ना कहीं पहुँचना है
ना कहीं से वापस आना है
ना ही कुछ पाना है
ना ही जो है उसे खोना है
मुझे तो बस-
जिस जगह हूँ वहीं से
थोड़ा ऊपर उठ जाना है
ताकि खुद को और अच्छे से
समझा सकूं-
आसमान कुछ नही,
एक विस्तृत भटकाव है
और
जमीन पर सबकुछ नश्वर है
जो मिला जो खोया सब मिट्टी है
तटस्थता का अधर
साधना ही लक्ष्य है।
.
.
सबको सबका देते हुए
हम अपने से दूर हो जाते हैं
इस दूरी को पाटते हुए
स्वयं की ओर लौटना
ही जीवन वृत्त का
अंतिम छोर है
जोड़ लिया तो चक्र पूर्ण हुआ
नही जोड़ पाए तो
वृत्तों की
अर्द्ध आवृत्तियाँ
बन कर रह जाता है आदमी
तड़पता...
बिखरता...
भटकता...
आदमी।
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