शनिवार, 1 सितंबर 2018

प्रस्तुत हूँ ,,,,

(चित्राभार इन्टरनेट)
श्रावण की झमकती बूंदों मे...धुल जाए मेरा प्रखर रक्ताभ ,,गुच्छ के गुच्छ प्रस्फुटित करने  मे व्यस्त है अंतस ...चाह शेष न रही अब..दमकती लालिमा संग आभायमान होने  की । चरम के उत्कर्ष का शोभित यौवन है ..मेरी कोशिकाओं मे अंगड़ाई लेता ..!!!! बरखा तू ये न समझना तेरी. सावनी बूंदों मे छुपे मेघ के प्रीत स्पर्श से,,, आलोड़ित है मेरा रंग-रूप । यह तो शेष का उन्माद है ,,,और स्वयम की  तिलांजलि दे ,,,मिटा देने की आहुति-प्रक्रिया। मेरे रंध्रों से झरते पराग-कण..पंखुड़ियों पर स्पष्ट रूप से मुखर होती शिराएँ मेरे तर्पण के उत्सव मे अति उत्साह से सक्रिय हो निज कर्म को उद्द्त ..!!! हाँ तर्पण,,,,,स्व-अस्तित्व का ,,,स्वम के हाथ ,, जी चुकी जीवन के वे अनमोलित-क्षण,,,मधुमास मेरे जीवन-काल का ,,,,जी चुका अंतस ,,,अब अपने अंतिम लक्ष्य की ओर उन्मुख हूँ ,,, मैंअपने रक्ताभ की शेष आभा के साथ ,,,प्रस्तुत हूँ,,,,

लिली मित्रा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें