सोमवार, 25 जून 2018

वृष्टि,,,,,

बस मौसम ही ना बरस रहा शायद,,
वरना अंतस की आद्रता हर रोज़
वाष्पित हो रही,,परिस्थितियों की
तपिश से,,,,
बनते रहते हैं सतत् मेघ संवेदनाओं
के प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,

नयनों के कटोर बांधने में
असक्षम् हैं घनीभूत घनों के
जोर ,,,
देखो ना!!! देखो तो,,,,,
भीग रहा है गालों से
 हृदय तक का श्रापित धरातल
प्रतिपल,,प्रतिक्षण,,,,

अब किस मुख से करूँ गुहार??
हे देव तुमसे!!!
तुमने तो मेरी मरूभूमि को
'सदाबहार वनों' में कर दिया,,
परावर्तित,,,
अब कुछ भी कटीला नही,,,
भू का कोई भी कोना दरार लिए
हा हा का चीत्कार नही करता,,,
हर जगह उगी है हरियाली,,,
शान्त हो रही तृषा,,,
प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,

हे देव!!!!
यह कैसा समायोजन???
अतिरेकित अतृप्तताओं का,,,
तृषित हो रहा अब,,,,

घुलने को आकुल हो रही
हर वेदना,,हर व्यथा,,
सघन घन गर्जना संग होते
मौन वृष्टिपात में,,,
प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,,,,

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें