मंगलवार, 11 सितंबर 2018

मेरी सबसे अंतरंग सहेली,,,,, 'मेरी हिन्दी'

                      (चित्राभार इंटरनेट)
इत्ते दिनों टिमाटर मुगालते मे रहे,के उनके बिना कौनो सब्जी में सुवाद ना लगी,,,तो एक दिन हुआ यूं के गोभी के सब्जी फांद लिहिन चच्ची,भून-भान के बड़े स्नेह से गोभी आलू सब 'साइडिया' के टिमाटर लिहे खातिर फिरिज के तरफ लपकीं,,,। आय हो,,का देखती हैं के एक्कौ टिमाटर धरा नही कौनो कोना मा,,🙄 !!!!
        अब ल्यो हुई गवा 'मूड' के सत्यानास!!! गोभी भून्नाय रही,आलू खुन्नाय रहे पिलेट में,,,,के चच्ची बनावे से पहिल,,,सब जुगाड़ जुगत पहिले से नही देखति हैं😏😏 अरे अब कैसे हमार सब्जिया का सुवाद बढ़ी।
     कहीं दूर 'टिमाटर परदेस' में जब टिमाटर लोगन अपने 'इम्पार्टेन्स' का रेडियो बिजुरिया से भान पाए तो मनही-मन फूल फूल के टकाटक ललियाए गए,,,।
   पर भइया!! चच्ची हो कम जुगतबाज नहि रहलि हैं,,,,तुरन्तै,,,कटोरिया में रखे रहिलि 'दही' मुस्कियाते हुए 'इन्टयाइ' हैं "किचनवा' मा औउर दन्न से फेटफाट के,,, बनाए दिहिन "ढाबा इश्टाइल लबाबदार गोभी के सब्जी" अह्हाआ 'पाँचों अंगुरी चाट' बने रहिल सब्जी ऊ दिन,। मुगालता टिमाटर के रह गइल उन्ही के खेत मा उघाते हुए!!!!
,आह तो ये मेरी हिन्दी !!! मेरी सबसे अंतरंग सहेली,,,!!, जो मेरे मन के उछलते कूदते मसखरे भावों को शब्द देती है। कुछ भी कैसे भी उड़न-चंडी से बौखलाए ख्याल,,बेसर पैर की कल्पनाओं के बेताली भूत या फिर बहुत घनीभूत भावों के सावनी मेघ गड़गड़ाते हैं तब शब्द वर्षा कर हृदय के तपते धरातल को अभिव्यक्ति की सोंधी गीली माटी देती है!!!! जिसके शब्दों का सहारा मेरी आत्म अभिव्यक्ति को संतुष्टि का चरम प्रदान करती है।
      मुझे मेरी जैसी लगती है,,कभी मनचली, कभी हठधर्मी, कभी फक्कड़, कभी अलसाई, कभी शान्त।
हृदय से मस्तिष्क तक इसने मुझे सम्मोहित कर अपने प्रेमपाश से वशीभूत कर रखा है,और अब मैं पूरी तरह इसकी गिरफ्त में हू। सच कहूं तो इसकी व्याकरण,इसके उपमान,इसके रूपक ,अक्षर, शब्द ,वाक्य या कहू इसका सारा वजूद इतना घुलनशील है के मै आजतक समझ नही आई कि ये मुझमें घुली है या मैं इसमें विलय हो गई???? लिखते वक्त ये मेरी ताल पर नाचती है,,,,या बड़ी चतुराई से अपनी डुगडुगी पर मुझे नचाती है??? नौ रसों का शरबत बड़े कौशल के साथ फिटवाकर,,सबमें बटवा देती है।

        ना जाने कितनी विविधता लिए,अपने सरलतम् ,सहजतम् रूप से इसने मुझे अपनी तरफ ऐसा आकर्षित किया ,,,और वह आकर्षण कब थोड़ी नोक-झोंक, मान-मनुहार के साथ गहनतम् प्रेम में परिवर्तित हो गया,,,,पता ही नही चला,,,,??? 
      हाँ 'प्रेम' ना जाने यह "ढाई आखरी" शब्द कितने रुपों में इस सृष्टि में अपना अस्तित्व रखता है कहना मुश्किल,,,। कई बार हुआ ऐसा ,,के मैं भटकी,,,इधर-उधर,खुली खिड़कियों से दिखने वाले सीमित अभिव्यक्ति-व्योम की तरफ लपकी। पर मेरी हिन्दी शायद मेरी तुलना में, मुझसे भी अधिक मुझे प्रेम करती है। इसने मुझे खुद को इतना लचीला,,इतना जल सम, सहृदयी, सहिष्णु,और विशाल हृदयी बना डाला ,और मुझे खिड़कियों के फ्रेम में घिरे आसमान,,,से बाहर निकाल असीम अभिव्यक्ति लोक दे डाला,,,,। जहाँ मुझे कोई बंधन नही दिखता। मैं अंतर के भावों को अपनी इच्छानुसार आकार देने लगी। यहाँ कोई कोना नही दिखाता मुझे,,,,,,,दिखता है तो एक वृहद विस्तृत विस्तार,,,जहाँ ना शब्दों का अभाव है,,,ना किसी बाह्य विदेशी, शब्द के लिए अस्वीकृति,,,जो हर दशा,हर देशकाल, को व्यक्त करने में समर्थ है।
        सबसे सुन्दर बात मेरी हिन्दी सुशील है, सरल है ,सरस है,और हर रूप में स्वीकार्य है,,,,!!! शब्दकोश में महासागर है,,चाहे जितने नीचे जाकर गोता मारो,,,सदा रत्नगर्भा सी ,,झिलमिलाती मुस्कुराती मिलती है।
         मेरा मन नही था के हिन्दी दिवस पर मैं,या तो इसके समृद्ध खजाने से निकाल मुक्ता मणि उड़ाऊँ,,!
आलोचना करूं,,,!
इसको अधिक से अधिक लोगों तक कैसे पहुचाया जाय,,इस पर सुझाव दू !
या इसके बिगड़ते स्वरूप को सुधारने हेतु समाधान लिखू,,,,!  
     मेरा मन नही था ,,,मैं मेरी हिन्दी को फटी-चिथड़ी दयनीय दिखाकर लोगों के आगे इसके प्रति सांत्वना या 'सिम्पेथी' की गुहार लगाऊँ। 
      मै तो अपनी सबसे अंतरंग,मेरे हर प्रकार के भावों की 'अभिव्यक्ति संगीनी' हिन्दी को  उसके प्रति मेरे मन की गहराइयों तक बह रही तरल,ठोस,वाष्पित हर प्रकार के प्रेम बिना किसी लीपा-पोती के विशुद्धतम् रूप में सम्प्रेषित कर सकू।
   मेरे विवेक,मेरी भावुकता,मेरी चेतन-अवचेतन बुद्धि द्वारा हिन्दी दिवस पर इससे सकारात्मक अभिव्यक्ति दूजी नही सूझी।
        भारत माँ के माथे की बिन्दिया के साथ-साथ ये मेरे माथे की बिन्दियां सी सदा मेरे हृदय कपाल पर जगमगाती रहे। 

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