(चित्राभार इंटरनेट)
नील-अश्विन आकाश पर,
हैं तैरते
सफेद बादलों के,
उत्सवी गुच्छ,,,
मंद हवा के झोकों में,
कुछ है शीतलता का पुट,,
किया धरा ने धारण
लहलहाते कास-पुष्प,,
किलक कर झरते
बयारी स्पर्श से,
'शिवली',,
पा दूब्र का हरित आलिंगन
द्रवित हुआ अंतर शुष्क!!
ढाक स्वर किल्लोलित
सरित जल में,,
आगमनी गा रही
हर दिशा हो अनुष्क,,
आ रही हैं देवी
फिर लिए ,
आनंदोत्सव
फिर व्योम उल्लासित
हो इन्द्रधनुष,,,
लिली🌾🌿🌼
बारिश अभी खत्म भी नहीं हुई है पूरी तरह और प्रकृति में हो रहे नवपरिवर्तन को सुरुचिपूर्ण ढंग से कलमबद्ध करना एक कोमल मन और दृष्टि की विशालता का परिचायक है। रचना पढ़कर एक ओर प्रकृति की साज - सज्जा का पता चल रहा है दूसरी और देवी आगमन की भी पुनीत आहट है। शब्द संयोजन, भाव अभिव्यक्ति और प्रकृति और देवी का संयोजन सहज आकर्षित करता है जो प्रशंसनीय है।
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