गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

गहरी छाप छोड़ते..धुंधलाते निशान

            [उस पार अभी सब धुंध में खोया है
             ना कोई आभास ना कोई आवाज़,
             इस पार जो है उसे भर लेने में जुटी हैं
             दो आँखें...एक दरख्त की डाल पर
             खिल उठे हैं भावी आगत के लिए
             शुभकामनाएँ देते कुछ फूल.....जो होगा
              ठीक ही होगा,
              वो ना बुरा होगा ना अच्छा..
               वो तो बस 'उचित' होगा 'आवश्यक' होगा]
               
            
 

तुम जाने को हो..विदाई की बेला है। मैं देख रहीं हूँ बैठकर अपने कोने से, तुमको अपना बिखरा सामान समेटते हुए। कमरे की हर अलमारी की ताखों दराजों को टटोलते, झाँकते। कुछ उठाते हो, उलट-पलट कर देखते हो...कभी मुस्कुराते हो तो कभी आत्मग्लानि से चेहरा झाईं पड़ जाता है। कभी दृग से अनायास ही लुढ़क पड़ता है कोई बहुत करीबी आँसू तो कभी एक जिद्दी संकल्प की ठोस दीवार से टकराकर लौट जाता है अपने तट से वापस...आँसू। 

मुझे पता है सब छोड़ जा रहे हो तुम मेरे लिए... कहने को अब कुछ भी शेष नही बचा है तुम्हारे पास...और..फिर पूरे बरस भी तुमने कहा ही क्या? बस तुम घटते रहे कभी स्याह रात बन कर कभी उमसते दिन और प्रतीक्षारत सांझ बनकर। कभी उम्मीद की भोर तो कभी टूटती दोपहर बनकर। जाते वक्त एक गहरी साँस भर कर, अपनी शीत,धूप, बरसात, उमस, गरमी, दिन तारीखें सब छोड़ जाओगे ... मेरे लिए। 

जोड़ दिया है तुमने खुद को मुझमें लेकिन मैं घटा रहीं हूँ तुमको मुझसे। घटाऊँगीं नहीं तो जगह कैसे बनाऊँगीं आने वाले के लिए? उसे भी तो बसाना है...न जाने आने वाला आशा-निराशा, सुख-दुख, खोने-पाने के कितने दिन, कितने महीने, कितने चढ़ते-ढलते मौसम बाँधकर लाने वाला है। मुझे पता है कितनी ही बातें वो तुम जैसी ही दोहराएगा.. बस फ़र्क बदले परिवेश का होगा। मुझे मान लेना पड़ेगा 'ये कुछ नया' हुआ। और मैं मानूँगी ना मानने का कोई विकल्प तब थोड़े होगा... वो तो बहुत बाद में समझ आएगा...जैसे मैं आज, तुम्हारी विदाई बेला पर, अपने कोने में बैठकर सोच रही हूँ- मुझे तब ऐसे नही वैसा करना चाहिए था। ये नही वो कहना चाहिए था... कुछ अफसोस... कुछ सोज़...कुछ शाबाशी के साथ पूरी पिक्चर का रिव्यू करती हुई मैं। हाथ से फिसली मछली की वापस पानी में खो जाती हुई देखती.......

एक बार गले नहीं लगाओगे क्या? मैं चाहती हूँ एक आखिरी बार तुम्हारे स्पर्श को महसूस करना, तुम्हारी गंध को एक सेंट की छोटी सी शीशी में बंद कर लेना। फिर बनाऊँगी एक बक्स यादों का रखूँगी सब कुछ...जो तुमसे पाया अनायास, जो तुमने दिया खुश होकर, जो तुमसे माँगा मैंने ज़िद कर के।

अलविदा नहीं कहूँगी...क्योंकि तुम जा ज़रूर रहे हो ना लौटकर आने के लिए लेकिन तुम अपना बहुत कुछ मेरे साथ रख जा रहे हो...बतौर तुम्हारी अनुपस्थिति में  सार्थक उपस्थिति की तरह..।तुम मुझसे कहोगे- 'खुश रहना', 'जो गलतियाँ की उन्हे ना दोहराना', 'नये के लिए शुभकामनाएँ'  जैसा कितना ही कुछ...पर मैं तुमसे क्या कहूँ? पता नहीं....

बस एक बार फिर से लिपट जाने दो तुमसे...शब्दों की भाषा का अभाव सदा ही रहा है मेरे पास शायद मेरा स्पर्श वो कह दे तुमसे जो तुम्हे भी मेरे साथ गुज़ारी हर खुशनुमा याद पर मफलरी गरमाहट और दुखदायी पलों पर फूलों सा कोमल मरहम फेर जाए....

विराम नहीं दूंगी क्योंकि तुम समय हो, बस बहते रहो.....


लिली


सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

मोह


 

मोह स्थिर चीज़ों का ही रखना भला

जैसे-पेड़-पौधे, नदी-पहाड़ 

जमीन-आकाश और .....

प्रेम की गई स्त्री

ये अपनी धुरी छोड़कर कहीं नहीं जाते

नीरवता धारण किए देखते रहते हैं

अनुभव करते रहते हैं -तेजी से गुज़रते हुए 

दृश्यों को, समय को, परिस्थितियों को..

झेलते रहते हैं धूप, बारिश, पतझड़, उमस

छाँट दी जाती है इनकी मनचली बढ़त 

ताकि अपने अनुसार रखा जा सके इनका

आकार-प्रकार, रूप-गुण, बढ़त-घटत

पर शायद अपने कौशल के मद में आदमी

ये भूल जाता है- मोह से की गई उपेक्षा

धुरी पर उसकी दिशा कब घुमा देता है,

अनुमान भी नही लग पाता...

अपेक्षा पर खरा उतना आता है- 

तो उपेक्षाओं पर प्रतिक्रिया देना भी नही भूलती 'स्थिरता'- 

नदी-पहाड़, पेड़-पौधे

जमीन-आसमान और......

प्रेम की गई स्त्री


लिली






मंगलवार, 26 सितंबर 2023

चक्र


 

ना कहीं पहुँचना है
ना कहीं से वापस आना है
ना ही कुछ पाना है
ना ही जो है उसे खोना है
मुझे तो बस-
जिस जगह हूँ वहीं से
थोड़ा ऊपर उठ जाना है
ताकि खुद को और अच्छे से
समझा सकूं-
आसमान कुछ नही,
एक विस्तृत भटकाव है
और
जमीन पर सबकुछ नश्वर है
जो मिला जो खोया सब मिट्टी है
तटस्थता का अधर
साधना ही लक्ष्य है।

.

.
सबको सबका देते हुए
हम अपने से दूर हो जाते हैं
इस दूरी को पाटते हुए
स्वयं की ओर लौटना
ही जीवन वृत्त का
अंतिम छोर है
जोड़ लिया तो चक्र पूर्ण हुआ
नही जोड़ पाए तो
वृत्तों की
अर्द्ध आवृत्तियाँ
बन कर रह जाता है आदमी
तड़पता...
बिखरता...
भटकता...
आदमी।

रविवार, 17 सितंबर 2023

मेरा बसंत

                   चित्र साभार इन्टरनेट
 



जानते हो मेरे मन की आरामगाह में

एक बेहद सुकून भरा कोना है

जिसमें एक बड़ी सी खिड़की है
बिना सलाखों वाली
और जिस पर लगा रखा है मैंने
एक झीना  आसमनी रंग का लेसदार परदा
टांकें उस पर पीली सरसों के छोटे-छोटे फूल
एक 'विन्डचाइम' भी झूला दिया है बाई तरफ
बैठती हूँ आकर थका मन और तन लिए खिड़की की चौखटे पर और करती हूँ प्रतीक्षा हवा के उस झोंके की
जिसमें भरे होते हैं तुम्हारे महकते एहसास
पाते ही तुम्हारा स्पर्श झनक उठता है 'विन्डचाइम'
बंद हो जाती हैं मेरी पलकें...
भर लेते हो आलिंगन में अपने
और मैं भर जाती हूं 'तुमसे' लबालब
तुम्हारी पदचाप होते हैं विन्डचाइम के स्वर
यूं ही जब शरारत सूझती है तो उतार कर रख देती हूं
उसे,,
और तुम दबेपांवों से मेरी कमर को कसते हुए
अपने पाश में
फुसफुसा देते हो मेरे कानों में महुआ
रोम-रोम बन जाता है मेरा 'विन्डचाइम'
कमरे के बाहर एक तख्ती टांग दी है
'मेरा बसंत'❤

कोई बात ना हो फिर भी


गीत


कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती  हो
मैं नज़रे उठा कर कहूं
तुम मुस्का के सुनते हो

खामोश किनारों पर
लहरें भी चुप सी हों
बन लहरों सी छू जाऊं
तुम तट से गीले रहो

कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती हो

कहने सुनने को अब
कुछ भी ना रहा बाकी
मैं आँचल सा सागर हूं
बन सूरज ढल जाओ

कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती हो

जब बूंदों ने छूकर
लहरों को तृप्त किया
मैं नीरव मौजे हूं
तुम इन पर लहराओ

कोई बात ना हो फिर भी
कोई बात निकलती हो
मैं नज़र उठा के कहूं
तुम मुस्का के सुनते रहो


नदी और गुलाब






नदी और गुलाब

--------------‐------

उसने एक गुलाब दिया

बंद पंखुड़ियों को

खोलते भँवर दिखाए

और कहा- ये नदी सा गुलाब है

जो तुम्हारे अंदर बहती है

करती है आमंत्रित इन भँवरों

में डूब जाने को,

रंगत सुर्ख लाल है इसकी

ग्रहण के बाद के चाँद सी..

अब नदी उछल रही है

पत्थरों पर लहरों की

अंगड़ाइयां चटखाती

किल्लोलती....

अपने मैदानों को भीगोती

अपने पहाड़ों पर रीझती

 

मैंने कहा-रुक जाओ! बस करो!

गुलाब के इन

भंवरों पर और उंगलियां मत फेरो।

इतना साध नही पाएगी नदी

झर जाएगीं पंखुड़ियां गुलाब की भी
 



 

सोमवार, 11 सितंबर 2023

बगावत


 

 बगावत

--------------

 अलग बहना चाहे

नदी की कोई एक लहर,

कोई बूँद छिटक कर सागर से

फिर से बन जाना चाहे बादल,

जिस डगर जाते हों

हवा के झोंके झूमते

कोई एक झोंका तोड़ कर खुद को

चुपचाप निकल जाए,

किसी ख़ामोश से

जंगल के झुरमुटों तरफ ...

कभी ऐसा होना सम्भव हो सके तो बताना मुझे भी,

मै भी एक टुकड़ा तोड़कर खुद से

उस नदी की लहर,

उस सागर की बूँद

और

उस हवा के बागी झोके संग

भेज देना चाहती हूँ।

बगावत की सुगबुगाहट को

कुचलने का अब जी नही करता।

मंगलवार, 5 सितंबर 2023

गुरु


                           चित्र साभार गूगल


गुरु बिना नहीं तर सके, तम सागर का छोर

कारे आखर जल उठे, उजियारा सब ओर।।


धर धीरज धन ज्ञान का, मिलती गुरु की छाँव

ज्यों पीपर के ठाँव में , बसे विहग के गाँव।।


ज्ञान मिले ना गुरु बिना, ज्ञान बिना ना ईश

सूने घट सा मन फिरे, बूँद बूँद की टीस।

लिली

सोमवार, 28 अगस्त 2023

अपराजिता


 

आसमानी चादर के चारों कोंने समेट कर

सूरज को बांध कर पोटली में

हवाओं ने समेट लिया है 

कल्पनाओं का असीम फैलाव

कैद हो गए हैं मन के 

मनमौजी पक्षी 

बन गया है वक्त किसी क्रूर बहेलिया सा।

मैं समझा रही हूँ आसमान की ओर 

बढ़ती अपराजिता की बेल को

ऊपर नही मिलेगी तुझे कोई पकड़।

एक नरम सी फुनगी मुस्कुरा कर कहती है-

किसी पकड़ की आस नही है मुझे

जीवन का छोटा सा आसमान 

मेरा उन्माद का विस्तार 

और जमीन की मजबूत पकड़ 

 है विस्तार की सीमा.. 

,

बंधन की उन्मुक्तता 

में ही खिलती है 

जीवन की अपराजिता 





मंगलवार, 22 अगस्त 2023

मेरा ही जलाया अग्नि-कुंड



                              (चित्राभार इंटरनेट)


ये मेरा ही जलाया अग्नि-कुंड है

भस्म होने दो मुझे

आहिस्ता-आहिस्ता...

क्या कहूँ?

किससे कहूँ?

क्या कोई समझ पाएगा?

 

अहेतुक मेरी ज्वाला

की धधकती आग में

अपनी कुंठित सोच की रोटियाँ पकाएगा..

इसलिए

छोड़ दो मुझे

और...जलने दो !

 

और घृत डालो

आक्षेपों का,

लपट दूर तक उठनी चाहिए...

वह चटपटाती सी एक

चिलकती ध्वनि,

मेरी लपटों से आनी चाहिए

हाँ,यह मेरा खुद का जलाया

अग्नि-कुंड है

धू...धूकर जलना चाहिए।

 

देखो इसके आस-पास

यज्ञ वेदी की दीवार मत बनाना,

वेदों की ऋचाओं के पाठ कर

पवित्रता का पुष्प मत चढ़ना,

दावानल सा दहकने दो,

हाँ यह मेरा जलाया

अग्नि-कुंड है

मुझे सब भस्म हो जाने तक

भड़कने दो...

 

इतना अवश्य करना,

मेरे गर्म भस्मावशेषों पर

कुछ छींटे अपने प्रीत जल के

छिड़क देना,

मेरी भस्म को अधिक देर तक

सुलगने मत देना...

 

एक चिटपिटाती छन्नाती आह के बाद

 मैं चिरशान्ति में लीन हो

जाऊँगीं,

खुद को जलाकर ही

अब मेरा आत्म मुस्कुराएगा

शायद यही मेरा सर्वश्रेष्ठ

प्रायश्चित कहलाएगा।

 

अब छोड़ दो मुझे,

जलने दो !