गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

जाना सुनो !

                     (चित्राभार इंटरनेट)

आने के लिए जाना
जाना सुनो ! बदल ना जाना,,

दिल की दीवारों पर महफ़ूज़ रखा
हर एक पल का फसाना,,
जाना सुनो! आने के लिए जाना,,

यादों की गठरी में बांधा मैने
गुज़रे वक्त का बहता तराना
जाना सुनो! आने के लिए जाना,

मुड़कर ना देखना तुम्हारी आदत सही
ये आदत मुझ पर ना आज़माना
जाना सुनो! आने के लिए जाना,,

माना के बदलते हैं मौसम वक्त के साथ
दस्तूर समझ तुम भी ना बदल जाना
जाना सुनो! आने के लिए जाना,,
लिली😊

बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

शूल चुभे हों



शूल चुभे हो हिय में तब
फूल की कैसे बात करूं!

समर छिड़ा हो भीतर ही
खुद को ही आघात करूं
भूल थी मेरी आधार खोजना
किस पर अवलम्ब निज आज करूं
शूल चुभे हो हिय में तब
फूल की कैसे बात करूं!

भाल ढाल सब खोए निज में
किसका अह्वाहन आज करूं
छिलती पीड़ा पर नमक लेपती
खारे अश्रु विलाप करूं
शूल चुभे हो हिय में तब
फूलों की कैसे बात करूं!

जीवन रण के सब कौशल भूली
स्व को कैसे आज़ाद करूं
कोई पाठ ना लागू होता इसपर
लो स्वयं पराजित आत्म करूं
शूल चुभे हों हिय में तब
फूलों की कैसे बात करूं!




'अतृप्ता समीक्षा',,,,,, विनय जी द्वारा

                        (चित्राभार विनय चौधरी जी)

अतृप्ता को स्नेह देने के लिए विनय जी की हृदय से आभारी हूं,,

अतृप्ता 


रायपुर से भोपाल तक की रेलयात्रा ने..लिली मित्रा जी द्वारा रचित "अतृप्ता " को पढ़ने का समय दिया ...बहुत दिनों बाद किसी को शिद्दत से पढ़ा ...और गुना भी ...और उसी गुनिये मन निकले मन के उदगार ...मित्रो को इतवार की भेंट ।।

#अतृप्ता अब #लिली_मित्रा के आँगन से निकल कर उड़ान पर है ...जाने कितने विद्वानों कवियों ..समीक्षकों आलोचकों के गली कूचों, चोवारों , छतों से निकलती हुई ..अनंत यात्रा पर है ...! सब अपने अपने दृष्टिकोण से परखेंगे तौलेंगे ...साहित्य तुला पर कसेंगे .पर.....इन सबसे बेखबर .. !! ....." अतृप्ता " यह स्थापित करने में कामयाब रही ...लिली मित्रा एक संवेदनशील कवियत्री है ..उनकी कविताओं में नवीनता / मन की गहराइयों के भाव ...और भावों से भरे समंदर ठाठें मार रहे हैं..और इस भाषाई मंथन से निकली उनकी कविताई .. प्रेम अमृत भी उगलती है और कड़वी सच्चाई भी ...।

शुरू की कविताएँ कावित्व/ साहित्य /शिव सम साहित्य मेरा .... साहित्य के प्रति उनका गहरा अनुराग है जिसमें वे कविताई को यथार्थ से परे रखती तो है पर कल्पनालोक से निकल सख्त धरातल पर लाने की कशमकश को बड़ी सरलता से उकेरने की कामयाब कोशिश भी करती है ।

"तुम्हारे यादों की रजनीगन्धा " में नायिका रजनीगंधा की खुशबू सी विलीन होकर महकती है ..पर दिखती नहीँ ...भला फूल से खुशुब कोई अलग कर सका है क्या ? ..यादों के नुपर गजब की उपमा है . ..मदन के प्रेमपाश में खुद को ढूंढती खोती नायिका .. पूरा प्रेमग्रंथ जी लेती है ..अदभुत कविता ।

कविताओं में कहीं कहीं प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का तड़का ..सृजन का अनुपम प्रयोग है " आई मिस यू " ट्राफिक और दिसम्बर की भोर में प्रयुक्त "रेडियो" जैसे शब्द लिली जी की कविताई के विशेषण है ।

" सुनो मेरे वट " . ..उरभूमि में खड़ा विशाल प्रेमवट ...की पंक्तियां " उसकी घनी छांव में .....खुद को वट की बाह्य जड़ो के आगोश में जकड़ा पाती है ..निश्चल नेह... मरुभूमि में अंकुरित प्रेम बीज जब वट बन जाता है .. तब कविता प्रेम में अपना अस्तित्व खोजती सी प्रतीत होती है ।

"टेसू के जंगल "-गजब की उपमाएँ हैं ..टेसू की शब्द व्यंजना बहुत प्रभावित करती है ।

"ऐ जिंदगी " लिली जी के कल्पना लोक के अपरिमित आयाम की बानगी भर है .. #खूंटियों_से_बांध_देती_है_किस्मत_रस्सी_की_लंबाई_तक_भटका_कर_खींच_लेती_है_उन_खूंटियों_को_उखाड़_क्यो_देती ...जिंदगी से विद्रोह ..की खूब जद्दोजहद है ...कभी यूँ भी लगता है आपकी सौवी किताब पढ़ रहा हूँ ।

इससे इतर कुछ रचनायें .. जरूर " यूँ सताया न करो ..मुझे पाओगे .." इतनी उच्च रचनाओं के इंडेक्स में अपना वजूद खोती सी लगी !

मित्रों ...इन चंद रचनाओं को पढ़ कर यूँ लगा ..मात्रिक छंदों ...और अपने व्याकरणीय इंद्रजाल से परे " अतृप्ता " सहज सरल शब्दों में बेलाग सी बहती गंगा सी है जिधर से गुजरती है पाठक के मन पर अपनी रंगत छोड़ जाती है ..या कहुँ अपने रंग में रंग लेती है ...।।

इस समय मेरे मित्र मिहिर " जय मालव" जी की पंक्ति याद आती है .." |
#सबसे_कठिन_है_सरल_हो_जाना_कवि_का_भी_और_कविता_का_भी " ...यही सब मिलता है " अतृप्ता " में ...पढिये भी पढ़ाइये भी ।



ऐसी नवोदित लेखिका को अपरिमित शुभकामनाएं ...

शुभाकांक्षी : विनय चौधरी ..भोपाल

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

आना कभी,,,

                    (चित्राभार इंटरनेट)

आना कभी फ़ुरसत निकालकर,,
बैठेगें मन के बागान में,,
कुर्सिंयां डाल कर,
किसी पेड़ को दिखते हुए,,
कहुंगीं मैं,,,,
देखो ये वही पौध है
हमारे प्यार कि ,,
जिसे दिया था तुमने भेंट स्वरूप,,
पा चुका है पेड़ का रूप
अब शरद की सुबह
देखा करती हूं इसपर झड़ते-खिलते शिउली के फूल,,
तुम विस्मय से देख
जोड़ो कुछ और धुमिल सी यादें,,,
पुष्पित हो उठे बिन मौसम शिउली,,
झर जाए दो मन लहरा के,,,
आना कभी फुरसत निकालकर,,
बैठेगें मन के बागान में
कुर्सियां डाल कर,,,


मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

मैने बांध लिए निज प्राण,,

                   (चित्राभार इन्टरनेट)


#रवीन्द्रगीत_अनुवाद
#आमी_तोमार_शोंगें_बेंधेछी_आमार_प्रान

मैने संग तुम्हारे बांध लिए
निज प्राण,,
हृदय स्पन्दन के सुर संग तान लिए
निज प्राण
तुम ना जानो प्रियतम्!
तुम जानो ना,,,,
बंधी प्रीत अंजाने साधन संग
जिसमें घुलती पुष्प सुगंध
जिसमे घुलते कवियों के छंद
तुम ना जानो प्रियतम!
तुम जानो ना ,,

आच्छादित तुमको कर रखा मैने
छंद-गंध की छाया से
अरूप सुवासित छवि तुम्हारी,
है प्रज्जवलित फाल्गुनी काया से,,
बासंती बंसुरि के सुर
गुंजित सुदूर दिगदिगंत
सोनाली आभा से है कंपित
नील उत्तरीय भर आनंद
तुम ना जानो प्रियतम
तुम जानो ना

मैने संग तुम्हारे बांध लिए
निज प्राण
हृदयस्पंदन के सुर संग तान लिए
निज प्राण

लिली😊

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

झूठे ख़्वाब,,

                     (चित्राभार इंटरनेट)

 

देखूं तुम्हे छूकर
करीब से 'झूठे-ख़्वाबों',,,,
पलकों पर सजा देते हो
झिलमिलाते अनगिनत
सितारों के मखमली अहसासी-शामियाने,,,
जिनकी क्षणिक चकाचौंध से,,,
भरमा जाता है यह 'मूढमन',,
भूल कर चिमिलाती धूप
जीवन की,,,
झूम जाता है लोलुप मनगगन,,
और फिर दिखाते हो तुम अपना
असली रंग,,,
अपने करीब होने का देकर
भरकस भरम,,,लुप्त हो जाते हो
अगले ही क्षण,,,,
बिलखती आशाएं और विक्षुप्त आत्म
छूकर,पलकों को
तुम्हे बार-बार खोजती हैं
व्याकुल अंगुलियां,,,
शायद मिल जाओ पलकों की
कोरों पर छुपे ,,,
पर तुम नही मिलते,,,जा चुके होते हो किसी की
संवेदनाओं को छल कर,,,,
मै देखना चाहती हूं तुम्हे छूकर ,,
तुम्हारे छद्म हृदय को छूकर,,,
कोई प्रतिक्रियाएं उठती हैं
तुम्हारे हृदय में?
या अंतस तुम्हारा पाषण है,,,?
लिली😊

प्रेम




जो कहता है प्रेम त्याग का नाम है
प्रेम अधिकार नही चाहता,
प्रेम दूर रहकर भी खिला रहता है
प्रेम जलता दरिया है
प्रेम बहती नदिया है
प्रेम शून्य है
तो बता दूं आपको-
प्रेम जब अपनी गहनतम्
गहराइयों में पहुँच,
अपने प्रियतम् को छुपाता है,
उस गहराई में जाकर कोई
दुनियावी कर्तव्य अपना आधिपत्य
जमाने का प्रयास करता है,
तब प्रेम 'त्याग' की परिभाषा भूल जाता है,
तन से लेकर मन के रोम-रोम में
बसा कर रुधिर कणिकाओं का अंश
बने प्रेम ,पर कोई अन्य अपना वर्चस्व
जमाना चाहता है तब-
 प्रेम में 'अधिकार' का स्वर प्रचंड नाद
सा चिल्लाता है,
भौगोलिक दूरियों की सीमाएं एक हद
के बाद सह पाना दूभर हो जाता है,
एक अंतराल के बाद सुकोमल भावों
के पुष्प सा 'प्रेम'
किसी विषैले चोटिल विषधर सा
बौखला उठता है
और एक स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति
पाने के लिए..
अंधाधुंध फुंफकारता..विष वर्षा करने पर आमादा हो जाता है,
अहसासों का शीतल जल
आग का दरिया
और
शून्य का वृहद किसी बूंद सा...
सिमट जाता है आँखों के पोरो पर
इसलिए निवेदन है
उदारवाद का पैराहन जबरन
बिचारे प्रेम की मूक अभिव्यक्तियों को मत पहनाओ
चरम के उत्कर्ष पर प्रेम बहुत उग्र है।