शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

कविता के अवशेष

 


       (चित्र साभार सांत्वना श्रीकांत द्वारा )

बारिश का आख़िरी क़तरा

पात पर जमी धूल के

आखिरी कण को
साथ लेकर
जमीन की तृष्णा की अंतिम तरस को मिटाने के लिए
बस टपकने को है,,
पर क्या
ये पात का धुल जाना
ये धरती की तृष्णा का
मिट जाना
उस क्षण के बाद
फिर नही होगा?

या फिर बारिश ठहर जाना चाहती है पात पर
आखिरी क़तरा
सूखता आँसू है
बिछोह का,,
धरती की तृष्णा
मुहँ खोले
खींच लेने को आतुर है
बारिश का अंतिम कण?
पीड़ा किसकी घनीभूत है
बूँद की?
पात की?
धरा की?
या फिर बादल की?
जिसका प्रसंग इस पूरे विवरण में कहीं
आया ही नही?
गडमडाए से प्रश्न
घटनाओं के टूटते जुड़ते क्रम
जैसे आँखों को हड़बड़ी मची हो
जो देखा , सब भर ले
अपने गलियारों के गोदाम में,,
कोई कविता शायद
इसी हड़बड़ी में कुचल जाती है
पात के गाल से फिसलती
बूँद की राह पर
सूखे आसूँ के निशान की तरह
थी तो सही
पर अब अवशेष ही शेष

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