रविवार, 28 मई 2017

एक मोती की कहानी,,,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

सागर की अनंत गहराई मे छिपा एक सीप,,और सीप मे मोती,,। अपने सुरक्षा कवच मे निश्चिंत सोया था। जब तक अपनी चमक और अपनी अमूल्यता से अन्जान था,,,,, वह मोती सुरक्षित था,,उसकी मौलिकता उसकी स्वाभाविकता अखण्डित थी। वह सागर के गर्भ में अपनी छोटी सी दुनिया में प्रसन्न और प्रकाशित था।
     अचानक एक सूनामी ने समुद्र के धरातल मे प्रचड़ हलचल उत्पन्न की समस्त अंतर जगत इस तुफान से बिखर गया । अमूल्य निधि छटक कर छितर गईं,,और वह अबोध मोती अपने सुरक्षा कवच से बिछड़ गया। तुफान थमने के बाद,,, जलधि-जगत में अनेको परिवर्तन। सीप के मोती के लिए यह सब कुछ अति विस्मयकारी,,अति आश्चर्य जनक,,कौतूहल पूर्ण । वह लहर के हर बहाव से खिसक कर अलग-अलग जगहों पर पहुँचने लगा। परिवर्तित पर्यावरण उस अबोध मोती के लिए रोमांचकारी था। कभी समुद्री जीवों द्वारा निगला गया,, कभी चबा कर उगला गया। कभी समुद्री चट्टानों से चोट खाया तो कभी समुद्री पादपों मे उलझ गया। नित नए अनुभवों का अर्जन करता रहा।
      फिर भी,, परिवेश उसका अपना था,, सीप की गोद मे तो नही था,,पर अपनी समुद्री ज़मीन पर तो था। स्वछन्द था,,उन्मुक्त था,,उच्श्रृंखल था,,कभी कभी चंचल भी था। पर अपने परिवेश मे स्वतंत्र था। कौतूहलता नित नए पाठ पढ़ाती थी। कभी चट्टानों की रगड़ चमक बढ़ाती थी ,,,,तो कभी काई मे गिर चमक धूमिल कर जाती थी।पर मोती अभी भी उन्मुक्त था। नित नए अनुभवों से आत्मविकास कर अपनी अमूल्यता मे वृद्धि कर रहा था। परन्तु स्वयं इस अमूल्यता से अनभिज्ञ था।
       उसका यह भोलापन,,उसकी यह उन्मुक्तता शायद अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। शायद उसे अब किसी नई विकास प्रक्रिया के प्रथम पायदान पर कदम रखना था। नियति द्वारा निर्धारित कोई संकेत था।
       एक दिन जलधि ब्रह्मांड में कुछ गोताखोरों का पदार्पण हुआ। वह जल जगत में छिपे अमूल्य खज़ाने को अपने पिटारों मे भरने लगे। उनकी नज़र से वह मोती बच ना सका। कुछ अलग सी चमक थी,,अलग सा आकर्षण था,,जो बरबस मोह गई गोताखोरों को। उन्होने हाथ बढ़ा मोती को उठा अपनी हथेली पर रख लिया। मोती अन्जान था,,उसकी नियति का यह एक नया पैगाम था। गोताखोर ने उसकी अमूल्यता को परख लिया और उसे अपनी विशेष पाॅकेट मे सहेज कर रख लिया। मोती अचानक उस अंधकार पाॅकेट जगत में आ सकपका गया,,,। जीवन में प्रथम बार अपनी अमूल्यता का बोध पा घबरा गया। परन्तु वह पड़ा रहा। अग्रिम परत खुलने तक वह आत्म मंथन मे लगा रहा।
    गोताखोर कुछ और ऐसे अमूल्य अबोध मोतियों और रत्नों को खोजते रहे,,और अपनी अलग-अलग विशिष्ट पाॅकेटों मे भरते रहे। समुद्रतल से बाहर आ वे अपनी खोज पर उत्सुक और संतुष्ट दीखे। हर अमूल्य खोज को बाहर निकाल परखने लगे। अपनी सफलता की खुशी आंखों मे लिए जश्न मनाते दिखे। वह मोती अभी भी विस्मृत था। अपने साथ हुए अचानक परिवर्तन से थोड़ा चिन्तित था।
        अपने परिचित परिवेश से बाहर आकर थोड़ा व्यथित था। उसके पूर्व परिवेश ने उसे बंधन मुक्तता मे जीना सिखाया था। उसको जीवन जीने का हर गुर सिखाया बस , मोती को उसकी अमूल्यता का बोध कभी नही कराया।
      गोताखोरों ने मोती को एक जौहरी को बेच दिया,, हाथ आई मोटी रकम ने गोताखोर के श्रम को उचित मान दिया,, वह बहुत प्रसन्न था। परन्तु आज मोती को पता चला की वह कितना अमूल्य था। उसकी असल जगह जल-जगत मे स्वच्छंद विहार करने मे नही,, किसी जौहरी के जवहरात जगत मे रहकर चमकने मे है।
     जौहरी ने मोती को अच्छे से पालिश किया,, उसकी कहीं कहीं बेढौल दिखने वाले आकार को घिस कर सुडौल बनाया,,,फिर उसके जैसे अन्य मोतियों के साथ उसे एक सूत मे पिरो कर एक खूबसूरत मुक्ताहार मे ढाल दिया। यह मुक्ताहार लाखों आभूषण प्रेमियों को अपनी ओर चुम्बक की तरह आकर्षित करने लगा। कुछ उसकी कीमत सुनकर बस देखकर खुश होगए। कुछ देखते ही उसको धारण करने को ललायित हो गए।
      होड़ लगी थी,,,,आज मोती को पता चला वह बहुमूल्य था। फिर एक दिन एक सक्षम धनाढ्य मुक्ता की माला को अपने साथ ले गया। घर जा कर माला धारण कर आइने में खुद को निहारने लगा। मुक्ताहार ने अपने नए स्वामी के रूप मे चार चांद लगा दिए। विशिष्ट अवसरों पर वह मुक्ताहार उनकी वेशभूषा की शान बन गया,, ।आयोजन की समाप्ति पर वह मुक्ताहार तिजोरी के अंधेरों मे गुम गया।
      अमूल्य होने के यह दुष्परिणाम थे या उचित स्थान ' मोती' अब यही निष्कर्ष की उधड़ बुन में लगा रहता है। कभी कभी अपनी पिछली ज़िन्दगी की उन्मुक्तता और चंचलता को याद कर बह लेता है।
    अब अपनी अमूल्यता का मूल्य चुका रहा है,,, बड़े बड़े समारोहों में शिक्षित और सभ्य लोगों के बीच अपने स्वामी की चमक-दमक को बढ़ा रहा है। लोग आकर्षित हो मुक्ताहार की प्रशंसा कर रहे हैं और स्वामी इतरा कर मुक्ताहार का मूल्य बता रहा है। अब मोती बस अपनी अमूल्यता का मूल्य चुका रहा है!!!!
        मोती को जलधि-जगत के स्वछदं वातावरण से,, क्रमशः गोताखोरों की विशेष पाॅकेट, फिर जौहरी के जवाहरातखाने से धनाड्य की तिजोरी और शानदार महफिलों तक पहुँचाने वाली मेरी इस कल्पनाशील रचना ने मुझको उहापोह मे डाल दिया है
अन्त लिखने के कुछ समय पश्चात मै फिर से यह एक पैरा जोड़ने बैठ गई,,,,,,। क्या मोती जलधि-जगत में अपनी अमूल्यता से अबोध,, स्वतंत्र और उच्श्रृंखलता के उन्माद मे खुश था?,,,,, या के गोताखोरों द्वारा जौहरी को सौंपे जाने एवम् जौहरी द्वारा बहुमूल्यता का सही आकलन पाने के पश्चात खुश हुआ,,,,,? इसका निर्णय किसपर छोड़ा जाय,,,? यदि प्रिय पाठकगण कुछ योगदान दें तो शायद मै किसी निष्कर्ष पर पहुँचू,,, मोती को बताना है,,, वह मुझसे पूछ रहा है क्योकि मैने ही उसका व्यक्तित्व यहाँ तक विकसित किया और उसे भी प्रश्नों की तिजोरी में बंद कर दिया है।

गुरुवार, 25 मई 2017

अभिव्यक्तियां आज बौराई हैं,,,

                              (चित्र इन्टरनेट से)

आज अभिव्यक्तियां बौराई सी हैं,,,,।एक माला के मोती सी,,,, खींच कर डोर टूट गई,,,मोती जैसे बंधनमुक्त हो ऊपर से नीचे गिर कर बिखर रहे हैं। हर एक मोती मे एक अलग उछाल है,,,अलग आवाज़ आती है,,जब वह धरातल को छूता है। छटक कर दूर,,दूर भाग रही हैं,,। मैं उन्हे समेटने के प्रयास मे,,,उनके पीछे भाग रही हूँ ,, बैठ रही हूँ,,झुक रही हूँ,,सोफे,,पलंग,,मेंज़-कुर्सियों के नीचे हाथ बढ़ा कर पकड़ने की कोशिश कर रही हूँ। अभिव्यक्तियां बंधन मुक्त मोती सी उछल रही हैं,, छिप रही हैं,,,भाग रही हैं,,और मै इन बौराई मोतियों संग इनके पीछे-पीछे भाग रही हूँ, इनके संग क्रीड़ा कर रही हूँ।
   अभिव्यक्तियां आज बौराई हैं। एक धुन मे डूबी उधड़ रही हैं,,,,। अब तक किसी पुराने स्वेटर मे गुथे ऊन सी किसी बंधन मे लाचार सी संदूक के नीचे दबी हुई,,,,,। आज निकाल लिया उसे बाहर,,सोचा आज़ाद कर दूँ ऊन को ,,,। सिरे पर गांठ थोड़ी कसी हुई सी थी,,। मशक्कत लगी हल्की सी,,,पर खोल लिया मैने,,,अभिव्यक्तियां मेरी उंगलियों के स्पर्श को पाकर जैसे भांप गई थी अपनी आज़ादी पैगाम,,,। वो बेचैन हो उठीं,,,उधड़ने को बेताब हो उठीं,,,। और मैने भांप ली थी उनकी उत्कंठा उन्मुक्त होने की,,, फंदों के छल्लों से,,,। बहुत कसाव सह रही थी मेरी ऊन रूपी अभिव्यक्तियां ,,।लगता था कुछ दिन और यही कसाव रहा तो ऊन खुद ही टूट जाता।मैने भी इस दबाव और कसाव को हौले हौले मुक्ति प्रदान करने की ठानी,,, ऊन के सिरे को धीरे-धीरे खींचना शुरू किया,,'फंदों' के छल्लों से स्वतंत्र होते ऊन,,,,बंधनों से स्वतंत्र होती अभिव्यक्तियां,,,,,,,,,,,,। एक सुर  हर 'उधेड़' मे था,,,,जैसे दमघोटूँ वातावरण से निकलने के बाद,,अभिव्यक्तियों ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ा हो,,,,,आहहहहहहहहहहहहहह!!!!!
मेरे हाथों की उंगलियों ने ऊन को धीरे-धीरे तो कभी जल्दी-जल्दी फंदों के छल्लों से मुक्त करते हुए एक अव्यक्त सुख की अनुभूति प्राप्त की।
     आज अभिव्यक्तियां बौराई हैं,,,,जैसे पिंजरे मे बंद पंक्षी। पिंजरा का रूख खुले आसमान की तरफ कर उसका मालिक नियमित रूप से बस दाना पानी डाल जाता है,,,। बेचारा पक्षीं विस्तृत आसमान को देख अपनी विवशता पर विषाद करता,,,,बिना श्रम के मिल रहे दाने-पानी को बेमन से खाता,,बस पड़ा रहता है,,,। पर यह अचानक क्या हुआ,,,,मालिक भी मेरी अभिव्यक्तियों सा बौरा गया क्या?????!!!!!! उसने धीरे से पिंजरे का फाटक खोल दिया,,,,, अरे क्या हुआ इसे ,,,!!!!! हतप्रभ सा पंछी,,,! कभी पिंजरे के खुले फाटक को देखता,,,तो कभी ऊपर फैले फ़लक के फैलाव को,,,। पर अब पक्षी भी बौरा गया,,,,,,,, आव देखा ना ताव,,,,ज़ोर से पंख फड़फड़ाए और पिंजरे से बाहर निकल सामने लगे बिजली के तार पर जा बैठा,,,। अचानक मिली बौराई उन्मुक्तता के आवेश को शायद थोड़ा हज़म करने के लिए ,,,। फिर जो उसने उड़ान भरी ,,,, वो नज़रों से ओझल हो गया,,,,। अभिव्यक्तियों सा बौरा गया,,,वह उड़ गया,,,और उड़ता रहा।
       अभिव्यक्तियां आज बौराई सी हैं,,,,। मेरे घूँघरूओं की तरह,,,।मन एक निश्चित ताल का 'पढन्त' कर रहा है, पर घूँघरू मनमानी कर रहे हैं,,,मन को अपनी झंकार से भटका रहे हैं,,,। पैरों को बरबस अपनी मनोनकूल ध्वनि निकलवाने के लिए धरती पर थाप दिलवा रहे हैं,,,,। झनक से समस्त इन्द्रियां आकर्षित हो रही हैं,,,और ये 'मनचले' अपनी शैतानी पर अमादा हैं,,, कभी छन्नऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ तो कभी झन्नऽऽ,झन्नऽऽऽऽऽऽऽऽ ,,,छनऽ छन,,छनछनछनछननननन् ,,,,,,आज सब बौराए हैं। ताल के 'पढ़न्त' को दर किनार पटक,,, मेरे घूँघरू की अभिव्यक्तियां भी पूरी तरह बौरा चुकी हैं,,,,। अपनी ही धुन और ताल पर सब नचा रही हैं,,,,,।
    अभिव्यक्तियां आज बौराई हैं,,,कभी माला के मोती सी धागे से खुद को निकालकर चंचल हो बिखर रही हैं। तो कभी संदूक के नीचे दबे स्वेटर के ऊन सी,,,स्वयं को फंदो के छल्लों मुक्त करा दीर्घ निःश्वास के साथ उन्मुक्त होने आनंद ले रही हैं। पिंजरे में बंद पंक्षी को आज़ाद कर फ़लक के फैलाव सी असीम हो उड़न भर रही हैं। तो कभी मेरे घूँघरूओं सी मतवारी हो छनऽऽछना कर नाच उठी हैं,,। मैने भी इनके संग कुछ पल इनकी बौराई दुनिया मे खुद को उन्मुक्त छोड़ दिया है। बौरायापन मेरे शब्दों मे नाच उठा है,,, भावों मे छनछनाऽऽऽ उठा है।

बुधवार, 24 मई 2017

मुझे विषय मत बनाइए,,,

(चित्र आभार इन्टरनेट को)

बड़ी करिश्माई चीज़ है "औरत"
जिसे देखिए वह कहता है
जिसे देखिए वह लिखता है
हर कोई समझने की कोशिश करता
कोई उलझी कहता है
कोई सुलझी कहता है
कोई आंसू कहता है
कोई मोती कहता है
कोई अबला बनाता है
कोई शक्ति बनाता है
कहीं भोग्या
कहीं त्याज्या
कोई अस्तित्व को बचाए
कोई व्यक्तित्व को मिटाए
कहीं शेष
कहीं अवशेष
'औरत' विषय अशेष,,,,
बस एक विषय बन के खड़ी
नित नई अभिव्यक्ति
मुँह उठाए बढ़ी
छोड़ दो ना उसे
अपने हाल पर,,,,
इन्सान समझो उसे
क्यों कसते हो
बस कलम-कागज़ की
 विसात पर
सम्मान की गुहार नही
उसे सम्मान चाहिए
अपने वजूद का
उचित स्थान चाहिए
उसे सहानुभूति की
पुचकार नही
बस अपना
आत्मसम्मान चाहिए
निवेदन मेरा यह आपसे
इन्सान मै भी हूँ मुझे
विषय मत बनाइए
मेरे स्त्रैण को
मेरा मानवीय गुण समझिए
इसे प्रतियोगताओं,मोर्चों
और दिवस की चर्चा मत बनाइए
उसे इंसान रहने दीजिए
विषय मत बनाइए,,,,,,,,,

सोमवार, 22 मई 2017

फिर एक बार प्यार लिखूँ,,,,,

                          (चित्र इन्टरनेट से)

एक बार फिर इज़हार-ए-प्यार लिखूँ
मौसम-ए-मस्त में दिल-ए-बेकरार लिखूँ

छूकर गुज़रती जाए एक लहर रेत को
लहरते फिसलते गीले आशआर लिखूँ

ठंडी हवाओं मे तुम्हारे एहसासों की नमी
भींगोकर गुज़रती वह  नर्म बहार लिखूँ

चमकती आंखों मे तेरी कहानियों की झिलमिल
कितनी अनकही अनछुई रवानी-ए-यार लिखूँ

उनके आने से सुबह जेठ की हो गई सुहानी
कागज़ पर बदलते मौसम-ए-इज़हार लिखूँ

तपती धूप भी भीग रही प्यार की बरसात मे
मै इश्क मे तपते, भीगते दिले गुबार लिखूँ

दूरियां ना तोड़ पाईं हौसला-ए-जूनून
तेरी जूस्तजू से फासलों से तकरार लिखूँ

छलकती आंखों मे गुनगुनाए तस्वीर तेरी
मै तेरे प्यार का उमड़ता तूफां-ए-करार लिखूँ

बहक कर लिखूँ , के सम्भलकर लिखूँ
अब तू ही बता कैसे तुझे मेरे यार लिखूँ


          

रविवार, 7 मई 2017

मै हूँ या तुम,,,,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

             
                         तुममे खोकर
                         तुमको पाने की चाहत
                         तुमको पाकर
                         तुममे खोने की चाहत
                         चाहतों का हेर फेर
                         अब समझ नही आता,,,

                          तुमसे मिलकर
                          बिखरने का अरमान
                          बाहों मे तेरी
                          सिमटने का अरमान
                          अरमानों का पैंतरा
                          अब समझ नही आता,,,,

                           तुममे समाकर
                           बहकने की आदत
                           यादों मे खोकर
                           महकने की आदत
                           आदतों का मज़मा
                           अब समझ नही आता,,,,,

                           तुम्हारे एहसासों
                           की मद्धम् सी रूनझुन
                           खनकती सी सांसें
                           प्यारी सी झुनमुन
                           रुनझुन की झुनमुन
                           अब समझ नही आता,,,

                           तुम्ही मेरी हसरत
                           ख़्याबों मे तुम
                           जागने मे तुम
                           मेरे सोने मे तुम
                           मै हूँ या तुम
                          अब समझ नही आता,,,

मंगलवार, 2 मई 2017

सुरक्षा का मांझा,,,,नियन्त्रित उड़ान

                         (चित्र इन्टरनेट से)

आज आसमान देखने मे डर लग रहा है। इसका फैलाव भयावह है,,,पता नही उड़ते-उड़ते किस छोर पर पहुँच जाऊँ,,,???? वैसे तो इसका कोई ओर-छोर नही,,,व्यक्ति की उन्मुक्तशीलता की क्षमता है वह कितना उड़ सकता है या कितनी दूर तक जा सकता है।आज ज़मीन पर ही दृष्टि गड़ा रखी है।धूल-मिट्टी,कंकड़-पत्थर,गन्दगी जैसी भी है ,,पैर यथार्थ पर खड़े हैं, ठोकर खा रहे हैं और सम्भल रहे हैं।
     आंखे देख रही हैं, कान सुन रहे हैं,,,मन बेकाबू नही हो पाता,,सड़कों को पार करना है,,चौराहों से गुजरना है, गढ्ढों को लांघना है, कीचड़ से बचना है। मतलब कि- व्यक्ति को चौकन्ना रहना है। एक प्राकृतिक ,स्वाभाविक बंधन मे रहकर खुद को आगे बढ़ाना है,,,उड़ना नही है,,,,। इसके विपरीत उन्मुक्त आसमान में बिना किसी बाधा के,, आंख,नाक,कान सबको बंद कर चंचल मन को सर्वाधिकार देकर निर्बाध रूप से उड़ने की अनुमति देना,,,,,,,,परिणाम घातक हो सकते हैं!!!!!!!
   अतृप्त इच्छाओं की 'वाष्पित जल-बिन्दुएं' अपनी ओर आकर्षित करने लगती हैं,,,। हवाओं के वेग हमें बहते रहने को उत्सुक करने लगता हैं,,क्योंकी यहाँ कोई बंधन नही,,कोई ठोकर नही,,,,बस,,फैलाव है ,,,अतिविस्तृत,,अशेष।धरातल से जुड़े कर्तव्यों से विमुख कर देता है,,,दैनिक दिनचर्या को क्षत-विक्षत् कर देता है। स्वप्निल संसार का आकर्षण ईंट ,बालू से बने यथार्थ को खंडहर बना देता है।
       ओर-छोर विहीन आकाश मे विचरते हुए,,,क्षमताशीलता के पस्त हो जाने पर,,,जो कि स्वाभाविक है, पस्त होना,,,,,जब अपने स्वप्न से जागते हैं,,। उनीदीं आंखों मे हल्की नींद लिए पैरों से टटोलते हुए,,,,तीव्रगति से नींचे की ओर गिरते हैं,,,। 'पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण',,, या यथार्थ की पुकार,,जो भी संज्ञा से परिभाषित किया जाए,, एक ही है। उल्कापात से हम दिशाविहीन,, नियंत्रणविहीन,,पतन की तरफ अग्रसर,,,,,,,।
      एक बंधन,,एक नियंत्रण अनिवार्य है।फिर चाहे धरातल पर विचरण करो या आसमान में उड़ो। अपनी डोर किसी एक आत्मीय परिजन के हाथ समर्पित कर दो। जो आपको उड़ते हुए देख आनंदित भी हों,,और अशेष,विस्तृत,बधारहित परिवेश मे पहुँच अनियन्त्रित होते देख चिंतित भी।
       कल्पनाओं के पंख चिरस्थाई नही होते,,,काल्पनिक होते हैं। पक्षियों के पर वास्तविक और ईश्वर प्रदत्त होते हैं। हम पंक्षी नही बन सकते,,मात्र कल्पना कर सकते हैं। ईश्वर प्रदत्त पंख पंक्षियों पर एक प्राकृतिक नियंत्रण है,,,। वह भी एक आवश्यक उड़ान भर किसी पेड़ की शाख या किसी छत की मुंडेर पर बैठ जाते हैं। उनका कर्मस्थल असीमित आकाश होता है,,वह अभ्यस्त होते हैं होते हैं इस अशेषता के। परन्तु मनुष्य बुद्धिजीव प्राणी है,,, अतः उसे जो प्राप्त है उसका भोग करता है और जो अप्राप्त है उसकी कल्पना कर कृत्रिम रूप से अविष्कृत कर उसका रस लेना चाहता है।इस सत्य से परे कि-कृत्रिमता प्राकृतिकता का मुकाबला नही कर सकती,,क्षणिक होती है।
   कश्मकश का अन्त हो चुका है,,,सौभाग्यशाली होते हैं वे जिनकी डोर किसी आत्मीय परिजन के हाथ बड़ी मजबूती से पकड़ी गई होती है। वे पंतग की तरह उड़ने देते हैं,,,अपनी सुरक्षा का मांझा बहुत मजबूत रखते  हैं,,,,आसपास से होने वाले प्रहार से इसे काट पाना इतना सहज नही होता।
  मेरा आसमान भयमुक्त,,,,,, फिर से एक नई उड़ान भरने को तैयार,,,,,,,,,,