मन के,किस कोने
में था एक सघन हरा-भरा
झुरमुट,,,,
तुम छुपे वहीं बैठे थे,मुझमें
मै इत-उत ढूँढू स्वप्न
पुरूष,,,,
कहो छुपे तुम क्या करते थे
क्या सुख पाते,मुझे देख
कलुष,,,
अब पाकर तुमको,जगमग
अंतस,मन कानन के तुम
आरूष,,,

लिली ☺

(कलुष शब्द से यहाँ आशय=दुखी/क्षुब्ध होने से है)

तुम निठुर!!

छद्म भेष धर आते हो,,
हर बार मोहे छल जाते हो,,
मैं निर्मल निर्झर भाव मनी,,
तुम निठुर! हृदय दल जाते हो।

आकुल मन और बिसरा तन
तुम जीवन के अनमोलित धन
 ठग बन,सब हर ले जाते हो
तुम निठुर! हृदय दल जाते हो।

कित खोए कुछ तो बोलो अब?
सुध लोगे प्रियतम मेरी कब?
श्वासों की गति मंथर कर जाते हो
तुम निठुर! हृदय दल जाते हो,,

लिली🌿

सोमवार, 18 जून 2018

अंजाम मेरे आगे,,



                        (चित्राभार इंटरनेट)


ना जाने क्या पढ़ना चाहती हैं
 हसरतें,,
उसकी लिखी पुरानी
 बातों में,,
जबकि मैं होश में हूँ,,,,,,,,,,
और अंजाम,,
मेरे आगे।

हर शब्द पे डालती हूँ,
अर्थों के
 बहुआयाम,,
मतलब है साफ़
और बानगी,,
मेरे आगे।

फिर भी,,,,
भिड़ाती हूँ तर्कों को,, वितर्कों से,
चीरती हूँ,,दिलों पाट,,
और ,,खुलें वही
ढाक के तीन पात
मेरे आगे।

लिली🌿

रविवार, 10 जून 2018

आश़िक किनारा,,,

                    (बारिश में भींगता बम्बई का समन्दर)

आशिक किनारा
🍃🍃🍃🍃🍃🍃

बेइमान से मौसम में
बहका सा,,,,,,
समन्दर का,,,,,,
आशिक़ किनारा,,,

ऐठती लहरों में मचलती
हसरत लिए,,,,
समन्दर का,,,,,
आशिक़ किनारा,,,

कनखियों से लुक-छुप
कर देखती मेरी नज़र को,
शरारती मुस्कान लिए भांपता,,
समन्दर का,,,,
आशिक़ किनारा,,,,,

इश़्किया बारिश में
भींगती अपनी गठन,
दिखाकर लुभाता ,,,,,,
समन्दर का,,,
आश़िक किनारा,,

 हया  भरी आंखों में,,
दबे अरमानों की पलक,
 गिराकर,,,,,
 मैं बड़ी तेज़ी से
गुज़र आई,,
धड़कते दिल को अपने उभारों
से कुचल कर,,,
मैं बड़ी तेज़ी से
 गुज़र आई,,,,,
देखना चाहा दिलभर के,,
पर देख ना पाई,,,
समन्दर का ,,,,
वो आश़िक किनारा,,,

~लिली 

शुक्रवार, 8 जून 2018

इसको भी बारिश कहते हैं,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)


जब तपते मन के सूखे पोर
भर जाएं पाकर प्रेमिल झकझोर
बोझिल नयनों के तकते कोर
तर जाएं आंसुओं से सूने छोर
इसको भी बारिश कहते हैं
सब बांध तोड़ झर बहते हैं!!

ओसार में गिरते बूँदों के शोर
टप टप का नर्तन होता चहूँओर
खिड़की से आती बौछारें पुरजोर
मन फिर भी प्यासा ताके तुझओर
इसको भी बारिश कहते हैं,,
जो भींग के भी प्यासे रहते हैं!!
~लिली🌿

अजि सुनते हो क्या,,,,!!!


अजि सुनते हो क्या!!!

ये पुरवा क्या कुछ कहती है,,,!
डाल पात सब बहकी है,,
बादल क्यों लेता अंगड़ाई!
क्यों ले हिचकोले तरुणाई?

अजि सुनते हो क्या,,,,,!!!

मगन गगन कुछ नटखट है
तपित धरा मन छटपट है
मुझको क्यों तुम्हरी याद आई?
क्यों बजती प्रीत की शहनाई

अजि सुनते हो क्या,,,!!

बोलो ना क्यों हो मौन धरे?
कहदो कुछ तो नहि चैन पड़े,,
मधु बैन कहो ओ हरजाई
क्यों समझों ना गोरी अकुलाई

अजि सुनते हो क्या,,,!
~लिली🌿