बुधवार, 26 अप्रैल 2017

मै प्रतीक्षा रत,,,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

सुनो,,,,अन्जाने रिश्ते, अन्जाने ही होते हैं,,हवा मे तैरते से ,,,
बहुत सारे बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों से,,हाथों की मुट्ठी मे पकड़ने की कोशिश करना बेकार है,,,। कल्पनाओं की वाष्पित जल-बिन्दूं हैं।
       हालातों के सूरज ने मन के अतृप्त अधूरे स्वप्न-जलधि को वाष्प बनाकर हवा मे उड़ा दिया है। अब हमारे आसमान पर तैर रहे हैं सब बादल बन। बस इनको दूर से देखना,,,,बाहों मे भर अपना बनाने का अरमान मत रखना,,ये वाष्पित जल-बिन्दुएं हैं,,,,आलिंगन मात्र से झर जाएंगीं। बस भीग जाओगे कुछ क्षण के लिए,,,आह्लादित हुए से,,,तुम क्षण भर भाव-विभोर हुए से,,खुद को ही आलिंगिकृत किए,,,भ्रमित से,,,कि तुमने किसी को समेट रखा है भुजापाश मे,,,।
    होश मे आओ,,,!!! सुनते हो होश मे आओ,,,!!!!! देखो तो आंखे खोलकर कुछ नही है बाहुपाश मे,,,।अब तक वाष्पित जलकणों के जल से जो तुम्हारा आत्म-वस्त्र था वह भी सूख चुका है,,। सुनो,,,,!! उठो,,,,!
    यथार्थ की पुकार बड़ी कर्कश,,,,भेद जाती है हर अभेद्य को,,,फिर यह तो एक तन्द्रा थी,,एक स्वप्न था,,एक मृगतृष्णा थी,,,और यथार्थ कहते है,,,,, "जो प्राप्त है वह पर्याप्त है" (कहीं पढ़ा था इस पंक्ति को) नियति निर्धारित है "प्राप्त" अतः मृगतृष्णाओं के पीछे मत भागो,,,, जितना मिला उसे 'पर्याप्त' समझो और जीवन गुज़ारो,,,,,। उफ्फ यह कैसी शुष्कता आ गई यथार्थ की ज़मीन छूते ही मेरे लेखन मे,,,????
 जब तक मेरे शब्द आज के सुहाने मौसम के आसमान को देख लिख रहे थे,,,तब तक सब कुछ काव्यात्मक था,,,अनुभूतियों की अभिव्यक्तियां,,,बादल सी तेज़ अंधड़ के आवेग में इधर-उधर दौड़ रही थीं। जब आह्लादित हो मैने एक बादल बाहों मे भरा तो मेरा आत्म पूरी तरह भींग गया,,,,और मै बहुत देर तक आंखे मूंदें पड़ी रही उस भीगेपन की शीतलता लिए,,,।
      समझ नही पा रही क्या करूँ 'प्राप्त-पर्याप्त' को लेकर संतुष्ट हो जाऊँ,,या फिर आसमान मे उड़ जाऊँ।
 लिखने लगी थी तब कुछ और भावों को तैरते पाया था आसमान मे,,,,,,कुछ क्षण के लिए ज़मीन पर नज़र डालने लगी,,,आंधी के परिणाम स्वरूप घर मे प्रवेश कर रही धूल को रोकने के लिए,,खिड़कियां बन्द करने गई,,,,,,,,, बस भाव बदल गए,,,। कैसी अद्भुत चंचलता इन भावावेगों की,,,,,! उद्दंड हो जाते हैं तो कभी शालीन हो जाते हैं,,,,उन्मुक्त हो जाते हैं तो कभी बाधित हो जाते हैं,,,,!
   किसी निष्कर्ष पर नही पहुँच पाई,,, त्रिशंकु की तरह अधर मे अटक गई हूँ,,,,ठीक है ना जब सब नियति निर्धारित है तो अटकी ही रहती हूँ,,,देखती हूँ मेरी नियति मुझे धरातल पर पटकती है या आसमान मे उछाल देती है ,,,।
मै प्रतीक्षारत,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

जीवन की सांझ हो चली है,,,

                         (चित्र इन्टरनेट से)

जीवन की सांझ हो चली है
वह भी जानती है वह अब जाने को है
समेट रही है अपनी ज़िम्मेदारियां
आहिस्ता-आहिस्ता,,,
बांट रही है जो है बचा-खुचा,,,
रोज़ गुछाती है घर-संसार अपने बेटा का,,,,
पता नही कौन सी शाम जीवन का सूरज ढल जाए,,।
कभी अलमारियों के कपड़े सहेजती है,,कभी रसोई की सफाईयां करती है,,,कभी भविष्य मे उसकी तकलीफों को कम करने के उपाय सोचती है,,,,और खुद को बहुत असहाय पाती है।
रोज़ बेटियों को फोन भी करती है,,,त्योहारों पर आशीष भी देती है,,,,,,,,,,,,,
क्योंकी वह जानती है जीवन की सांझ हो चली है,,,।
आंसूओं को छुपाती है,,,,जीवटता दिखाती है,,,पोती को पढ़ाती है,,स्कूल के लिए तैयार कराती है,,,उसके आने का इन्तज़ार करती है,,,,,गरम भात परसती है,,सब कुछ करती है,,,,,,,,,,क्योकी वह जानती है ,,,,
जीवन की सांझ हो चली है,,,,।
छोटी-छोटी गुजारिशें करती है,,,कुछ अटके कामों को करवाने की सिफारिशें करती है,,,,,,सबको खुश रखने की कोशिश करती है,,,,जानती हूँ अच्छे से,,,वो अकेले मे हाथ जोड़ भगवान के आगे खुद को अब बुला लेने की मिन्नते करती है,,,,,,,,क्योकि वह अब जानती है ,,,,,
जीवन की सांझ होने को है,,,
जीवन की सांझ होने को है!!

रविवार, 23 अप्रैल 2017

अभिव्यक्ति का एक रूप ऐसा भी,,,,

(चित्र इन्टरनेट से)

,,,,,क्यों द्रवित हो जाते हैं मनोभाव

नसिका पर डालते असहनीय दबाव

अश्रुओं का रोकने को सैलाब

रूप मे तुम्हारे ऐसा क्या फैलाव,,,??



प्रेम को और परिपक्व बना दो ,,
इसे मन के गहनतम कोर मे पहुँचा दो,,
समस्त अभिव्यक्तियों मूक कर ,,
स्मरण पथ को सक्रिय बना दो,,
तड़पन को तृप्ति का रस चखा दो,,
धड़कनों को अपनी आहट बता दो,,
सिहरन को अपनी छुअन बता दो,,
कल्पना को आनंद का उद्गम बना दो,,
हर उन्माद की अनुभूति का साक्षात्,,,,
कर्मक्षेत्र बना दो,,,
तुम नियति निर्धारित हर पक्ष को,,
मुझे मुस्कुराकर जीना सिखा दो,,
शब्दों मे भाव सम्प्रेषणा की कुशलता सिखा दो,,
बुद्धि को परे रख मन से मन का आत्मिक संवाद सिखा दो,,
प्रियतम मेरे मुझे अपनी नायिका
तो बना चुके,,
मेरे नायक बन एक प्रेम-उपन्यास लिखवादो,,
फिर मुझे चुप हो जाने दो,,,
बस अनवरत अपने मृदुल प्रीतगीत कानों मे जाने दो,,,
मुझे खो जाने दो,संगीत के संसार मे लोक-लाज से दूर झूम जाने दो,,
नयनों की भाषा को आज अपना अधिपत्य जमाने दो,,
सजल अभिव्यक्तियों को हौले से गालों तक बह जाने दो,,
कुछ देर पलक मूंद तुममे तरल-तरंगित हो जाने दो,,
लिखने के लिए क्या लिख जाऊँ,,,
लेखिनी को तुम्हारा रस पाने दो,,,
विधाओं का नही ज्ञान अब,,,
शुष्क गद्य मे कविता का रस आने दो,,,

(यह पंक्तियां बस बह निकलीं)

********************************
  प्रेम को परिपक्व बना दो
  प्रियतम गहनतम भाव मिला दो
 अभिव्यक्तियाँ मूक हो गईं सब
 एहसासों में उल्लास रचा दो
 तड़पन सुमिरै तृप्ति की माला
 धड़कन की अकुलाहट मिटा दो
 सिहरन छुवन छुवन संवेदित
 कल्पना में आनंद उद्गम रचा दो
 हर उन्माद अनुभूति कर्मक्षेत्र साक्षात
 नियति निर्धारित पक्ष को लहरा दो
 शब्द भाव सम्प्रेषण कौशल् दो
 बुद्धि परे आत्मिक संवाद सजा दो
 प्रियतम मेरे हो चुकी प्रियतमा तुम्हारी
 मेरे नायक बन एक उपन्यास रचा दो।।

(यहाँ कुछ संवर कर निखरीं)




गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

प्यार उम्र का मोहताज नही,,,,

(चित्र पल्लवी की डी,पी से चुराया😜😜)

प्यार कभी उम्र का मोहताज नही होता
जज़्बातों का मिलन, सरताज वही होता
सूरत भी है,लेकिन सीरत पर फिसलता
एहसासों की गरमी से पल मे पिघलता

प्रीतभरा मन हर मौसम मे है सिहरता
उम्र की सीमा से परे हर रूप है निखरता
हर बंधन को तोड़ नया आसमान बिखरता
 हौंसलों मे बुलंदी,कुछ कर गुज़रने की प्रखरता।

प्यार की दरख़्त की कोई उम्र नही होती,
हर पोर मे छुपकर नई कपोल है सोती,
एक बूंद पड़े प्रेम की, लहरा के है जगता,
कोमल नर्म अंकुर से, फूल बन के महकता।

व्यक्तित्व को मिले उठान,नज़र शोख सरसता
रूप छलकता रहे, अनवरत प्रेमरस बरसता
जागता जब, यह एहसास दबाए न दबता
ईश का आशीष ,इसे पल्लवित कर पनपता

प्यार कभी उम्र का मोहताज नही होता
जज़्बातों का मिलन,सरताज वही होता।

क्यों आते हैं लोग,,,जाने के लिए,,

भाव 'प्रिया' के, मैने बस शब्दों मे उतारा है,,सुन्दर भावों कों मुझ तक तरंगित करने के लिए 'प्रिया' को आभार❤





             क्यों आते हैं लोग
             ज़िन्दगी मे महकते
             एहसास लेकर
             खूब झनकाते हैं साज़
              संग प्यार का
              आगाज़ देकर।

             मै फैले किनारों सी
            अपनी ही रेत मे
             लिपटी मस्त थी
             क्यों मचलती मौजों
             से भिंगो कर
             चले जाते हैं।
             मेरी रेत को संग लेकर


            आना है गर जाने के लिए
            तो यू दिल ना लगाओ
            हसींन सपनों की फिर
            महफिलें ना सजाओ
            यूँ बिखेर कर यादों
            के मोती ता उम्र के लिए
            दूर मुझसे मत जाओ।

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

जीवन की प्रयोगशाला,,,,, यथार्थ और कल्पनाओं का रासायनिक समीकरण

                          (चित्र इन्टरनेट से)
     
             ज़मीन नही बन सकी
             तो आसमान बन गई
             यथार्थ से परे बस कल्पनाओं
             का जहान बन गई,,,!!

ऐसा होता तो होगा सबके जीवन मे,,,,नही तो यह ख़्याल यकायक उफ़ान नही उठाता ज़हन मे। इस जीवन रूपी प्रयोगशाला मे, हम सभी की एक अपनी-अपनी ताख़ है,, अलग-अलग आकार के कांच के मर्तबानों मे रासायनो से रखे हुए हैं। प्रयोग निरन्तर चालू है,,,,,,कभी जलाकर,,कभी तपाकर,,,,कभी हल्के से घोलकर,कभी डूबोकर छोड़ दिया जाता है परीक्षण हेतु,,,।
हर दिन कुछ ना कुछ नया बनता रहता है इस प्रयोगशाला मे।मानवीय स्वभाव का सहज कौतूहल,,,हर कदम पर प्रकृति के गूढ़ रहस्यों से परदा हटाने का प्रयास करता है,,, ऐसा क्यों है? यह मोड़ कहाँ तक जाएगा? ऐसा करके देखते हैं,,क्या होताहै देखें तो ? आदि आदि,,,   की जिज्ञासा हमे एक बहुत बड़ी सी परखनली मे डाल देती है,,जिसमे कहीं घूमावदार रास्ते हैं,,तो कहीं पतली संकरी नली,,कहीं हम अचानक से एक नली से एक गहरी बोतल मे गिर जाते हैं और नीचे रखे परिस्थियों के बर्नर से निकलती आंच हमे पकाना शुरू कर देती है,,,। फिर चाह कर भी इस पेंचीदा यंत्रजाल से निकलाना असमंभव हो जाता है। फिर तो कौतूहल का जोश धुआं बन यंत्र की किसी नली से बाहर निकल जाता है,,और हमारा एक नया ही व्यक्तित्व आकार ले रहा होता है।
   'ओखली मे सिर दिया तो मूसल के वार से क्या डरना ' वाले मनोभाव लिए एक वीर जूझांरू सिपाही की तरह,,, वीर तुम बढ़े चलो,,धीर तुम बढ़े चलो !!!! ,,,,,,हमारा यथार्थ हमे जला रहा होता है,,एक पेंचीदा यंत्र जाल मे बुरी तरह फंस चुके होते हैं,,,,परन्तु,,,,,,,,,,,, यह हमारा खुद का कौतूहल था खुद की जिज्ञासा थी नई परतों को खोल ताका-झांकी करने की,,,,अतः इस प्रयोग के अंतिम परिणाम तक हमे हर प्रतिक्रिया से गुज़रना ही पड़ेगा,,,।
   यहाँ से कल्पनाओं का संसार जीवन की वैज्ञानिक प्रयोगशाला से परे अपना आसमान दिखाने लगता है,,,।एक बहुत विस्तृत सा अशेष फैलाव,, एक क्षितिज लिए,,, जो प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे बड़ा मायाजाल है,,, मनुष्य की नज़रों का धोखा। आसमान छूने की चाह प्रबल हो जाती है इस क्षितिज रूपी मायाजाल को देखकर,,,,लगता है ,,,थोड़ा चलना ही तो है,,फिर तो ज़मीन पर खड़े होकर दोनों बाहों मे पूरा आसमान समेट लेंगें,,,,,मुस्कुरा उठी मै यह वाक्य लिखकर,,,,,,,,,। कभी कभी सत्य जानते हुए भी उस बात की कल्पना करना  जिसका वजूद ही नही,,,,फिर भी हम उसे सोचते हैं,,,,,,यह तथ्य मुस्कुराहट ला देता है,,।शायद 'कल्पनाएं' इसीलिए प्यारी लगती हैं,,, 'परीलोक' की परिकल्पना ऐसे ही तो आई,,। कहानियां इसी लिए तो दिल को छू जाती हैं,,यदि उनमें हमारे जीवन से मिलता-जुलता एक सामान्य सा अंश भी हो। जीवन की वास्तविकताओं से दो-दो हाथ करने की ताकत 'काल्पनिक जगत' से ही मिलती है,,,,,। "बेतार का तार" एक तार है जो जोड़े है,,दिखता नही ,,,,,, है भी और नही भी ,, 'वेन डायग्राम' सब कुछ छल्ले से दूसरे छल्ले कड़ीबद्ध है भी और नही भी 😃😃😃😃 ।
      ऐसा कोई नही जो जीवन की प्रयोगशाला के जटिल यंत्र मे ना फंसा हो,,,, ऐसा मुझे लगा,, हो सकता है कोई अपवाद भी हो,,, कुछ भी दावे के साथ नही कहना चाहिए,,क्योंकी ज़िन्दगी बस उतने ही घेरे में सीमित नही जितनी आपकी दृष्टि देख पाती है। चमत्कार और आश्चर्य भी यहाँ देखने को मिलते हैं,,,,। यहाँ विज्ञान बस अवाॅक सा मुहँ बाये खड़ा रह जाता है,,,,,। हाँ तो मै कह रही थी कि- कुछ अपवादों,आश्चर्यों एंव चमत्कारों को छोड़, सभी को इस जटिल यंत्र मे अपने कौतूहल के वशीभूत हो कर फंसना पड़ता है,,, एक बार जो फंसे भइय्या,,,,,,तब तो रासायनिक समीकरण झेलना ही  पड़ता है😃 फिर O2, H2O , K2SO4 या और कुछ बनने तक पकते रहो,,घूमते रहो,,गिरते रहो,,,और दिल को बहलाने के लिए कल्पनाओं के आसमान पर उड़ते रहो।
 
नए सपनों की परिकल्पना करो,,रोज़ नए 'परीलोक' की सैर करो,, । कोई एक उम्मीद लेकर ही कौतूहल जागा होगा जिसने हमे परखनली मे कूद जाने को उतावला कर दिया होगा,,,,उस उम्मीद की सुनहरी तस्वीरें आसमान पर खींचते रहिए,,मिटाते रहिए,,रंगते रहिए,,,।
 इसतरह हम मे एक रचनात्मकता का अंकुर फूटने लगता है। यह एक मूक संदेश है,,जीवन का हमारे नाम। जो हमे कुछ सम्भावित सम्भावनाओं के टूट कर बिखर जाने पर खुद को टिकाए रखने के लिए एक सहारा सिद्ध होने वाली होती हैं।
     आह,,लगता है मेरा यह लेख भी आसमान सा विस्तृत होने वाला है,,, पर तो मै विराम लगा सकती हूँ क्योंकी यह मेरे वश मे है,,,परन्तु उन्मादी विचारों पर विराम लगा पाना मेरे वश मे नही,,। मै भी प्रयोगशाला के जटिल यंत्र मे फंसी हूँ,, प्रयोग प्रक्रिया चालू है,,,, और मै कल्पनाओं के आसमान पर,,,यथार्थ से परे कुछ 'परीकथाएं' लिख रही हूँ।

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

एक दिया प्यार का,,,,

                       (चित्र इन्टरनेट से)



 एक छोटी सी फूंस की झोपड़ी बनाई है,कहीं दूर वीराने मे,,,
 एक दिया प्यार का जला रखा है अपने सनमखाने मे,,,,
उम्मीदों का तेल डाल कर उसे जलाए रखती हूँ,,
दिये की लौ जब हालात की आंधी से थरथरा उठती है,,,,
हथेलियों से उसे छुपाए रखती हूँ,,,,
 अभी तो हवांए सर्द हैं,,,,मौसम का मिजाज़  भी मेरा हमदर्द है,,,,
कब ज़िन्दगी का रूख पलट जाए,,,
उम्मीदों का तेल तो रहे पर कहीं दिये की बत्ती ही पूरी जल जाए,,,
दिल के किसी कोने में एक यह भी बदख़्याल रखती हूँ,,,,
मजबूत हौंसलों की कभी हार नही होती,,,
पर किस्मत और समय की लाठी मे आवाज़ नही होती,,,,,
इसलिए हर जिये लम्हों की तस्वीर अपनी यादों के एलबम मे संजों कर रखती हूँ,,,,
 कभी तूफान मे मेरी फूंस की झोपड़ी उड़ भी जाए तो क्या,,, बौखलाए झोंकों से दिया गिर कर टूट भी जाए तो क्या,,,,
ज़मीन पर उस झोपड़ी के निशान तो होंगें,,,,
टूटे हुए दिये के बिखरे पैगाम तो होंगें,,,,
उम्मीदों के फैले हुए तेल ने अपनी खुशबू तो रख छोड़ी होगी,,,,
कहीं दूर आधी जली उसकी बाती भी पड़ी तो होगी,,,,
सब चुन कर अपने दामन मे रख लूँगीं,,,,
 फिर कहीं इस तुफानी तबाही की कहानी भी लिख लूँगीं,,,
मेरी कहानियों मे फिर से मेरे प्यार का दिया टिमटिमाएगा,,,,
जो किसी भी हालाती तुफान से कभी बुझ ना पाएगा,,,
 फूंस की झोपड़ी को अपनी कलम से बना लूँगीं,,,,जो कभी वीराने मे बनाई थी,,,
उसे कागज़ पर सजा दूँगीं,,,,,
मेरे जाने के बाद भी मेरा प्यार मुस्कुराएगा,,,,
,मेरी कहानियों मे हमेशा दिये सा जगमगाएगा,,।

रविवार, 2 अप्रैल 2017

'भाषा' अभिव्यक्ति का माध्यम,,स्वार्थपूर्ति का साधन नही

(चित्र इन्टरनेट से)

'भाषा',,, एक माध्यम जिससे हम अपने भावों और विचारों को बोलकर,लिखकर या सुनकर अपनी बात किसी को समझा या बता सकते हैं। यह 'भाषा' की सबसे सरलतम् परिभाषा ,,जिसे किसी भी भाषा विशेष के 'व्याकरण' के प्रथम अध्याय मे व्याख्यापित किया जाता है। 'भाषा' शब्द का अंकुर जब पुस्तकीय गर्भ से बाहर निकल मानवीय पर्यावरण मे अपनी सरलतम् परिभाषा के साथ पल्लवित होता है, तब वह कई शाखाओं-प्रशाखाओं मे बंट एक पौध से वृक्ष का रूप धारण करता चलता है।
  पुस्तक मे भाषा की परिभाषा को व्याख्यापित करने से बहुत पहले भी भाषा का एक बहुत मृदुल और वात्सल्यमयी अस्तित्व होता है। नवजात शिशु की भी एक भाषा होती है,,, जिसकी परिभाषा को किसी शब्द-समूह मे नही बांधा जा सकता। उसका क्रन्दन,,मातृ-स्पर्श,नाना प्रकार की ध्वनियां, हाथ-पांव को झटकना एक नवजात शिशु की भाषा होती है। तो यहाँ भी हम भाषा का अस्तित्व एक बहुत कोमल और वात्सल्य रूप मे पाते हैं। भले ही अर्थपूर्ण शब्दों के वाक्य समूह यहाँ नही देखने को मिलता,,, परन्तु फिर भी एक नवजात शिशु भी अपनी बात,अपने भाव अपनी माता तक पहुँचा देता है ।
   शनैः शनैः इन्द्रियों के विकास के साथ-साथ शिशु की भाषा भी विकसित होती जाती है। माँ द्वारा सिखाया गया प्रथम अर्थपूर्ण शब्द 'माँ' बालक उच्चारण करना सिखता है, और फिर तो आस-पास के पर्यावरण को देख,,अपने परिवारजनों के द्वारा बोले जाने वाले आपसी संवादों को सुन,,,एक बालक का धीरे धीरे भाषा ज्ञान विस्तार पाता जाता है। यह भाषा का 'व्यक्तिगत स्तर' है।
  पारिवारिक परिवेश से बाहर निकल जब बालक विद्यालय मे प्रवेश करता है तब शुरूवात होती है भाषा के 'सामाजिक स्तर' की। यहाँ से भाषा के कई रूप,कई प्रकार बालक के सामने प्रकट होते हैं। उसे लगता है जो भाषा वो अपने पारिवारिक परिवेष मे व्यवहार करता है उससे अलग भी कई और माध्यम हैं जिनसे व्यक्ति अपने भावों अथवा विचारों को बोलकर,लिखकर,सुनकर समझा सकता है।
   पुस्तकीय ज्ञान से वह 'भाषा के सामाजिक स्तर' को व्याकरण एंव लिपि के नियमबद्ध अध्ययन द्वारा आत्मसात करता है।यह अति महत्वपूर्ण चरण है,,क्योकि व्यक्ति को अपना जीवन चलाने हेतु जीविकोपार्जन की आवश्यकता होती है।  और बालक के जीवन का यह अध्ययनकाल उसके जीविकोपार्जन का आधार निर्धारण करता है।
    यदि भारत जैसे बहुभाषीय देश का नागरिक हो तो भाषा के कई प्रकार देखने को मिलते हैं। साथ ही साथ 'भाषावाद' नामक एक नया 'कारक' उभरता है। प्रान्तीय,क्षेत्रीय स्तरों पर भाषा मे वैभिन्नय देखने को मिलता है,,,, और भाषा का 'राजनैतिक स्तर' अपना परिचय कराता पंक्तिबद्ध दिखाई देता है।
   भाषा के इस राजनैतिक स्तर' मे एक व्यक्ति विशेष को अपने विचार और भाव बोलकर,लिखकर या सुनकर समझाने के लिए उस राज्य या क्षेत्र विशेष मे बोली जाने वाली भाषा का ज्ञान होना आवश्यक हो जाता है। और 'मातृभाषा' का अस्तित्व प्रकाश मे आता है। अर्थात भारत जैसे बहुभाषीय देश के जिस प्रांत के आप मूल निवासी हैं ,,वहाँ बोली जाने वाली भाषा आपकी 'मातृभाषा' बन जाती है। तो इस प्रकार मात्र 'स्पर्श' और'क्रन्दन' 'से शुरू होने वाली भाषा का विकास कितना वृहद् रूप धारण करता जाता है।
   विकास के इस क्रम मे वृहदत्तम् रूप धारण करने वाली भाषा मे कुछ जटिलताएं आना अतिस्वाभाविक है। विभिन्नताओं को देखते हुए पूरे देश को एक सूत्र मे बांधे रखना प्राथमिकता बन जाती है,,,,और यहाँ भाषा का 'राष्ट्रीय स्तर' आकार लेता दिखता है। अनगिनत 'भाषायी माध्यम' के होते हुए यह एक राष्ट्र विशेष के लिए परमावश्यक हो जाता है कि वह एक ऐसे 'भाषायी माध्यम' का चुनाव करे जिसका प्रयोग कर उस देश का नागरिक अपने भाव या विचार लिखकर,बोलकर या सुनकर समझा सके।
  'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को अपना मूलमंत्र मान सम्पूर्ण विश्व के देश अपने विकास और मानव कल्याण हेतु एक मंच आयोजन करते हैं। जहाँ विश्व के सभी छोटे बड़े देश मिल बैठकर आपसी सहयोग एंव सहभागिता के साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति एंव सुव्यवस्था स्थापित करने को सतत् प्रयासरत हैं,,। यहाँ भाषा का 'अन्तर्राष्ट्रीय स्तर'  प्रकाशमान होता है,,,ऐसे मे  विश्व मंच को एक ऐसे 'भाषायी माध्यम' का चयन करना होता है जिसका प्रयोग कर  वहाँ एकत्रित सभी देश अपने भाव और विचार लिखकर,बोलकर,या सुनकर समझा सकें।
   इसप्रकार अपने मृदुल वात्सल्यमयी शैशव काल से भाषा मानवीय पर्यावरण के व्यक्तिगत,सामाजिक,राजनीतिक,राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक विकसित एंव पल्लवित होती हुई  पहुँचती है। स्तरों मे विकास होना सतत् चलायमान होता है,, परन्तु भाषा की परिभाषा वही रहती है,,, 'एक ऐसा माध्यम जिसके द्वारा अपने विचारों को लिखकर,बोलकर या सुनकर समझाया जा सके।" परन्तु इस सरलतम् रूप से परिभाषित भाषा व्यक्तिगत,सामाजिक,राजनीतिक,राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर अपने इन सभी स्तरीय स्वार्थों की पूर्ति का साधन मात्र बन कर रह गई है,,,जोकि दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
   भाषा का हित अभिव्यक्ति का माध्यम बनने मे है,,इसे स्वार्थपूर्ति का साधन ना बनने दें। इसकी सरलतम् परिभाषा को विभिन्न स्तरों पर मनोभावों की अभिव्यक्ति से मृदुल और वात्सल्यमयी रहने दिया जाए,तभी भाषा का अस्तित्व पूर्णता प्राप्त कर सकता है।