शनिवार, 29 दिसंबर 2018

तुम अब जिस्म से लगते हो,,,,,



अब तुम
जिस्म से लगने लगे हो,,
नही ,,,नही,,
इसे वासना से ना लपेटना,,
'जिस्म' केवल शारीरिक भूख
मिटाने का साधन नही,,,
वरन,,एक स्तम्भ भी होता है
जिसपर ना जाने कितनी ज़िन्दगियां
अपनी तमाम दुनियावी ज़रूरतों की पूर्णता
के लिए,,,कातर आंखों,,
फैलाए हाथ,,,
और
 मन भावनाओं के बिखराव
को समेटने की आस लगाए
देखते हैं,,,,
कभी-कभी मैं भी
कामना कर जाती हूं,,,,,
तुम्हारे ऐसे ही 'जिस्म-स्तम्भ' की,,
पर वह तो सम्भव नही,,,
वो तो हवाओं में बने,,,
बादलों से तैरते,,
कल्पना की परिकल्पना
से हमारे आत्मिक संबन्ध हैं,,,
उस 'व्योमी-समाज' में,,
इहलोकी नियम लागू नही होते,,,
लगता है,,सृष्टिकार ने
दो आंखें किसी ब्रश सी
और आकाश का विशाल कैनवास
दे दिया है,,,
कमरे की खिड़कियों का
फ्रेम जड़कर,,,
अपूरित सपनों के मनचाहे रंग
भरते रहो,,,
'आत्मअंश' की अलौकिक 'संकल्पना'
को चित्रित करते रहो,,,,
यहाँ 'जिस्म' नही बनाए जाते,,
यहाँ 'रूहें' बनाई जाती हैं,,
जन्मजन्मान्तर से भटकती हुई,,
कभी रोती तो ,,,
कभी मुस्कुराती हुईं,,,
ये नितांत अकेली,,,
एक आस लिए तड़पती ,,,,,
अगले जन्म हम मिलेगें,,,,,
हम दुनियावी जिस्मों में
ढलेगें,,,,
हम आसमानों में नही
ज़मीन से जुड़ेगें,,,

तो समझे क्या कुछ,,,???
पता नही मैने कहाँ से,,
क्या कहने को,,,?
क्या शुरू किया था,,,?
खुद ही भटक गई
इन 'आत्मअंशी-संकल्पनाओं'
के 'छलावे'में,,,
छलावे में नही भुलावे में,,
शायद किसी को बुरा लग जाए 'छलावा' शब्द,,,,
अच्छा 'अमृता' मिल चुकी होंगीं क्या????
'क्षितिज के उस पार,',???
नही बस एक कौतूहल जागा,,
तो लिख दिया,,
आदत हो गई हर मन की बात
लिख देनी की,,,
हाँ तो मैं कह रही थी,,,
तुम जिस्म से लगते हो,,,,,आजकल,,
'लगने' का क्या है,,,हर दिन कुछ
नया ही 'लगता' है,,,
उलझा रही हूं शायद ,,
इसलिए गुत्थी की डोर
यहीं तोड़ देती हूं,,,
तुम स्तम्भ बनों
सशक्त वाला,,,
किसी विशेष का ना सही,,
कइयों की दुनियावी ज़रूरतें पूरी करो,,,
यही धर्म कहता है,,
यही कर्म कहता है,,
यही जीवन कहता है,,,😊
लिली

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

मोनोलाॅग,,,,,,,एक स्त्री का खुद से

सुबह के नौ बज चुके हैं,,ड्राइंगरूम में बैठी संजना इस समय अकेली होती है। बच्चे स्कूल जा चुके हैं पति ऑफ़िस। पूरी तरह से एकान्त ।
    रोज़ इस समय मोबाइल पर फेसबुक या व्हटसऐप पर वह सक्रिय रहती है। पर कल रात दोनो मोबाइल एप्लिकेशन्स् उसने डीलीट कर दीं । ऊब चुकी थी दिखावटी ढकोसलों से। बनावटी रिश्ते, एक बेबुनियादी होड़ हर तरफ़।
टेबल पर एक पत्रिका उठाकर पढने लगी।
एक कहानी में पात्रों के संवाद में एक जुमले पर निगाह अटक गई। उसने पत्रिका को वापस टेबल पर रख दिया । बस वही बात बार-बार दिमाग में चक्कर काट रही किसी धूल भरे बवंडर के की भांति,,,,,, "जर,जोरू,और ज़मीन इस संसार में हर फसाद का मूल",,,,
ना जाने क्यों आज यह जुमला उसे भीतर तक खोद रहा,,,,,!!!
        उसकी आँखें तमाम अनबुझे सवाल लिए सोफ़े को देखती हैं,,,तो कभी डाइनिंग टेबल को,,,कभी फ्रिज को देखती हैं,,,तो कभी सामने रखे दीवान को,,,।
      ये दीवान ना जाने कितने सालों से उसी एक जगह रखा हुआ है,,,,रोज़ उस पर लगा कवर,कुशन आदि झाड़ कर लगा दिए जाते हैं। आज गौर से देखा तो दिखा कि सनमाइका के एक कोने पर किसी चीज़ के धब्बे बड़े प्रकट रूप से दिखाई पड़ रहे,,,उसको लगा जैसे ये धब्बे उसके भीतर की कुंठा,पीड़ा जो बरसो दिल में दबी थी,,असह्य हो बाहर उजागर हो गई हो।
       संजना से जैसे वो दीवान कह रहा हो, ,,, क्या मैने कभी अपने वजूद की दावेदारी को लेकर कोई शिकायत की???? कितने सालों से एक ही जगह पड़ा हूं,,,।
      अचानक लगा जैसे किचन के पास ही रखा फ़्रिज एक हल्की सी हँसी के साथ कुछ कहने के लिए गला साफ़ करते हुए संजना से मुख़ातिव हुआ,,,,,
' याद है तुम्हारे सास-ससुर का बरसों पुराना 180 लीटर वाला केल्विनेटर  फ्रिज जब खराब हो गया था,,?? तुमने जैसे तैसे उससे ,अपने इलेक्ट्रीशियन महेन्द्र को बिना किसी दाम लिए  देकर निजात पा ली थी,,!!"
  ताकि तुम अपनी पसंद का नए चलन का नया फ़्रिज खरीद सको,,, तब इतने सालों तुम्हारे परिवार की खिदमत् में लगे रहे उस खराब पुराने फ्रिज ने तुमसे कोई प्रश्न किया,???? "
संजना ने बिना किसी रोध-प्रतिरोध के- सिर हिला ते हुए एक शब्द में जवाब दे दिया- "नही"।
      पर अचानक उसे लगा कि उसके पास एक वाजिब जवाब है,,;और उसे वह रखना चाहिए ,,, भूत के गलियारे में जाते हुए ज़मीन की तरफ़ देखते हुए वह बोल पड़ी -" पर तब वो खराब हो चुका था,,,,,।
 कितनी बार उसको ठीक कराती???
जितने पैसे उसको रिपेयर करवाने में लगे,,,,उतने में एक नया फ़्रिज आ जाता है"।
 "एक सामान था",,,,उसकी उपयोगिता अवधि उतनी ही थी,,,,जो तब पूरी हो गई थी,,,दे दिया।
"और फ़िर कबाड़ में थोड़े फ़ेका,,!!
महेन्द्र को दे दिया,,,,वो उसको ठीक-ठाक कर के कुछ और दिन इस्तेमाल कर लेगा।"
    कहते हुए उसकी नज़रे फ़्रिज से जा मिली,,,,और वो बस एक बड़ी सी मुस्कान लिए उसे देख रहा था,,, मानों कह रहा हो,,,,जिस वैचारिक बवंडर में तुम चक्कर खा रही हो,,,उसके हर प्रश्न-वलय का जवाब तो तुम जानती हो,,,,फिर क्यों अनजान बनी चक्रवाती थपेड़ खाती रहती हो?" खैर उसने इस मौन वक्तव्य संप्रेषण के अलावा कुछ और नही कहा।
       संजना कुछ देर शून्य दृष्टि से अपने घर के हर एक सामान को देखती रही,,,,सब मूक,जड़, और जिनका अस्तित्व बस उतना ही था जब तक उनकी उपयोगिता उसके घर में थी,,, अपनी जगह निर्जीव से गड़े हुए से दिखे।
      उथल-पुथल का तूफ़ान लिए वो उठी । अपनी दैनिक दिनचर्या के कामों को निबटाने लगी। उसे समझ नही आ रहा था,,,,
क्या वह भी एक फ़्रिज थी???
क्या वह भी एक सोफ़ा या दीवान थी,,,????
जन्म लेने से लेकर 23 साल की युवावस्था प्राप्त करने तक जैसे उसे तैयार किया जा रहा था,,,किसी वर्कशाॅप में????
उसकी डिज़ाइन,,रंग,उसकी मशीनरी सब ठीक तरीके से बना कर उसे आकर्षक पैकिंग में लपेट कर,,,नाम,'मैन्यूफ़ैक्चरिंग डेट',,,आदि,आदि आवश्यक जानकारियों समेत,,,, "हैंडिल विद केयर" की पंक्तियां  लिख दी गईं थीं।
    ऐसा लगता था मानो कारखाने के कारीगरों का सारा भावनात्मक जुड़ाव इन 'केयरिंग' पंक्तियों में परिलक्षित हो।
  फिर क्या,,,,कोई ज़रूरतमंद उपभोगता उसे अपनी ज़रूरत पूर्ति के लिए ,,,,अपने घर ले आया।
     उसे भी इन तमाम निर्जीव, जड़, साजो सामान के जैसे कोई तकलीफ़ ना होती,,,यदि वह अपने वजूद को तलाशने के लिए, अपनी खुशी तलाशने के लिए, उपभोगताओं के जैसे खुद को भी सृष्टि की तमाम लौकिक-अलौकिक  सौन्दर्य भोग करने के लिए उपभोक्ता बनने की बेवकूफ़ी ना करती।
     वह भूल गई थी इस सृष्टि के कारखाने में उसका सृजन मात्र 'भोग' करने के लिए हुआ है,,,वह मात्र एक भोग्या है।   जिसे यह पुरूष प्रधान समाज बस अपने दंभ और पौरूष प्रदर्शन के लिए करता है।  इसलिए ही शायद ये जुमला बना,,,
जर,जोरू,और जमीन,,,,,,,, "जर जोरू,पुरूष और जमीन " नही बनाया गया,,,,,,,,,

 



रविवार, 9 दिसंबर 2018

विदाई गीत

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

बाबुल की सोनचिरैय्या
चली बगिया को छोड़ चली
यादे बचपन की महकी पुरवैय्या
दुल्हन बन पिया घर चली

बाबुल की सोनचिरैय्या,,,,

सीख अम्मा की भूल ना जाना
घर पीहर का उनसे सजाना
मंदिर सी पावन ठहर हो
तेरा अंगना हो सुख का ठिकाना

दे दुआएं हम ,,ओ नाज़ों पली!
दुल्हन बन पिया घर चली

बाबुल की सोनचिरैय्या,,,,

बेटी घर का है चंचल तराना
बन बहू अब है रिश्ते निभाना
मान सबका तू रखना जतन से
संग मिलजुल के सुख-दुख उठाना

दे दुआएं हम,,,,ओ जुही कली !
दुल्हन बन पिया घर चली

बाबुल की सोनचिरैय्या,,,,,,

भाई बहना की याद ना आए
ननद देवर में जिया रम जाए
भूले सखियों की चटख ठिठोली
मिले सजना की बाहें हिडोलीं

दे दुआएं हम,,, ओ बन्नो भली !!
दुल्हन बन पिया घर चली,,

बाबुल की सोनचिरैय्या,,,,

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

साड़ी और साजन

#साड़ी_और_साजन

बना के साड़ी
तुम्हे लपेटूं अपने तन पर,,
हर घुमाव,
पर बनाऊं तुम्हारा पड़ाव,,
उभार पर बिठाऊँ
बड़े जतन से,,
हलचले अपने दिल की,,
छुपा लूं
करीने से,,आँचल तले ढांप कर,,
तुम्हारी लहर से फहरता हो
मेरे रूप श्रृंगार का परचम,,
पर,,,,,,,,,,,
सुनो!!!!!!!!!!🤨
,
,
जो तुम बहके ,,
पाकर मेरे रूप की मस्तियाँ,,,
,,,,और,,,
उन्माद की हवाओं
संग लगे उड़ने आँचल सम,,
एक कोन को पकड़,,,
खींच लूगीं,,,🤨😐
आँखें दिखाकर,,😐
और खोंस लूगीं,,
कमर पे,,
बेरहमी से🤣🤣🤣🤣
फिर ना सुनूगीं कोई
चिरौरी,,,
पड़े रहना दाँतों तले दबे
पान की गिलौरी😀😀

लिली😀😀😀

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

माँ

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

।।1।।

गीले तौलिए को
लाख समझाने के
बावजूद बिस्तर पर
रख जाते हैं,,,
किताबों के ढ़ेर
बेतरबीबी से यहाँ वहाँ
छितर जाते हैं,,,
बाहर से आकर कपड़ों
को कभी फर्श कभी
कुर्सियों,सोफों पर कैसे
भी पटक,बड़ी बेफ्रिकी
से टी वी के सामने
बैठ जाते हैं,,,,

जानते हैं ये 'माँ' है ना,,!
थोड़ा चिल्लाएगी,,
थोड़ा खुद में ही
भन्नाएगी,,,,,,
"अगली बार नही करूँगी,
सब बाहर सड़क पर फेंक दूँगीं" ,!
जैसी अर्थहीन चेतावनियाँ
देकर हर बार सब सजाकर
रखती जाएगी,,

तुम्हे छुट्टियों का इन्तेज़ार
रहता है,,,,,
"आज क्या अच्छा
बनाओगी माँ"? का प्रश्न
रसोई के बाहर हर रोज़
खड़ा होता है,,,,
पर माँ के हिस्से में कभी
कोई अवकाश या इतवार
कहाँ होता है,,?

थककर इन रोज़मर्रा की
आपाधापी से,,
मशीन सी चलती दिमागी,
और दिली कार्यवाही से
कितनी बार ऐलान करती है,
"मै जारही हूँ,कहीं तुम सब से
दूर,,उफ्फफ मुझे भी चाहिए
कुछ पल का सुकून",,!!
पर क्या 'माँ' कभी ऐसा
कर पाती है,,,???

      ।।2।।

महसूस किया मैने 'माँ' बनने
और अपनी 'माँ' को खोने
के बाद,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
शब्दों में नही बांध पा रही
मैं अपने एहसास,,,
पता नही क्यों यह दृश्य
मस्तिष्क पटल पर सहज
नही लगता,,,
'माँ' कभी बिमार भी होती है,,?
'माँ' कभी आराम भी करती है,?
यह प्रश्न सदैव अटपटा लगता,,!
वो इतनी गम्भीर बिमारी में भी
सब करती गई,,
चली जाएगी कुछ समय बाद
यह बोध पा,भविष्य तक के लिए
कितनी अलमारियां सहेजती गई,,
मैने कभी उसको बैठे नही देखा,
बैठकर भी शायद बनाती रही वो
अपने कर्तव्यों की रूप रेखा,,

जानती हूँ मैं उपर जाकर भी
वह एकजगह नही बैठी होगी,
वहाँ जा कर भी कुछ अपने
बच्चों के लिए आशीष स्वरूप
कर ही रही होगी,,!

आज भी मन अवचेतना
में उसको पाता है,,
कितनी बार उसके फोन
के इन्तज़ार में भ्रमित
हो जाता है,,,
वह रास्ता जिनपर
हर शाम नियमानुसार
दौड़ती थी स्कूटर,,
वहाँ फिर से हैंडल घुमा
देने को हाथ कसमसाता है,,

उसकी वह फटकार
जो उसके रहते बड़ी
चुभती थी,,
अक्सर वह सुनने को
कान ललच जाता है,,,!

'माँ' कोई शरीर नही,,,
'माँ' भावनाओं का संबल है
वह एक अदृश्य चेतना,जो
भरता आत्मबल है,,,,
नही समेट सकती मैं
उसे शब्दों में,,,
कुछ अंश खुद में पा सकूँ
यही प्रार्थना प्रतिपल है,,।

लिली 😊

सोमवार, 12 नवंबर 2018

बर्थ डे कार्ड

                          (चित्राभार इंटरनेट)

बहुत रात तक जाग कर कैनवास पर कुछ रंगता रहा,,,ब्रश के स्ट्रोक रवि की सोच को संचालित कर रहे थे। हाथों,पर ब्रश की पकड़ ,अधिक प्रभावी थी। आंखों की पुतलियां ब्रश के क्रियाकलाप अवाक् हो कर देखती थीं बस। माथे की पेशानी पर कई बल थे। शायद वे भी समझ नही पा रही थीं आज रवि के मन का कौन सा शान्त निष्क्रिय पड़ा ज्वालामुखी अचानक फट पड़ा था और जिसका लावा उसके मन के धरातल से बहता हुआ सीधा कैनवास पर बिखरता जा रहा था!!!
        भोर के चार बज चुके थे । एक गहरी सांस लेकर रवि ने कलर प्लेट और ब्रश कैनवास बोर्ड के पास रखी टेबल पर रखा और सामने रखे काउच पर अपने शरीर को पटक दिया,,,और कब रंगों की लहरों पर मन के तूफ़ान उड़ेलता ,नीद की आगोश में चला गया उसे पता ही ना चला।
         निशा की यादें जब उसको बेचैन कर देतीं हैं, तड़प का सैलाब उसके पूरे जिस्म को तोड़ने लगता है तब अक्सर रवि अपने अंदर के तलातुम को कैनवास पर उतार देता है।
     निशा,,,रवि के बचपन का प्यार । नर्सरी से एकसाथ पढ़ते, एकसाथ खेलते, झगड़ते  निशा और रवि कब एक दूसरे के करीब आ गए वे खुद भी नही जान पाए।
     अक्सर निशा टिफ़िन में रवि के लिए माँ के हाथ का बना आम का खट्मिट्ठा मुरब्बा ज्यादा करके ले आती क्योंकि रवि को वो बहुत पसंद था,, और अपना टिफ़िन उसको पकड़ा कर उसको मज़े से खाते देखना उसको बहुत अच्छा लगता था।
       रवि हमेशा घर जाकर दोस्तों के संग खेलने लग जाता और अपना होमवर्क करना भूल जाता। सुबह स्कूल आकर निशा की काॅपी से देखकर जल्दी-जल्दी गंदी हैंडराइटिंग में अपना काम पूरा करता। काम में गंदगी देखकर टीचर से मार भी खानी पड़ती।
      स्केल रवि के हाथ में पड़ती और आँसू निशा के निकलते। पर अब तो ये रवि की आदत में शुमार हो चुका था। कभी-कभी तो वो लिखने का काम भी निशा पर छोड़ खुद  अपनी ड्राइंग काॅपी में निशा का पोट्रेट बनाने लग जाता,और जान बूझ कर उटपटांग चेहरे बना कर निशा को चिढ़ता ।
     निशा छुट्टी के बाद रवि के हाथों को चूमते हुए अक्सर रो पड़ती और एक ही बात कहती,,,
"तुम अपना काम कर क्यों नही लेते रवि?"
इतनी लापरवाही अच्छी नही,,,कभी मैं नही आ पाई स्कूल तब तुम कैसे करोगे अपना काम?"
रवि बोलता-"तुम हो ना मेरे साथ" और पता है नामी गिरामी लोगों की हैंडराइटिंग हमेशा खराब ही रही है। देखना एक दिन मैं भी कोई महान हस्ती बनूगां,,,और सरला मैडम की तब मेरी सफलता देखकर सोचेगीं -"हाय मैने इस बेचारे को कितना मारा",,,और जिसदिन तुम नही आओगी मैं भी छुट्टी कर लूंगा, स्कूल में पढ़ने कौन आता है?? मै तो अपनी निशा के लिए आता हूं स्कूल।"
और बोल कर जोर से हँस पड़ता।
निशा भी सर पीट लेती-" उफ्फ़ मैं तुमसे हारी बाबा ,पर अपने लिए रवि के दिल में इतना अगाध प्रेम देखकर निशा मन ही मन खिलती कुमुदनी सी निखर उठती !!!
      ऐसे ही चुलबुला बचपन कब जवानी की दहलीज पर पहुंच गया और कब वह बचपन वाली चाहत के रंग और गहराते गए,,, दोनो के दिल पर ना जाने कितने कैनवास प्यार की नई आकृतियां रचते गए।
     आज 11 नवम्बर था निशा का जन्मदिन और रवि के जीवन का सबसे खूबसूरत दिन,,,बचपन से रवि निशा को अपने हाथ से एक प्यारा सा कार्ड बनाकर देता था,। जिसपर पहले क्रेयाॅन की ड्राइंग होती थी पर अब वह ऑयल कलर से रंगे दिल के एहसासी रंगों में डूबे निशा के प्रति उसके गहरे जज़्बातों की अभिव्यक्ति होते।
     निशा ने भी बड़े जतन से अपने हर जन्मदिन पर रवि से मिले कार्डों को सम्भाल कर रखा था । उस को बड़ी उत्सुकता से इन्तेज़ार रहता था रवि के बनाए कार्डों  का।
  काॅलेज बंक कर दोनो ने साथ-साथ सारा दिन बिताया। 'सी पी' के 'कैफे काॅफे डे' में काॅफी पी, सेन्ट्रल पार्क में घंटों रवि निशा की गोद में सर रख उसकी नरम अंगुलियों की सहलाहट अपने बालों पर महसूस करता रहा। तो कभी आस-पास के लोगों से नज़रे बचा कर निशा के रसीले होंठों पर अपने गरम लबों की तपिश रखता रहा।
      शाम धीरे-धीरे उतरने लगी थी। निशा और रवि घर लौटने के लिए राजीव चौक के मेट्रो स्टेशन की ओर चल पड़े। पर ना जाने क्यों आज वे मेट्रों से ना जाकर 'लो फ्लोर्ड बस' पर चढ़ गए।
सारे दिन का साथ और मखमली एहसास अब तक उन दोनो को प्यार के रूपहले संसार से बाहर नही आने दे रहा था।
    बस में भी युगल एक दूजे में सिमटा सिकुड़ा रहा।
तभी एक स्टाॅप पर  कुछ आवारा मनचलों की टोली चढ़ी। उनके चढ़ते ही बस के भीतर का शान्त माहौल जैसे हुड़दंगी और छिछोरे ठहाकों से विरक्त होने लगा।
      वे निशा को बड़ी अजीब सी वहशी नज़रों से घूरते हुए भौंड़ कमेन्ट देने लगे-"अरे रानी! हमसे भी चिपक ले" इतने बुरे भी नही हम"।
   ये सुनते ही रवि आग बबूला हो उठा और घूर कर उनकी तरफ़ देखा।
 तभी दूसरा युवक बोला -"घूरता क्या है बे! खा जाएगा क्या? हिम्मत है तो आ!!
     निशा ने रवि को कस के पकड़ लिया और सहमते हुए बोली -" नही रवि इनके मुहँ मत लगो,,,जाने दो"।
    तभी तीसरा युवक ने कटाक्ष करते हुए अपनी खींसे निपोड़ता बोला - "हिजड़ा साला"!
     रवि ने तेजी से निशा का हाथ झटक कर अपनी सीट से उठा, और उस युवक के जबड़े को कस के दबोचता हुए पीछे ढकेल दिया।
 देखते-देखते हाथापाई जोर पकड़ गई सहयात्रियों ने भी बीच बचाव करना शुरू किया,, । निशा घबराई हुई अपनी सीट से उठ रवि की तरफ़ बढ़ी ,,इतने में झल्लाए हुए टोली के लड़के ने निशा की कमर पर हाथ फेरते हुए उसे पकड़ लिया,,,,असहज होती निशा ने एक झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर रसीद दिया। वह युवक  तिलमिला  उठा और उसने बस के खुले दरवाजें से निशा को चलती बस से बाहर ढकेल दिया।
     सब कुछ इतने अफ़रा-तफ़री में हुआ के कोई कुछ समझ ही ना पाया कि,,आखिर हो क्या गया???
       बस के सभी यात्री चिल्ला उठे-"अरे बस रोको लड़की गिर गई"। आवारा लड़कों की पूरी टोली को यात्रियों ने तब तक धर दबोचा था।
पर रवि बुरी तरह अपना मानसिक संतुलन खोता हुआ निशा का नाम ले चीख पड़ा।
बस के रूकते ही बदहवास सा पीछे की ओर निशा ,,,निशा! करता दौड़ पड़ा।
     इतनी देर में वहाँ काफ़ी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। रवि उस भीड़ को चीरता हुआ निशा के पास पहुंचा।
चलती बस से गिरने के कारण उसके सर पर चोट बहुत तेज़ लगी थी,,,खून बहुत अधिक बह गया था। निशा बेहोश थी।
     आस-पास एकत्र हुए लोगों में से एक अधेड़ सज्जन आगे आए और अपनी कार में अस्पताल ले जाने के लिए कहा। रवि ने निशा को गोद में उठा कर कार में लिटाया।
कार पास ही एक नर्सिंग होम पर रूकी और उसे एडमिट किया गया।
      रवि ने काँपते गले से निशा के घर फोन कर उसके माता-पिता और भाई को हाॅस्पिटल बुला लिया। पूरे शरीर में कई जगह गहरी चोट और अधिक रक्त बह जाने के कारण डाॅक्टर निशा की जान नही बचा सके।
     रवि निशा के मृत शरीर के पास एक पत्थर की मूरत बना बैठा रहा। निशा को दिया उसके बर्थ डे कार्ड पर अब केवल लाल रंग से रंग चुका था जो धीरे-धीरे सूख कर काला पड़ रहा था।
      इस घटना को आज 20 बरस बीत चुके थे । और आज तारीख 11 नवम्बर थी। कैनवास पर रवि ने निशा के लिए बर्थ डे कार्ड एक बार फिर बनाया था।
   क्योंकि निशा को रवि का दिया बर्थ डे कार्ड बहुत प्रिय था।
आज भी हर साल रवि 11 नवम्बर को कार्ड ज़रूर बनाता है,,पर निशा नही होती उसे देखने के लिए,,,,,,,,,,
 


     

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

तुम सूर्य हो मेरी सृष्टि के,,

                            (चित्राभार इंटरनेट)

तुम ना देह हो,
ना देह पिंजर में कैद प्राण,,
तुम तो सूर्य हो मेरी सृष्टि के,,
तुमसे ही उजास पाता है मेरा हर कोना,,
कभी जो छुप जाते हो तुम सघन मेघ बिच,
तड़प उठती है मुझ पर पल्लवित होती
हर जीवन लीला,,
शिशिर के भयानक प्रकोप से,
सिकुड़ जाती है,
जम जाती है बड़े-बड़े शिलाखंडों सी,,,
तुम ज्येष्ठ की कड़कती रोध बनते हो,,
तो मैं मुस्कुरा कर वाष्पित कर देती हूं
अपना नेह जल,,
और बरस कर शान्त कर देती हूं तुम्हे,
फिर तुम संग सावनी फुहार में भींग कर,
हरितिमा लिए नवयौवना सा, लहलहा उठता है,
मेरा रोम-रोम, मेरा अंग-प्रत्यंग,,,,
कहीं पढ़ा था मैने,,,,
"कुछ लोग ज़िन्दगी में नही होते,,,ज़िन्दगी होते हैं,,",,,
तुम से जुड़ कर सही अर्थों में इस वाक्य का
मर्म पहचाना💖
लिली🌿

यथार्थ

                       (चित्राभार इंटरनेट)

#यथार्थ
🌵🌷🌵🌷

ऊपर वाले का
करिश्मा,,
क्या कहिए,,!!

दिमाग़ बनाया
दिल बनाया,,
फिर
पेट बना दिया,,
और
आकार इसका
दिल और दिमाग़
से थोड़ा नही,,
बहुत बड़ा बना दिया,,
फिर क्या था,,,,
पेट भरने के लिए,,
दिमाग़ ने सोचना,,
और
दिल ने धड़कना शुरू कर दिया,,

दिमाग़ ने खिलाफ़त की,,
तो
पेट की भूख ने आकार बढ़ा लिया,,
दिल ने बग़ावत की
तो
दिमाग़ ने उसे समझा दिया,,
जीत आखिर पेट की हुई,,

ख़याल,सोच,एहसास,जज़्बात
अब रोटी के निवाले
से ही चलते हैं,,
भावनाओं के पाचक रस
भी पेट की चौखट पर
मथ्था टेक के निकलते हैं,,,
लिली😊

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

कविता,,हम स्त्रियों सा बिहेव क्यों करती हैं,,,,,,,?

                          (चित्राभार इन्टरनेट)

आज एक बहुत ही खूबसूरत कविता पढ़ी,,और दिन ब दिन कविताओं पर बढ़ती मेरी आसक्ति पर आज कुछ ऐसी अभिव्यक्ति निकल पड़ी,,
🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿

हर कविता यही चाहती है,,
'सम्पूर्ण एकाधिकार",,,,
'उस पर,,,,,
जिसे वह चाहती है'!!

धीरे-धीरे जकड़कर
कैद कर लेना चाहती है
उसकी सोच,,,उसका शरीर,,
उसकी नींद,,,,उसका चैन,,,
उसका हास्य,,,उसका रुदन
उसकी रुचि,,उसकी अरुचि
उसके अस्तित्व के हर पोर
में फंसा कर अपने
'सम्पूर्ण एकाधिकार' की जड़ें,,
'#लाॅक' कर देना चाहती हैं,,,,

फिर भीड़ में,,एकान्त में,,
जड़ में,,,चेतन में
प्रस्फुटित अंकुर सी
आतुर दृष्टि लिए,,
सदा यही एक धुन
सुनना चाहती हैं,,,,,

"तुम मेरी हो!!"
"तुम मेरी हो!!"
"तुम मेरी हो!!"
भले ही होंठ हिला
कर कहने में
हिचकिचाती हों,,,
पर कहने से भी चूकती नहीं,,,,
हर बार नए रूपधर
समर्पिता सी ,,
बिखर जाती हैं
हृदय के नरम बिछौने पर,,

कोई बताएगा मुझे,,,,,,,
ये "कविताएं भी क्यों,,
हम 'स्त्रियों' जैसा '#बिहेव'
करती हैं?????"
🤔🤔😄😄

लिली🌿🌿

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

ये वही तुम हो,,,,,,?


                     (चित्राभार इन्टरनेट)

ये वही तुम हो,,,,?
,,या ,,
मैं अब वैसी ना रही?

 खिंचने लगीं ख़ामोशियां?
,,या,,
बे-चैनियां वैसी ना रहीं?

सरक गया सूरज भी,
नज़रें बचा कर उफ़क में
 रात भीं तो सो गईं
वो भी तड़पती ना रहीं,,,

ये वही तुम हो,,?
,,या,,,
मैं अब वैसी ना रही,,?

हसरतों की टकटकी,
पलक सी झपकने लगीं,,
इन्तज़ार भी थक चला,
लौट कर,न जाने कहीं??

चौखटें मायूस सी,
सूखी नज़र लिए खड़ी,
आस फिर भी एक टक
सूनी गली तकने लगीं,,,

ये वही तुम हो,,?
,,,या,,,
मैं अब वैसी ना रही??

लिली🌿

बुधवार, 26 सितंबर 2018

दीवारें

                    (चित्राभार इंटरनेट)

#दीवारें🌿

दीवारों का वजूद भी,
अजीब होता है
होना भी ज़रूरी
और
ना होना भी अजीज़
होता है,,

मौजूदगी इनकी
डराती भी है,,,
'धीरे बोलो',,,
"दीवारों के भी कान होते हैं",,,!!
तो वहीं,,,,
चार दीवारों और उनपर
टिकी छत कमाने के लिए,,
लोग,,खून पसीने की
फ़सल बोते हैं,,,

नफां भी कमाती हैं
नुकसान भी दिखाती हैं,,
दिली नफ़रतों की नींव पर
मज़बूती से खड़ी होती हैं,,,
अपने जिस्म पर प्यार की
बानगी भी लिए होती हैं,,,

ना जाने कितने रंगों में
रंगीं होती हैं,,
यूं तो महज़ ईंट-गारे
की बनी होती हैं,,

इंसानी आबरू को
पनाह भी यहीं मिलती है,,
,,,तो,,
इनकी आड़ में बेरहमीं से,
लुटती भी यहीं दिखती हैं,,,

कभी ये सीली,,
तो कभी,,
सूनी दिखती हैं
ढलती उम्र के बिस्तर पर
यादों के एलबम सी
दिखती हैं,,,
लाचार शरीर की गवाह
बनी,,
बड़ी बेचारगीं से तकती हैं,,

और भी बहुत कुछ है,,
मगर,,
इतना ही काफ़ी है,,,
अभी और पढ़ लूं मैं इनको,,
इनकें कोनों में छिपा,,
बहुत कुछ बाकी है,,,,।

लिली 😊

शनिवार, 22 सितंबर 2018

आश्विनी अनुभूति,,,,



अश्विन मास के लगते ही,,,प्रकृति जैसे देवी-देवताओं के धरा आगमन की तैयारी में जुट जाती है। गणेशोत्सव के साथ शुभ का शंखनाद आरम्भ हो जाता है।
       आकाश का नीलाभ जैसे खुद को श्रावणी वृष्टि से धो पोछकर नीलम रत्न सा चटख चमकदार हो जाता है। ग्रीष्म के ताप से वाष्पित बिन्दुओं से भरे काले मेघ,,,,बरस कर भारमुक्त हो चुके हों जैसे,,,सब पंतग से हल्के हो कर श्वेतमाल से नील गगन पर इधर-उधर उत्सव की तैयारी में जुटे ,,तत्परता से तैरते नज़र आने लगते हैं।
          आसमान पर जैसे होड़ मची है उत्सवी शामयाना सजाने की। धरा ने भी खुद का श्रृंगार उतनी ही कुशलता से करना आरम्भ कर दिया है। धुले-धुले से गाछ-पात,,,हरित दूब के नरम गलीचे,,,हरश्रृगांर के फूलों से लदे पेड़,,जो  हवा के स्नेहिल स्पर्श से किसी नव यौवना की चंचल हंसीं से बिखर पड़ते हैं घास पर। हवा का नटखट झोंका भर कर स्वयं में उन शिवली का सुवास बह निकलता है आत्मशीतल कर अन्यत्र कहीं। दूब का फैला आंचल एकत्र कर प्राजक्ता के फूल,,,गुथने लग जाते हैं पुष्पमाल,,,देवी को अर्पित करने हेतु।
              नदी के जल से भर अपने यौवनी उन्माद में किल्लोल करती अलमस्त बही जा रही,,,। सूर्य की रश्मियों की गुनगुनाती ऊष्मा से हो उल्लासित उसकी अल्हड़ता मृणालिनी बन चली है। धरा निकली है नहा कर नदिया के तट पर,,और धारण किए हैं लहलहाते कास-पुष्पी वसन। जिसका लहराता आंचल बार-बार उद्धत है आकाश  छूने को।
       उधर गांव में ढाकियों ने शुरू कर दिया है अभ्यास,,, दे रहे हैं दिन-रात ढाक पर एक नव आशा की थाप,,,,,!! इस बार 'माँ' आएगीं उनके लिए लेकर शुभ उन्नत जीवन का आशीर्वाद। जिससे दूर होंगें उनके संताप। छोटे बालकों हाथों में लिए कास्य थाल,,मिला रहे अपने पितृ संग ताल,,,,उन्हे है आस इसबार माँ लाएगीं उनके लिए स्वादिष्ट भोग-प्रसाद। स्त्रियां मन में संजोने लगी हैं नए स्वप्न , स्वामी कमा कर लाएगा कुछ अधिक 'मूल' इसबार,,,साथ होंगें  नूतन वस्त्र,आलता-सिन्दूर । उनका असल उत्सव तो शुरू होता है 'माँ' के वापस जाने के उपरान्त । जब लौट कर आते हैं उनके स्वामी परदेश से ।
          हर हृदय में घुलने लगी है उत्सवी श्वास,,होंगें कितने ही परिवार एकत्र एक वर्ष बाद। वयोवृद्ध माँ-पिता आशान्वित हैं,,,आने वाले हैं पुत्र-पुत्रवधु और पोते-पोतियां। सब मिलकर बिताएगें कुछ सुखद क्षण फिर एकबार।
       धरा,गगन,मानव मन सब जुट गए हैं 'देवी के आगमन' की तैयारी में।
 आज मोन आमार ओ होए एलो पूजो-पूजो(आज मेरा भी मन पूजा की पूर्वानुभूतियों से आन्दोलित हो उठा)।
  मेरे मन का आकाश भी आश्विनी आभास से आनंदित हो नर्तन कर उठा।

🌷दुर्गा दुर्गा ⚘

देवी आगमनी,,,

(चित्राभार इंटरनेट)


नील-अश्विन आकाश पर,
 हैं तैरते
सफेद बादलों के,
उत्सवी गुच्छ,,,

मंद हवा के झोकों में,
कुछ है शीतलता का पुट,,
किया धरा ने धारण
लहलहाते कास-पुष्प,,

किलक कर झरते
बयारी स्पर्श से,
'शिवली',,
पा दूब्र का हरित आलिंगन
द्रवित हुआ अंतर शुष्क!!

ढाक स्वर किल्लोलित
सरित जल में,,
आगमनी गा रही
हर दिशा हो अनुष्क,,

आ रही हैं देवी
फिर लिए ,
आनंदोत्सव
फिर व्योम उल्लासित
हो इन्द्रधनुष,,,
लिली🌾🌿🌼






रविवार, 16 सितंबर 2018

पिघलती बर्फ़ हिमालय की,,,,

           (चित्र साभार मेरे मित्र सौरभ पांडे की सौजन्य से)
              कसौनी की खूबसूरत वादियों से

  • फेसबुक पर सौरभ द्वारा अपलोड की गई ये खूबसूरत छवि,,देख कविता भी रुक ना पाई,,,😊 



गरम चाय के प्याले
से उठते धुंएँ से,
पिघल रही है बर्फ़
हिमालय की,,
ठिठुरता सा था
जो आसमान ठंड से,
लेकर नीलाभ
फैल गया था दूर तक,,
जो धुंध थी छाई
हरितिमा पर,सब झर
चुकी थी धरा पर,,,
सब साफ़ सा,
सब स्पष्ट सा निखरा हुआ,
खिला खिला उजियाला लिए,,
पोछ दिए हों लेंस कैमरे के,
',,,,,और,,,,,
निकलती हो तस्वीर,,
'हाई रेज़्यूलेशन' क्वालिटी लिए,,
रफ़्तार पकड़ती सोच,,
किसी व्यस्त शहर की
सड़कों सी,,
हर घूंट के साथ
लक्ष्य पकड़ते हौंसलें,
तैयार करते खुद को,
एक और दिन की शुरूवात
के लिए,,,
ये महज़ प्याला नही,
एक कप चाय का,,,,
ये है सूरज मेरा,,,
मेरी बालकनी की
रेलिंग पर टिका,,,,
लिली😊

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

मेरी सबसे अंतरंग सहेली,,,,, 'मेरी हिन्दी'

                      (चित्राभार इंटरनेट)
इत्ते दिनों टिमाटर मुगालते मे रहे,के उनके बिना कौनो सब्जी में सुवाद ना लगी,,,तो एक दिन हुआ यूं के गोभी के सब्जी फांद लिहिन चच्ची,भून-भान के बड़े स्नेह से गोभी आलू सब 'साइडिया' के टिमाटर लिहे खातिर फिरिज के तरफ लपकीं,,,। आय हो,,का देखती हैं के एक्कौ टिमाटर धरा नही कौनो कोना मा,,🙄 !!!!
        अब ल्यो हुई गवा 'मूड' के सत्यानास!!! गोभी भून्नाय रही,आलू खुन्नाय रहे पिलेट में,,,,के चच्ची बनावे से पहिल,,,सब जुगाड़ जुगत पहिले से नही देखति हैं😏😏 अरे अब कैसे हमार सब्जिया का सुवाद बढ़ी।
     कहीं दूर 'टिमाटर परदेस' में जब टिमाटर लोगन अपने 'इम्पार्टेन्स' का रेडियो बिजुरिया से भान पाए तो मनही-मन फूल फूल के टकाटक ललियाए गए,,,।
   पर भइया!! चच्ची हो कम जुगतबाज नहि रहलि हैं,,,,तुरन्तै,,,कटोरिया में रखे रहिलि 'दही' मुस्कियाते हुए 'इन्टयाइ' हैं "किचनवा' मा औउर दन्न से फेटफाट के,,, बनाए दिहिन "ढाबा इश्टाइल लबाबदार गोभी के सब्जी" अह्हाआ 'पाँचों अंगुरी चाट' बने रहिल सब्जी ऊ दिन,। मुगालता टिमाटर के रह गइल उन्ही के खेत मा उघाते हुए!!!!
,आह तो ये मेरी हिन्दी !!! मेरी सबसे अंतरंग सहेली,,,!!, जो मेरे मन के उछलते कूदते मसखरे भावों को शब्द देती है। कुछ भी कैसे भी उड़न-चंडी से बौखलाए ख्याल,,बेसर पैर की कल्पनाओं के बेताली भूत या फिर बहुत घनीभूत भावों के सावनी मेघ गड़गड़ाते हैं तब शब्द वर्षा कर हृदय के तपते धरातल को अभिव्यक्ति की सोंधी गीली माटी देती है!!!! जिसके शब्दों का सहारा मेरी आत्म अभिव्यक्ति को संतुष्टि का चरम प्रदान करती है।
      मुझे मेरी जैसी लगती है,,कभी मनचली, कभी हठधर्मी, कभी फक्कड़, कभी अलसाई, कभी शान्त।
हृदय से मस्तिष्क तक इसने मुझे सम्मोहित कर अपने प्रेमपाश से वशीभूत कर रखा है,और अब मैं पूरी तरह इसकी गिरफ्त में हू। सच कहूं तो इसकी व्याकरण,इसके उपमान,इसके रूपक ,अक्षर, शब्द ,वाक्य या कहू इसका सारा वजूद इतना घुलनशील है के मै आजतक समझ नही आई कि ये मुझमें घुली है या मैं इसमें विलय हो गई???? लिखते वक्त ये मेरी ताल पर नाचती है,,,,या बड़ी चतुराई से अपनी डुगडुगी पर मुझे नचाती है??? नौ रसों का शरबत बड़े कौशल के साथ फिटवाकर,,सबमें बटवा देती है।

        ना जाने कितनी विविधता लिए,अपने सरलतम् ,सहजतम् रूप से इसने मुझे अपनी तरफ ऐसा आकर्षित किया ,,,और वह आकर्षण कब थोड़ी नोक-झोंक, मान-मनुहार के साथ गहनतम् प्रेम में परिवर्तित हो गया,,,,पता ही नही चला,,,,??? 
      हाँ 'प्रेम' ना जाने यह "ढाई आखरी" शब्द कितने रुपों में इस सृष्टि में अपना अस्तित्व रखता है कहना मुश्किल,,,। कई बार हुआ ऐसा ,,के मैं भटकी,,,इधर-उधर,खुली खिड़कियों से दिखने वाले सीमित अभिव्यक्ति-व्योम की तरफ लपकी। पर मेरी हिन्दी शायद मेरी तुलना में, मुझसे भी अधिक मुझे प्रेम करती है। इसने मुझे खुद को इतना लचीला,,इतना जल सम, सहृदयी, सहिष्णु,और विशाल हृदयी बना डाला ,और मुझे खिड़कियों के फ्रेम में घिरे आसमान,,,से बाहर निकाल असीम अभिव्यक्ति लोक दे डाला,,,,। जहाँ मुझे कोई बंधन नही दिखता। मैं अंतर के भावों को अपनी इच्छानुसार आकार देने लगी। यहाँ कोई कोना नही दिखाता मुझे,,,,,,,दिखता है तो एक वृहद विस्तृत विस्तार,,,जहाँ ना शब्दों का अभाव है,,,ना किसी बाह्य विदेशी, शब्द के लिए अस्वीकृति,,,जो हर दशा,हर देशकाल, को व्यक्त करने में समर्थ है।
        सबसे सुन्दर बात मेरी हिन्दी सुशील है, सरल है ,सरस है,और हर रूप में स्वीकार्य है,,,,!!! शब्दकोश में महासागर है,,चाहे जितने नीचे जाकर गोता मारो,,,सदा रत्नगर्भा सी ,,झिलमिलाती मुस्कुराती मिलती है।
         मेरा मन नही था के हिन्दी दिवस पर मैं,या तो इसके समृद्ध खजाने से निकाल मुक्ता मणि उड़ाऊँ,,!
आलोचना करूं,,,!
इसको अधिक से अधिक लोगों तक कैसे पहुचाया जाय,,इस पर सुझाव दू !
या इसके बिगड़ते स्वरूप को सुधारने हेतु समाधान लिखू,,,,!  
     मेरा मन नही था ,,,मैं मेरी हिन्दी को फटी-चिथड़ी दयनीय दिखाकर लोगों के आगे इसके प्रति सांत्वना या 'सिम्पेथी' की गुहार लगाऊँ। 
      मै तो अपनी सबसे अंतरंग,मेरे हर प्रकार के भावों की 'अभिव्यक्ति संगीनी' हिन्दी को  उसके प्रति मेरे मन की गहराइयों तक बह रही तरल,ठोस,वाष्पित हर प्रकार के प्रेम बिना किसी लीपा-पोती के विशुद्धतम् रूप में सम्प्रेषित कर सकू।
   मेरे विवेक,मेरी भावुकता,मेरी चेतन-अवचेतन बुद्धि द्वारा हिन्दी दिवस पर इससे सकारात्मक अभिव्यक्ति दूजी नही सूझी।
        भारत माँ के माथे की बिन्दिया के साथ-साथ ये मेरे माथे की बिन्दियां सी सदा मेरे हृदय कपाल पर जगमगाती रहे। 

भावुक दृश्य,,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

#_भावुक_कर_गया_दृश्य
#मेट्रो_यात्रा

ऐसे बिना अनुमति के किसी तस्वीर नही खिंचनी चाहिए,,, पर मैं रोक नही पाई,,और मेट्रो रेल में बैठे एक यात्री परिवार की फोटो  सबसे नज़र बचाकर खींच ली। पिता की वात्सल्यमयी गोद में कितने सुकून से सोता हुआ बचपन😊। बहुत देर से मैं इस निश्चिन्त पितृआगोश में सोए बालक को निहारती रही,,,शायद बच्चे की तबीयत खराब थी,,मेट्रो के वातानुकूलित परिवेश में उसे ठंड लग रही थी,,इसीकारण एक शाॅल में किसी कंगारू के शावक सा अपने पिता के गोद में सिकुड़ कर सो रहा था।
     बीच-बीच में ट्रेन के अनाउन्समेंट से चौंककर  इधर-उधर ताकती उसकी भोली मासूम आँखें,,,वापस खुद को गुड़मुठिया कर पुनः अपने सुरक्षित,संरक्षित घेरे में सो जा रही थीं।
    जेहन में एक ख्याल का अकस्मात अनाउंसमेंट हो गया,,अह्लादित मुस्कान भाव विभोर हो खुद के लिए भी ऐसे वात्सल्यी सुरक्षित आगोश के लिए तड़प उठी😊।
   व्यस्क होकर हम कितना कुछ पाते हैं,,, आत्मनिर्भरता, स्वनिर्णय की क्षमता, अपनी मन मर्ज़ी को पूरा करने की क्षमता,, पर सब कुछ शायद एक असुरक्षा के भय के आवरण के साथ,,,उस निश्चिंतता का शायद अभाव रहता है,,,के यदि असफ़ल हुए,,या ठोकर लगने को हुए तो एक सशक्त संरक्षण पहले ही अपना हाथ आगे बढ़ा उसे खुद पर सह लेगा,,,पर हमें कुछ नही होने देगा,,,,,!!!!
     जब शिशु पलटी मारना सीखते हैं,,,तो अभिभावक बिस्तर के चारो तरफ़ तकिए लगा देते हैं,,ताकि वे नीचे ना गिर जाएं,,,जब चलना सीखते हैं तो हर पल की चौकसी बनाएं रखते हैं,,,, कहीं टेबल का कोन ना लग जाए,,कहीं माथा ना ठुक जाए,,।
    मुझे याद है मेरे घर के बिजली के कुछ स्विच बोर्ड नीचे की लगें थे,,और बड़े वाले बेटे ने घुटनों के बल चलना सीखा तो,,वह बार-बार उन स्विच के प्लग प्वांइट के छेदों में ऊँगली डालने को दौड़ता था,,। मुझे सारे बोर्ड ऊपर की तरफ़ करवाने पड़े। और भी बहुत कुछ रहता है,,, जिन पर भरपूर चौकसी रखनी पड़ती है अभिभावकों को,,जिससे शिशु का बचपन निश्चिंतता के परिवेश में पोषित और पल्लवित हो। ऐसा बहुत कुछ हम व्यस्क होने के बाद खो देते हैं।
       इस दृश्य को देखकर आँखे भर आई,,,,,,,, लगा जैसे,,पृथ्वी के विलुप्त होते सुरक्षा आवरण ओज़ोन सी मेरा भी,,,या हम सभी जो व्यस्क हो चुके हैं,,जो आत्मनिर्भर हो चुके हैं,,,,उनकी वह 'अभिभावकीय ओज़ोन लेयर',,, विलुप्त होती जा रही  है।
       अब हम स्वयं अभिभावक बन चुके हैं,,,अब हमें अपने बच्चों को यह सुरक्षित एंव निश्चिंतता का वात्सल्यमयी आवरण प्रदान करना है,,,उन्हे उसी तरह जीवन पथ की ऊष्णता और आद्रता सहने के काबिल बनाना है जैसे हमारे अभिभावकों ने हमें बनाया।
           माँ-बाबा तो सशरीर इस जगत में नही,,पर एक आभासी विश्वास मन में सशक्तता से आसीन है,,,वे जिस लोक में हैं,,,अपने आशीर्वाद से आज भी अपना वात्सल्यमयी घेरा बना कर हर बाधा, दुरूहता,चुनौतियों, कठिनाइयों से निपटने का संबल दे रहे हैं,,,और मैं इसी फोटो वाले बालक सी अपने अभिभावक की गोद में गुड़मुठियाए निरविकार निश्चिंतता से सो रही हू😊

लिली🌿

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

चलो ना जीवन्त बीहड़ों की ओर

                     चित्राभार इन्टरनेट)

नरम एहसासों की सेज पर
दो ओस की चमकती बूंदों
   ,,से,,,
मैं और तुम,,💕
एक दूजे का अक्स बने
आस-पास से अन्जान,,,

चलो ना!!!
इन कंकरीटों के बेजान
शहर से दूर,,,
किसी जीवन्त से
बीहड़ों में,,,
जहाँ सूरज की रोशनी,,
भी पड़े हम पर
,,,तो,,,
हम झिलमिला उठें,,,
उसकी गुनगुनी गरमाहट,,
वहाँ की फैली हरितिमा,,
की सुगन्ध ऊष्मित कर
फैलाती हो,,,
हर तरफ़ बसी आद्रता,,
बस एक स्वप्निली
धुंध बिखराती हो,,

इन कंकरीटी शहरों की
ईंट पर गिरते ही,,
वजूद सूख जाता है,,,,
यहाँ की कृत्रिम दूब भी,,
नही सहेज पाती
मुलायम जज़्बातों की
ओस को,,
ज़्यादा  देर तक,,
चहल-कदमी करते
कदम, ठोंकरों से
झंकझोर देते हैं ,,
,,,,,और ,,,
हम झड़ कर हो जाते हैं,,
फ़ना एक दूजे से,,

चलो ना!!!

लिली🌷

रविवार, 2 सितंबर 2018

जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ

                        (चित्राभार इंटरनेट)

लल्ला के किलकारी से,
गूजै वारी है फुलवारी,,
जा हो सखि री! मथ लै माखन,,
आवन वारे हैं त्रिपुरारी,,,,

भाद्रपद की अष्टम् तिथि है,
मंगल, आनंद लिए शुभकारी
बंसी की धुन पर नाचेगी धरणी,
आवन वारे हैं बंसी धारी,,,

उमड़-घुमड़ रहे घन अकुलाएं
बरखा गोपिन सी मतवारी,,
प्रेम के होरी फिर से होइ हैं,,,
आवन वारे हैं किशन मुरारी,,,

शनिवार, 1 सितंबर 2018

अधजला,,,

                     (चित्राभार इंटरनेट)


खुद को कुरेदना भी,
सुकून देता है,,,!!!
एक जलते अलाव जैसा!!!
सुलगते अंगार,
जो दबकर
खो देते हैं अपनी आंच,
ठीक से जल नही पाते
कुछ सूखी काठ और सूखे पत्ते,,,
अधजला नही छोड़ना कभी इन्हे,
जलते जख़्म ना जीने लायक छोड़ते हैं ,,
ना मरने लायक,,,
एक दाग़ छोड़ जातें हैं,,,
छोड़ जाते हैं, खुद की ख़ाक,,,
आँखों के सामने,,,
उड़ते हुए,,
इसलिए जब खुद को जलाना,,
तो कुरेद,कुरेद कर जलाना,,,
कुछ बचे ना शेष,,
भस्म का क्या है,,!!
हवा संग उड़ जाएगी,,,
या मिल जाएगी मिट्टी में,,
पर,,,,
अधजला ,,
ना मिट्टी का हो सके
ना हवा का,,,
लिली😊

प्रस्तुत हूँ ,,,,

(चित्राभार इन्टरनेट)
श्रावण की झमकती बूंदों मे...धुल जाए मेरा प्रखर रक्ताभ ,,गुच्छ के गुच्छ प्रस्फुटित करने  मे व्यस्त है अंतस ...चाह शेष न रही अब..दमकती लालिमा संग आभायमान होने  की । चरम के उत्कर्ष का शोभित यौवन है ..मेरी कोशिकाओं मे अंगड़ाई लेता ..!!!! बरखा तू ये न समझना तेरी. सावनी बूंदों मे छुपे मेघ के प्रीत स्पर्श से,,, आलोड़ित है मेरा रंग-रूप । यह तो शेष का उन्माद है ,,,और स्वयम की  तिलांजलि दे ,,,मिटा देने की आहुति-प्रक्रिया। मेरे रंध्रों से झरते पराग-कण..पंखुड़ियों पर स्पष्ट रूप से मुखर होती शिराएँ मेरे तर्पण के उत्सव मे अति उत्साह से सक्रिय हो निज कर्म को उद्द्त ..!!! हाँ तर्पण,,,,,स्व-अस्तित्व का ,,,स्वम के हाथ ,, जी चुकी जीवन के वे अनमोलित-क्षण,,,मधुमास मेरे जीवन-काल का ,,,,जी चुका अंतस ,,,अब अपने अंतिम लक्ष्य की ओर उन्मुख हूँ ,,, मैंअपने रक्ताभ की शेष आभा के साथ ,,,प्रस्तुत हूँ,,,,

लिली मित्रा

शनिवार, 25 अगस्त 2018

संवेदनाओं के सागर में,,रक्षाबंधन की उमंग,,,

                 

(नवभारत टाइम्स फ़रीदाबाद में प्रकाशित)


हवाओं में खनक है उत्सवी धुन की,,दिलों के आकाश से उल्लास का गुनगुना सूरज झांकने लगा है। बाज़ार सजे हैं रंग-बिरंगी राखियों की रेशमी डोर से। राखी  संग  अपनी बहन-प्रीत को लपेट भाई की कलाई पर रक्षावचन बाँधने का उत्साह हर तरफ़ दृश्यमान !!!!
        'रक्षाबंधन',,भारत-भूमि की सतरंगी संस्कृति का एक अति भावुक करदेने वाला पावन-पर्व। संवेदनाओं का सागर जैसे मन के घट से बाहर छलक जाने को बेताब है।
प्रतिदिन की अनगिनत गुदगुदाती वात्सल्यमयी  झिड़कियों,,तकरार,,को दर किनार रख,,हर भाई इसदिन कितना लालायित रहता है अपनी बहन से, माथे पर रोली-चावल का तिलक लगवा राखी बंधवाने को,,,और बहनें उतनी ही उमंग लिए तैयार करती हैं राखी का थाल,,,रक्षा का आशा दीपक जलाती हैं,,दृढ़ विश्वास की रोली-चावल तिलक रखती हैं, अपने मन के अगाध प्रेम को राखी के हर एक रेशम संग गुथ थाल पर सजाती हैं। एक दूसरे को मिष्ठान्न खिला कर इस रिश्ते की मिठास को आजीवन बरकरार रखने का वादा दोनो करते हैं।
        इस पवित्र-पर्व के अंतस में बसे भाई-बहन के प्रेम का मूलभाव सर्वत्र फैले।  भाई केवल अपनी बहन की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध ना होकर समाज की  उत्पीड़न,शोषण और दरिन्दगी की शिकार अन्य बहनों की भी सुरक्षा और सम्मान के प्रति भी प्रतिबद्ध हों। याद रहे रानी कर्मावती, हुमायूँ की अपनी बहन नही थीं,,पर उन्होने राखी भेजकर हुमायूँ से अपनी सुरक्षा का वचन माँगा तो हुमायूँ ने पूरी निष्ठा के साथ अपनी बहन के प्रति अपने कर्तव्य का अनुपालन किया। यह कहानी इस त्योहार का प्रेरणास्रोत है,,ऐसा बचपन से सुनती आई हूँ। अतःआज सभी भाइयों से हम सभी बहनों की एक ही गुहार,, आज आप बहनों के कपाल पर भाई ,दृढ़-विश्वास एंव एक अंतहीन आत्मविश्वास का रोली तिलक लगाएं,,ताकि हम सभी बेख़ौफ़ रह सकें,,हर जगह खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें,,,चाहे वो घर की चारदिवारी हो या समाज का आंगन।
     रक्षा-बंधन के पवित्र अवसर पर मेरा विनम्र निवेदन मेरे उन सभी भाइयों से,,, एक संकल्प लिजिए इस बेला पर,,एक वचन दीजिए हम सभी बहनों को की आप सदैव हमारे सम्मान,,अस्मिता और मर्यादा पर कोई आंच ना आने देगें!!!!
         सभी को रक्षा-बंधन के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं एंव बधाइयां!!

लिली मित्रा
फ़रीदाबाद

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

एक गीत,,,,

                        (चित्राभार इंटरनेट)

एक #छतरी तलें
दो दिवाने चले
डाले काधों पे हाथ
गुनगुनाते चले
मुस्कुराते चले

एक छतरी तले,,,

बहके-बहके कदम
दहके-दहके से चमन
#फिसलने कह रहीं
देख बच के सनम,,

एक छतरी तले,,,

#रिमझिमाते हुए
टिमटिमाते हुए
देखो थिरकने लगीं
#संगीत संग #दामिनी

एक छतरी तले,,

दोनो खामोश से
भीगें मदहोश से
झूमती बारिशें
सब डुबाती चलीं

एक छतरी,,,,

लिली मित्रा

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

शादी बोले तो,,,,,😃😃😃 (हास्य/व्यंग)

                     (चित्राभार इंटरनेट)

शादी,,,बोले तो,,,,,,😃

शायद,,,,,,,
बंधनों में कैद सुरक्षित आज़ादी😊
शायद,,,,
आबादी बढ़ाती बर्बादी,,🙊

शायद,,,,,
खटमिठिया बेर,,,😜

शायद,,,,,
अनगितन शीत-युद्धों का
बारूदी ढेर😼

शायद,,,,
समझौते की नींव पर
प्रेम का सफ़र,,😍

शायद,,,,
मौन और मुखर से संतुलित
जीवन-पथ की डगर,,😊

शायद,,,
जोड़ियां बने आसमानों में,
की प्रमाणिक धरोहर😃😃
~लिली😃

बुधवार, 22 अगस्त 2018

घनत्व का विस्तार,,एक ईश्वरीय प्रावधान,,



क्यों लगा आज की घनत्व बढ़ जाए तो फैलाव ,,ईश्वरीय प्रावधान का एक अति आवश्यक नियम है,,एक दर्शन है,,जो विज्ञान की तार्किक दृष्टि की बारीक़ छलनी से गुजर कर भी अपनी प्रामाणिकता को अक्षुण्य रख पाया!!!!
     आज मैने भी एक कुशल वैज्ञानिक की भांति इस 'नियम'को अपने जीवन की प्रयोगशाला में सेंककर,उबालकर, तर्कों के बीकरों में भर व्यवहारिकता के वैज्ञानिक तोलकों से तौलकर,मापकों से नापकर,, कई नये-पुराने अनुभवों और घटना क्रमों की भिन्न-भिन्न आकारीय एंव प्रकारीय परखनलियों में डाल कर सिद्ध करने का प्रयास किया। और पाया,,,,,कि ईश्वरीय नियम पूर्ण रूप से परिष्कृत, नि:शंक,  वैज्ञानिकता के हर मानदंडों पर खरा एंव विशुद्ध हैं।
       निष्कर्ष की उद्दीप्तता के बावजूद मैने इसे पुनः अपने विवेक-बुद्धि के अनुसार जांचने का प्रयास किया,,,एक सहज स्वाभाविक मानवीय-गुण के तहत।  क्योंकि मैने अनुभव किया है,,,जब कोई हमें नेक सलाह देता है या उचित मार्गदर्शन कराने का प्रयास करता है अपने विघटित पूर्व अनुभवों को संज्ञान में रख,,,,,,,,, फिर भी सलाह लेने वाला या भटका पथिक एकबार अवश्य उसके विपरीत दिशा जाता है। कहते हैं ना जब तक ठोकर ना लगे पता नही चलता कि मदमस्त होकर नयनाभिराम को गगन के नीलाभ पर टिका कर चलने वाला तब तक नज़रें अपने पथ पर नही जमाता,,जब तक राह पर पड़े प्रस्तर-खंड से आघातित नही होता।
        खैर यहाँ बात आघात खाकर सम्भलने की नही ,,बात जीवन में आए परिवर्तनों से प्रभावित मनःस्थिति को समझने की है परखने की है। 'घटित' सदैव किसी ब्रह्मांडीय नियम के अनुगत ही होता है।
     बादल को देखा,,,और कविमन बोला,,,
"घनीभूत वेदनाओं का घनत्व सम्भलता नही अब,
चल फट के बरस और विस्तार पा,,,"
और 'घनत्व' 'फैलाव' की तरफ अग्रसर हो गया,,,,,!!!
      स्वर्ण का खनन कर उसे एक 'स्वर्ण ईंट' का आकार दे,संरक्षित किया गया,,!!! पर यह घनीभूत स्वर्ण की उपयोगिता तिजोरियों में पड़ी रहने से उसी स्थिति में पुनः पहुँच गई ,,जैसी वह खनन से पहले धरती के गर्भ में थी।तब इस 'घनत्व' को पिघला कर फैलाव दिया,,, ये जितना बारिकी से फैला,,आभूषणों का श्रृंगार उतना ही लोभनीय और आँखें चौंधियाने वाला होता गया।
     ये एक अलग तथ्य की जब तक किसी सेठ की तिजोरी में रहा,,सेठ स्वयं के वैभव से स्वयं ही पुलकित होते ना थका होगा। पर वह चाहकर भी उस घनत्व के फैलाव को रोक ना पाएगा,,क्योंकि वह एक 'शाश्वत नियम'।
        नलके के नीचे घट को भरते देखा,,,वह उतना ही भरा जितना घट में उस जल को घनीभूत करपाने की क्षमता थी,,, फिर वह भी ना समेट पाया और जल उथल कर,,,नालियों में बह गया।
      आकाश का नीलाभ विस्तार पाया,,,क्यों?????
क्यो नही ब्रह्म ने एक बिन्दु नीले रंग की धर दी ???? क्या उस नील बिन्दु में इस विश्वरूप सी विराट कल्पनाओं के कोटिशः असंख्य खग-विहग विचरण कर पाते,,,,? असंख्य आकाश गंगाएं, ग्रह-नक्षत्र,,, कहाँ स्थान पाते?????
    अग्नि का एकमात्र धधकता ब्रह्मांडिय वृत्त 'सूर्य' ,,,,,, इसकी अकल्पनीय ऊर्जा क्या इस वृत्त में घनीभूत हो कर चिरता को प्राप्त कर पाती,,,?????
कभी नही,,,,,कभी नही,,,!!
यह सम्भव ही नही हो पाता,,,सूरज पिघल कर बह जाता,,,,और आग का समन्दर लहराता !!!!
 इसीलिए तो आकाश के घनत्व को एक "नील-बिन्दू" सा ना आंक,,,,  अपनी तूलिका को जल में डुबो कर इसे इतना फैला दिया,,,,,कि इसका विस्तार "सूरज"" की घनीभूत ऊर्जा को फैलाव दे पाई,,,,!!! और सृष्टि सृजन के नित नए आयाम गढ़ने में सक्षम हो पाई!!!!!!
      पर ऐसा क्यों होता है हम मनुज योनि की प्रजातिय सोच के साथ,,,,कि वे,,, एक व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व में पूरी तरह से एकाधिकार कर एक घन रूप में चिरता पाने के लिए,,,,,,जोड़-तोड़,, करने का कोई भी मौका नही छोड़ती,,,??
       क्यों इस कटु सत्य को अस्वीकारने के लिए दर्शन और विज्ञान की मिश्रित प्रयोगशाला ही बना डालती है,,,,????
मोह के ये धागे,,,संवेदनशीलता के नरम-नाज़ुक तंतुओं से निर्मित,,,, परन्तु इतने ज़िद्दी,,,!!!
 इतने सशक्त,,,,!!!
बाबा रे बाबा!!!!!!
     एड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी प्रकृति के नियमों से लड़ा नही जा सकता!!!!!
स्वीकार करना ही विद्वता,,,!!
स्वीकार करना ही जीवनोंपयोगी,,,,!!
स्वीकार करना ही शाश्वत नियमानुगत॥!!
    बर्फ के विशाल शिलाखंड भी कोई ना कोई बहाना लेकर पिघल जाते हैं,,,,और हम मनुज उसे "ग्लोबल वार्मिंग" की संज्ञा से विभूषित कर चिन्तित होते हैं,,या फिर एक गूढ़ खोज का उद्घाट्य करने वाले विद्वान बन जाते हैं।  परिवर्तन नियति निश्चित है,, वह जल को बर्फ,,बर्फ़ को जल,,जल से घन और घन से पुनः जल ,,,इसी चक्र को चलाता रहता है,,,और सृष्टि के नियमानुसार घनीभूतता सतत फैलाव पाती रहती है।
       

         

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

मेरी बिन्दिया,,,



मैने सांझ के सूरज सा तुझे
अपने माथे पे सजाया है,,
लोग इसे बिन्दियां समझते होगें,,,,,
पर तेरी तपती रूह को, देने राहत,,
मैने आँखों का समन्दर बिछाया है,,

आ डूब लेकर अपने जलते शोले,,
थक गया होगा तू भी शीतल हो ले,,
उड़े भाप बन कर बेकल मेरी लहरें
तलहटी तक तरंगों ने बहकाया है,,,

तेरी तपती रूह को, देने राहत,,
मैने आँखों का समन्दर बिछाया है
लिली😊
    

रविवार, 19 अगस्त 2018

नदिया तू शान्त हो जा,,,!

                         
                    (चित्राभार सतीश ,, केरला बाढ़ प्रकोप)

उफनती नदिया  बहाती चली अपने उन्मादी वेग में सब कुछ,,,। रौद्र लहरों में अविवेकी अंधा दिशाहीन प्रवाह है। ना रूप का होश है ना रंग का मलाल। वो जो कभी शांत थी ,,वो जिसके सुर में कलकली निनाद था,,जिसकी लहरें पथरीले पथ में पड़े पत्थरो को भी धोकर चमकाती चलती थीं ,,,जैसे अपना धर्म भूल चुकी है। अपना स्तर लांघ चुकी है,,वह विकराली काली सी घड़घड़ाता अट्टाहास लिए सब बहाती जा रही।
      भयावह है तेरा यह रूप नदिया!!! किस अंतस पीड़ा से धधक उठा है तेरा ज्वालामुखी??? शीतल जल तेरा दहकता लावा बन क्यों धरा पर सब झुलसा रहा??
    अभी हृदय दग्ध है किसी अतीव संत्रासीय व्यथा से ग्रस्त है,,,प्रचंड तेरा प्रवाह है,,लगता नही अभी ये थमेगा,,,!
 पर प्रतीक्षा है तेरे किनारों  को पुनः तेरी सरगमी जलतंरगी लहरों को अपने आगोश में समेट लेने की!!!प्रतीक्षा है,, सूर्य रश्मियों को तेरी लहरों पर बिखर किसी रत्न जड़ित चादर सा चमकने की,,,!! चन्द्रिका मचल रही है अपने प्रिय के आलिंगन में बिध तेरे उज्जलव दर्पण में खुद को निरखने को,,,!!
   प्रतीक्षा है किसी बावरी चंचला को,, निज पायलिया पग पखारती ,,अपने पिय संग नयनाटखेलियां करने की,,!!
नदिया तू लौट आ,,रौद्र को तज,,उतर आ अपने मर्यादित जलस्तर की सीमा में,,,!! तू शान्त हो जा,!! तू स्मित हो जा,,तू सौम्य होजा,,!!


 

रविवार, 5 अगस्त 2018

शिल्प कोई ना अक्षुण्य होता


भग्न हृदय का भित्त है
खंड-खंड सा चित्त है
शिल्प कोई अक्षुण्य् ना होता
काल चक्र संग खंडहर है होता,,
क्यों विलापें नयन,, हे भोले!
क्यों प्रलापे विक्षिप्त कविता ,,,

सब भस्म करके राख कर दो
मन के जल को आग कर दो
खोल अपना नेत्र तीजा,,
हे प्रभू सब विनाश कर दो!!
फिर लिखू ना कोई छंद रोता
शिल्प कोई ना अक्षुण्य होता

क्यों विलापें नयन ,,हे भोले!!
क्यों प्रलापें विक्षिप्त कविता,,
~लिली🌷
🌷🙏ॐ नमः शिवाय🌷🙏

शनिवार, 4 अगस्त 2018

मेरा साहित्य

ना जाने क्यों रह-रहकर बैराग सा जागता है,,,तन इस धरा पर विचरता सा पर मन आसमान में बसे उस शून्य की तरफ़ भागता है। घुलती सी लगती है हर तलाश,हर तड़प,हर प्यास,,,,,सब कुछ प्राप्त सबकुछ पूर्णता लिए मुझे ताकता है। लिखने को छटपटाती है ,,,पर वह वेदना भी नही वह हर्ष भी नही,,वह जिज्ञासा भी नही,,वह प्रश्न भी नही,,,, पर कुछ है जो अन्दर भभकता है। ना जाने क्या पकता है,????
      रहस्य के भंवर में खुद को छोड़ दिया निर्बाध,,,!! नही रास आती सांसारिकता में निर्लिप्त मानवीय क्रियाकलाप। कुछ अलग रचना चाहिए,,क्यों ये अपराधों का बखान,,क्यों भ्रष्टाचारों का बयान,,,,तिल-तिलकर मरती-घुटती मानवता की यह नृशंस चीख-पुकार!!!!!!!!
   आहहहहहह!!! निकालना है ! निकलना है!! इन प्रताड़ित वेदना,व्यथा दरिंदगी से रचा साहित्य नही चाहिए!!!
       साहित्य मेरा बहुत सौम्य है!! बहुत सुकोमल है!! जिसका सानिध्य आकुलताओं को अपने सरस स्पर्श से आनंदित करता है,,,मन-मस्तिष्क में सौन्दर्य और सुललित सोच की 'अजंता-एलोरा'',, जी कला-कृतियां बनाता है!!!
      मेरा साहित्य 'शिव' सा योगलीन शान्ति और सत्य का प्रेषक है!!!
   हे कलम के पुरोधाओं!! उस ओर चलो!! शिव सम साहित्य रचो!! समाज को शिवालय बनाओ!! चित्त को ओंकार करो!!!
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

लिली 🌷

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

चुभती सी कविता

                        (चित्राभार इंटरनेट)

अब कोई शब्द नही मिलते,,
संवाद थम से  गए हैं,,
कोरे पन्नों को ताकती
रहती हूँ,,,
बेबस नज़रों से,,,
तुम्हे लिखने की तलब
बेचैन करती है,,
मेरी ऊँगलियों को,,
पर,,,,,,कैसे लिखूँ,,?
क्या लिखूँ,,,????
अक्सर तुम्हारी बातों
सें कुछ शब्दों की कतरनें
चुनकर रख लेती थी,,,
फिर उनकी दुशाला
सी कविता बुनकर,,,
लपेट लेती थी खुद को,,,
खुश होती थी तुम्हारे,,
एहसासी स्पर्श को पाकर,,,
,,,,,पर,,,,,
अब तो ना संवाद हैं,,
ना शब्दों की कतरने,,,
बस उदासी की
टाट सी खुरदरी कविता है,,
चुभती हुई,,,

~लिली🍃

शनिवार, 14 जुलाई 2018

मोह से बसंत ना लिक्खो जाय

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

सखि मोह से बसंत ना लिक्खो जाए!❤

हृदयारण्य की कुंज गलिन में
साजन मिलने आए,,,
बैठ प्रीत की सघन ठौर में
जियरा अकुलाए संकुचाए,,

सखि मोह से बसंत ना लिक्खो जाए!!❤

अति आनंदित अधर गुलाबी
लरजाएं मुस्काएं,
स्पर्श पिया का विद्युत सम
सकल देह लहराए,,

सखि मोह से बसंत ना लिक्खो जाए!❤

मुख से एक भी बोल ना निकले
नयना झरते जाएं,
ना जाने कैसी अनुभूति
सुख सागर गहराए,,

सखि मोह से बसंत ना लिक्खो जाए,,!!❤

गीत मिलन के कोयल गाती
अम्र बौर बौराएं,
एक दूजे में खोई सृष्टि,
ऐसो बसंत ना लौट के जाए,

सखि मोह से बंसत ना लिक्खो जाए!❤

लिली मित्रा🌾

मन का कोना

                      (चित्राभार इंटरनेट)

अंतस जब किसी
दूब की धार से छिल
जाता है,,
,,,,या,,
ओस की शीतल बूँद
से किसी भाग पर
फफोला पड़ा
जाता है,,
कराहती पीड़ा के
अंतरनाद से,,
द्रवित हो जाती हैं,
मुट्ठी में समा जाने
वाले हृदय की
तंग गलियां,,
तब ना आत्मसंगी का
कंधा काम आता है,,
ना किसी आत्मीय चंदन
का लेप शीतलता
पहुँचाता है,,
तब ,,,
बस,,
एकमात्र,,,
 मन के कमरे
का कोई सूनसान सा
कोना याद आता है,,
जिसे पहले अश्रुजल
से धोकर साफ़
किया जाता है,,,
फिर सिकुड़कर,,
समेटकर,,
अपने सख्त घुटनों
पर ,,
उदासीन ठुड्ढी को
टिकाया जाता है,,,
संवेदनाएं अपनी सभी
मनोविकृतियों-प्रवित्तियों
को गले लगा,,
खूब रोती है,,
तब जा कर कहीं,,,,,
दुखते दर्द को
कुछ आराम आता है,,,

अंतस जब किसी
दूब की धार से छिल
जाता है,,
किसी का कंधा नही,,,
 सख्त घुटनों पर
उदासीन ठुड्ढी को टिका,,
दर्द सहलाने के लिए,,
मन का सूनसान
कोना ही साथ
निभाता है,,,,






सोमवार, 9 जुलाई 2018

कप में बची काॅफ़ी

                     (चित्राभार मेरे पतिदेव😃)



टेबल पर काॅफ़ी का कप,,
मेरी तरह चुपचाप सा,,,
पंखें का शोर मेरे अंदर के
मौन सा,,,
सीने के अंदर एक उमस,,,,,,
,,,,बिल्कुल,,,
 इस मौसम के जैसी,,,,,,
जानती हूँ कप के तल में
बची थोड़ी सी काॅफ़ी,,
सूख जाएगी,,
कप भी धुल कर,,
 अपनी जगह पहुँच जाएगा,,,!!
पर मैं???????

मेरा क्या,,,?,????
चुप के शोर में,,
उमसता अंतस,,लिए,,
मै भी कप की बची काॅफ़ी सी,,,
सूख जाऊँगीं,,,
,,,,,और,,,
खुद ही खुद को उठाकर,,
इन जज़्बाती बवंडरों को
समेट,,,
रख दूँगीं धो-धाकर किसी
ताख पर,,,

बुधवार, 4 जुलाई 2018

बचपन

                       (   चित्राभार इंटरनेट)

दिल में अपना बचपन सदा जीवित रखिए,,
उम्र के पड़ाव से परे,,दिल तो बच्चा है जी👶👶👶👶
💃💃💃💃💃💃💃💃💃💃💃💃💃💃

उम्र के किसी पड़ाव
से, कब बाँधा है बचपन?
दिल के आंगन में,,,
नीम के पेड़ सा पाला
है बचपन,,

सयानेपन की धूप से,
जब जलने लगता
बदन,,
फूँदकतीं गिलहरियों
सा, नीम की छांव में
दुलारा है बचपन,,

ज़िम्मेदारियों के बोझ से
पचक जाता है,मन
बीनने नींबौरियां,यहाँ
दौड़ आता है बचपन,,

उम्र के किसी पड़ाव से
कब बाँधा है बचपन,,
दिल के आंगन में,
नीम के पेड़ सा,,
पाला है बचपन,,

लिली☺

शनिवार, 30 जून 2018

मेरे रोज़नामचे,,,










ऐ मेरे एहसासी दुनिया के हमसफ़र!!
मेरी क़लम की स्याही,,
मेरे काग़ज की सफ़ेदी,,
तुझे रोज़ लिखती हूँ
"रोज़ नामचे" की तरह उसपर,,,,
कितने नए 'शब्द' देता है तू
और मैं पूरे हक़ से उड़ाती हूँ
तेरी 'तनख्वाह' की तरह,,,
कोई 'अमृता' शायद मुझमें भी
पनपने लगी है ,,,
बड़ी ख़ामोशी से,,,,,
करने लगी हैं ख्वाहिशें,,
जिस्मे से परे कहीं क्षितिज
के उसपार  तुझसे मिलने की
हसरत हो रही हावी,,,,
घुलकर होने को एकसार ,,,
तब कलम से नही ,,,
लिखूँगीं अपनी अंगुलियों से तेरे
सीने पर अपनी कसमसाती
मोहब्बत की नज़्म को,,,
कर दूँगी मेरा वजूद
तुझमें तार-तार,,,,
हर तार में गुथ लूगीं तुझे,,,
इतनी शिद्दत् से ,,,
के तू मेरी गिरफ़्त से
कभी हो ना सकेगा आज़ाद,,,
तब तक,,,,
मेरे 'रोज़नामचे' दर्ज होते रहेगें,,,
मेरी कलम से,,,
तेरी स्याही से,,,
मेरे दिल के काग़ज़ पर ,,,
रोज़ ,,,,, हर रोज़,,,,,,,

लिली🍃

शुक्रवार, 29 जून 2018

खुली हथेलियां,,,बारिश में

                      चित्राभार इन्टरनेट)

एक प्रयास चित्र पर
🍃🍃🍃🍃🍃🍃

उमस बहुत थी,,,
चिलचिलाहट तपिश के साथ,,
कचोटने लगी थी बदन को,,,
कुछ था जो बादलों मे
बूँदों का बोझ बढ़ाता
जा रहा था,,,,,,
कुछ फटकर ,,
बेतहाशा बरसने को बेताब, ,,,,,,
,,,,,,,और देखो,,,,,,,,,
वो फट पड़ा,,,
यकायक,,,बेख़ौफ़
बेपरवाह,,,आज़ाद,,
हर बेड़ियों से होकर,,,
बरस पड़ा है मुझ पर,,,
मैने भी छोड़ दिया है पूरा
जिस्म आज़ाद,,,,,,,
नही कर रहीं मेरी हथेलियां,,,
बारिश को मुट्ठियों में कसने की,कोशिश,,,,
खोल दिया है हथेलियों को,,,
इस उम्मीद में,,,,
,,,,,के,,,,
शायद बह जाए लकीरों
मे छुपा मेरा चिलचिलाता नसीब,,
कुछ सावनी सी हरियाली
 की आस में मैं भींगती रही,,,
भींगोती रही,,,,

लिली मित्रा🍃

बुधवार, 27 जून 2018

तब मानू तुम मेरे हो

कुछ अपनी भी रिश्तेदारी हो
मजबूरी दुनियादारी हो,,
तेरी तनख्वाह मे जानम
कुछ मेरी भी हक़दारी हो,,

भाजी-सब्जी की बाते हों,
एक घर में दो अन्जाने सी,
हम दोनो की भी रातें हों,,
चाय का कप ले संग साजन
घर-गृहस्थी की सौगाते हों,,

लिपटे कई झमेले हों
तब तो मानू तुम मेरे हो,,


हर बात मेरी ही चलती हो,,
मर्जी तेरी ओ बालमवा !
झकमार के हामी भरती हो,
बाहर जितनी भी ठकुराई झाड़ो,
घर की ठकुराई मेरी हो,,

सुख-दुख के सजते मेले हो
तब तो मानू तुम मेरे हो,,,

ये एहसासों में कैसा जीना?
दिल की धड़कन तो कहते हो,,
जीवन की सरगम गहते हो,,
दो शब्द कभी तो बिन बोले ,
बस ख्यालों में जी लेते हो,,!!

दुनियावी बातों के ठेले हों
तब तो मानू तुम मेरे हो,,,

लिली

सोमवार, 25 जून 2018

वृष्टि,,,,,

बस मौसम ही ना बरस रहा शायद,,
वरना अंतस की आद्रता हर रोज़
वाष्पित हो रही,,परिस्थितियों की
तपिश से,,,,
बनते रहते हैं सतत् मेघ संवेदनाओं
के प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,

नयनों के कटोर बांधने में
असक्षम् हैं घनीभूत घनों के
जोर ,,,
देखो ना!!! देखो तो,,,,,
भीग रहा है गालों से
 हृदय तक का श्रापित धरातल
प्रतिपल,,प्रतिक्षण,,,,

अब किस मुख से करूँ गुहार??
हे देव तुमसे!!!
तुमने तो मेरी मरूभूमि को
'सदाबहार वनों' में कर दिया,,
परावर्तित,,,
अब कुछ भी कटीला नही,,,
भू का कोई भी कोना दरार लिए
हा हा का चीत्कार नही करता,,,
हर जगह उगी है हरियाली,,,
शान्त हो रही तृषा,,,
प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,

हे देव!!!!
यह कैसा समायोजन???
अतिरेकित अतृप्तताओं का,,,
तृषित हो रहा अब,,,,

घुलने को आकुल हो रही
हर वेदना,,हर व्यथा,,
सघन घन गर्जना संग होते
मौन वृष्टिपात में,,,
प्रतिपल,,,प्रतिक्षण,,,,,,

मौसम बदल जाय

उमस,बारिश,
चिलचिलाती धूप,

दुर्गंध,मन,उचाट,
गहरी सांस,सूनापन,

उदास गज़ल,तल्खी,थकान,,,
ये भावों की बेमेल भीड़,

सार्थक वाक्य बनते नही
कागज़ उड़े,कलम चलती नही

फिर भी मै लिखने पर अमादा
ज़िद है एक,,शायद उतारने से
भाव कागज़ पर मौसम बदल जाए,,,,,,,,,,
~लिली😊

इन्द्रधनुष

सब रंग खोए मुझमें थे
मैं खोज रही थी
इन्द्रधनुष,,,
जाने मन के,किस कोने
में था एक सघन हरा-भरा
झुरमुट,,,,
तुम छुपे वहीं बैठे थे,मुझमें
मै इत-उत ढूँढू स्वप्न
पुरूष,,,,
कहो छुपे तुम क्या करते थे
क्या सुख पाते,मुझे देख
कलुष,,,
अब पाकर तुमको,जगमग
अंतस,मन कानन के तुम
आरूष,,,

लिली ☺

(कलुष शब्द से यहाँ आशय=दुखी/क्षुब्ध होने से है)

तुम निठुर!!

छद्म भेष धर आते हो,,
हर बार मोहे छल जाते हो,,
मैं निर्मल निर्झर भाव मनी,,
तुम निठुर! हृदय दल जाते हो।

आकुल मन और बिसरा तन
तुम जीवन के अनमोलित धन
 ठग बन,सब हर ले जाते हो
तुम निठुर! हृदय दल जाते हो।

कित खोए कुछ तो बोलो अब?
सुध लोगे प्रियतम मेरी कब?
श्वासों की गति मंथर कर जाते हो
तुम निठुर! हृदय दल जाते हो,,

लिली🌿

सोमवार, 18 जून 2018

अंजाम मेरे आगे,,



                        (चित्राभार इंटरनेट)


ना जाने क्या पढ़ना चाहती हैं
 हसरतें,,
उसकी लिखी पुरानी
 बातों में,,
जबकि मैं होश में हूँ,,,,,,,,,,
और अंजाम,,
मेरे आगे।

हर शब्द पे डालती हूँ,
अर्थों के
 बहुआयाम,,
मतलब है साफ़
और बानगी,,
मेरे आगे।

फिर भी,,,,
भिड़ाती हूँ तर्कों को,, वितर्कों से,
चीरती हूँ,,दिलों पाट,,
और ,,खुलें वही
ढाक के तीन पात
मेरे आगे।

लिली🌿

रविवार, 10 जून 2018

आश़िक किनारा,,,

                    (बारिश में भींगता बम्बई का समन्दर)

आशिक किनारा
🍃🍃🍃🍃🍃🍃

बेइमान से मौसम में
बहका सा,,,,,,
समन्दर का,,,,,,
आशिक़ किनारा,,,

ऐठती लहरों में मचलती
हसरत लिए,,,,
समन्दर का,,,,,
आशिक़ किनारा,,,

कनखियों से लुक-छुप
कर देखती मेरी नज़र को,
शरारती मुस्कान लिए भांपता,,
समन्दर का,,,,
आशिक़ किनारा,,,,,

इश़्किया बारिश में
भींगती अपनी गठन,
दिखाकर लुभाता ,,,,,,
समन्दर का,,,
आश़िक किनारा,,

 हया  भरी आंखों में,,
दबे अरमानों की पलक,
 गिराकर,,,,,
 मैं बड़ी तेज़ी से
गुज़र आई,,
धड़कते दिल को अपने उभारों
से कुचल कर,,,
मैं बड़ी तेज़ी से
 गुज़र आई,,,,,
देखना चाहा दिलभर के,,
पर देख ना पाई,,,
समन्दर का ,,,,
वो आश़िक किनारा,,,

~लिली 

शुक्रवार, 8 जून 2018

इसको भी बारिश कहते हैं,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)


जब तपते मन के सूखे पोर
भर जाएं पाकर प्रेमिल झकझोर
बोझिल नयनों के तकते कोर
तर जाएं आंसुओं से सूने छोर
इसको भी बारिश कहते हैं
सब बांध तोड़ झर बहते हैं!!

ओसार में गिरते बूँदों के शोर
टप टप का नर्तन होता चहूँओर
खिड़की से आती बौछारें पुरजोर
मन फिर भी प्यासा ताके तुझओर
इसको भी बारिश कहते हैं,,
जो भींग के भी प्यासे रहते हैं!!
~लिली🌿

अजि सुनते हो क्या,,,,!!!


अजि सुनते हो क्या!!!

ये पुरवा क्या कुछ कहती है,,,!
डाल पात सब बहकी है,,
बादल क्यों लेता अंगड़ाई!
क्यों ले हिचकोले तरुणाई?

अजि सुनते हो क्या,,,,,!!!

मगन गगन कुछ नटखट है
तपित धरा मन छटपट है
मुझको क्यों तुम्हरी याद आई?
क्यों बजती प्रीत की शहनाई

अजि सुनते हो क्या,,,!!

बोलो ना क्यों हो मौन धरे?
कहदो कुछ तो नहि चैन पड़े,,
मधु बैन कहो ओ हरजाई
क्यों समझों ना गोरी अकुलाई

अजि सुनते हो क्या,,,!
~लिली🌿






रविवार, 20 मई 2018

मुझे एक पेड़ बना देता,,,

                      (चित्राभार इंटरनेट)

तपती धूप में
अकेला,,,
घनी छांव लिए
वो शजर अलबेला,,

कौन उसकी झुलसती
शाखाओं को सिंचता है,,?
वो तो खुद ही की जड़ों से
पाताल सें नमीं खींचता है,,,,
मुसाफ़िर दो घड़ी सुस्ता के
नर्म निगाहों से सहला गए,,
वो काफ़िर सा अपनी ही
दरख़्तों को भींचता है,,

कोई चेहरा नही उसका,
जिसपे उभरते जज़्बात पढ़ती,,,,
डाल से झरते पीले पत्तों की,
अनकही पीड़ा समझती,,
मेरे मालिक!
तू मुझे भी एक,
पेड़ ही बना देता,,
मेरे अंदर की कचोटों को
भूरे तने की खरोंचों सा
सजा देता,,,
सीने का लहू सूखी टहनियों
सा गिरा देती,,
कोई बेघर सी चिड़िया
उसे अपने घरौंदें में जगह देती,,

कोई बवंडर सा आता तूफान,
मेरे वजूद को हिला देता,,,,
मेरे थकते हौंसलों को
अपनी आगोश में गिरा लेता,,,

मेरे मालिक!!तू मुझे भी
एक पेड़ बना देता,,,,,,,

शनिवार, 19 मई 2018

कृष्ण गीत

                             (चित्राभार इंटरनेट)

मन में मुरतिया श्याम की बसाय के
चली राधा पनघट सुध बिसराय के
तन कुंज लता सम लहराय के,,
दृग अंजन में खंजन छुपाय के,,

ल्यों मनमोहन मोहे अंग लिपटाय रे!
रहो हरित बदन चटख कुम्लाय रे!
पग डगमग भटक कित जाय रे!
मदन मन-मृग मोहित तोहे बुलाय रे,,!

गौरैया हिय की अकुलाय हो!
पैजनिया पग की सुस्ताय हो!
पिय प्रीत गागर छलकाय हो!
भरो अंक हरी काहें भरमाय हो!!
लिली 🌿

टेसू

                         (चित्राभार इंटरनेट)


टेसू मेरे मन के
चटखीले से
और
तुम आसमानी
कैनवास बने
मुझे अपने पटल
पर सजाए
चित्रकारी की ऐसी
मिसाल ना मिले शायद
रख लूँ सहेज कर
सदा के लिए
अपने दिलो दमाग़ के
एलबम में
ना जाने कब,,
मौसम बदल जाए
और टेसू झर जाएं
पर
सुनो ना
तुम अपना
आसमानी कैनवास लिए
ऐसे ही फैले रहना
मेरी शुष्क शाखाओं
को अपने पटल पर
सजाए
मैं फिर खिल जाऊँगीं
तुम्हारे नीलाभ की
आगोश का स्नेह
पाकर,,

गुरुवार, 3 मई 2018

तुम्हे तो चले ही जाना है,,,,

             (चित्राभार इंटरनेट)

आज एक अपराध करने जा रही हूँ हृदय में दुस्साहस भर,,, कवि गुरू रविन्द्र नाथ जी की एक रचना ' तुमी तो शेई जाबे चोले' को हिन्दी में व्यक्त करने का,,, क्षम्य नही है यह दुःसाहस पर मन किया तो कर गई,, तो अपने दोनो कानो को पकड़ ,,आपके समक्ष रचना प्रस्तुत करती हूँ,,   


हे प्रियतम्!!
तुम्हे तो चले ही जाना है
शेष का अवशेष भी
ना बाकी रहना है,,,,

हे प्रियतम!!
तुम्हे तो चले ही जाना है,,,,,
मेरे हृदय को व्यथित कर
तुम तो चले जाओगे,,,
पर अंतस में सब,,
जीवित ही रहना है,,
 ,,,के,,,
हे प्रियतम!!
तुम्हे तो चले ही जाना है,,,,

हे पथिक!!
अलमस्त सरीखे,,
आ पहुँचे मेरे कुंजहृदय में
निज चरन से अब,
दल दो,, जो भी,,
ढक लूगीं निज अंतस रंध्रों में,,
सांझ ढले आधार तले
बैठ अकेली  हृदय भरे,,
निज व्यथा सहेजूँ,,
धर मधुर करे,,
विदा-बंसुरी के करूनाते स्वर,
कर देगें मग्न,,
संध्या अंबर,,,,
दृगजल में मैं,,
दुख की शोभा भर,,,
रख दूँगीं सबकुछ
नूतन कर,,,

क्योंकि,,

हे प्रियतम्!!
तुम्हे तो चले ही जाना है