बुधवार, 10 नवंबर 2021

 कहता है बादल ,सोचती है धरा



बादल जता रहा है शिकायत- 


एक पल के लिए  सही 

उड़ो न संग मेरे


दिखा रहा है वितान का

तना हुआ नीलाभ


सहला रहा है 

नरम पात की धानी 

हुई शाख को


बहो तो सही मेरे साथ 

एकबार बवंडर बनाते हुए.....


धरती चुपचाप सुन रही है 

अपनी धुरी पर सधी हुई

सोचती हुई ...एक ओर हल्की सी 

झुकी हुई.....

मेरी गति का मंथर प्रवाह क्यों

नही महसूसते तुम?

बदलती हुई ऋतुएं और दिन के बाद रात,,,!

क्यों तुम चाह रहे मैं तजकर 

अपना नियत-धैर्य 

घूम जाऊं किसी तेज़ दौड़ते

रथ के पहिए सी

'

'

'

क्यों प्रेम के उच्छृंखल आवेग 

में शिथिल पड़ जाता है तुम्हारा विवेक ?

भूडोल से कब हुआ है कुछ निर्माण ?

 क्यों चाहते हो कि तुबड़ जाए मेरी

पूरी देह और ध्वंस हो जाए 

मुझ पर बसा जीवन सौन्दर्य.... 


अब ये मत कहना

'ये तो बस मनबतियां थीं'


इन मनबतियों से भी दरक जाता 

है भीतर बहुत कुछ

विवशता में सूख जाता है

हर बार संवेदना का एक अंश 

तरल ... 

पत्थरा जाता है 

अंतस...


लिली


शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

कविता के अवशेष

 


       (चित्र साभार सांत्वना श्रीकांत द्वारा )

बारिश का आख़िरी क़तरा

पात पर जमी धूल के

आखिरी कण को
साथ लेकर
जमीन की तृष्णा की अंतिम तरस को मिटाने के लिए
बस टपकने को है,,
पर क्या
ये पात का धुल जाना
ये धरती की तृष्णा का
मिट जाना
उस क्षण के बाद
फिर नही होगा?

या फिर बारिश ठहर जाना चाहती है पात पर
आखिरी क़तरा
सूखता आँसू है
बिछोह का,,
धरती की तृष्णा
मुहँ खोले
खींच लेने को आतुर है
बारिश का अंतिम कण?
पीड़ा किसकी घनीभूत है
बूँद की?
पात की?
धरा की?
या फिर बादल की?
जिसका प्रसंग इस पूरे विवरण में कहीं
आया ही नही?
गडमडाए से प्रश्न
घटनाओं के टूटते जुड़ते क्रम
जैसे आँखों को हड़बड़ी मची हो
जो देखा , सब भर ले
अपने गलियारों के गोदाम में,,
कोई कविता शायद
इसी हड़बड़ी में कुचल जाती है
पात के गाल से फिसलती
बूँद की राह पर
सूखे आसूँ के निशान की तरह
थी तो सही
पर अब अवशेष ही शेष

सोमवार, 8 मार्च 2021

रेगिस्तान के खजूर

 

मन एक लम्बे अरसे से बह बहकर जैसे खुश्क़ रेगिस्तान सा हो चुका था। इतना के हौले से रेत का सरकना भी कर्कश लगने लगा।
बस इतना ही कहा था करन ने प्यार से -
मुझे तुम चाहिए ,,,
मेरा उन्मुक्त आकाश ,मेरी सांसों का महकता स्पंदन!
मिला करो ना फिर से वैसे ही जैसे पहले मिलती थी।
चहकती सी, प्यार में मुझको भिगोती हुई।
और कुछ बोलता करन उससे पहले ही
शिखा  बोल पड़ी - मत बोला करो अब ऐसे।
कमरे में सामान हटाए -बढ़ाए जा सकते हैं । एक टेबल के जगह कोई और नई टेबल लगाई जा सकती है। और इसपर भी गुंजाइश उतनी ही होती है जितनी कमरे में जगह हो। गोदाम थोड़े बनाया जा सकता है। चलने-फिरने के लिए भी तो जगह होनी चाहिए ना?
पर दिल में इंसान की रिप्लेसमेंट नही हो सकती।
कोई किसी की जगह कभी नही ले सकता।
ये बात मैने खुद को बहुत अच्छे से समझा लिया है।
प्राथमिकता सदैव प्रथम ,,,'दूसरा' होने की अपनी अलग ही पीड़ा होती है। मुझे उस पीड़ा से हरी-भरी रहने दो।
मेरे तुम्हारे एकान्त के वो डेढ़ साल मेरे जीवन का सबसे खूबसूरत सावन  रहेगा।
अब मुझे लौटने को मत कहना।
"ठीक है जैसी तुम्हारी मरज़ी जैसे रखोगी वैसे ही रहूँगा" करन से कुछ और कहा ना गया। एक मंज़िल के राही दो  अलग रास्ते पर जाते दिखे।
इसी सोच के साथ , मन के रेगिस्तान फूटेगी कोई खजूर की पौध,यादों का सावन रखेगा उनको हरियाया,,
लिली