सोमवार, 9 जुलाई 2018

कप में बची काॅफ़ी

                     (चित्राभार मेरे पतिदेव😃)



टेबल पर काॅफ़ी का कप,,
मेरी तरह चुपचाप सा,,,
पंखें का शोर मेरे अंदर के
मौन सा,,,
सीने के अंदर एक उमस,,,,,,
,,,,बिल्कुल,,,
 इस मौसम के जैसी,,,,,,
जानती हूँ कप के तल में
बची थोड़ी सी काॅफ़ी,,
सूख जाएगी,,
कप भी धुल कर,,
 अपनी जगह पहुँच जाएगा,,,!!
पर मैं???????

मेरा क्या,,,?,????
चुप के शोर में,,
उमसता अंतस,,लिए,,
मै भी कप की बची काॅफ़ी सी,,,
सूख जाऊँगीं,,,
,,,,,और,,,
खुद ही खुद को उठाकर,,
इन जज़्बाती बवंडरों को
समेट,,,
रख दूँगीं धो-धाकर किसी
ताख पर,,,

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक सच्चा रचनाकार हमेशा नई सोच और नई बात चाहता है, नया जज्बात व नया करामात चाहता है। उस रचनाकार की रचनाएं भले ही कितनी प्रभावशाली हो किन्तु यदि लेखन रुक जाता है तो रचनाकार सुखी कॉफी की तरह हो जाता है, खुद से उसे अतृप्ति होने लगती है और पाठक की स्मृति से धुलकर वह बीते जमाने की बात हो जाता है। लिली जी ने उसी भाव को खूबसूरती से कप की सुखी कॉफी के माध्यम से उकेरा है। बाद ऐसा ही समझ में कविता का आनंद ले रहा हूं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सूखती काॅफ़ी की ओट में छटपटाती लेखनी के मनोभावों को आपने पूरी तरह से स्पष्ट रूप से खोल दिया��। मुझसे से रचना क्यों लिख गई मैं खुद ही नही समझ पाई थी,,पर आपकी टिप्पणी ने मेरी हर उलझन को सुलझा दिया����
      हार्दिक आभार आपका धीरेन्द्र जी!!

      हटाएं
  2. सूखती काॅफ़ी की ओट में छटपटाती लेखनी के मनोभावों को आपने पूरी तरह से स्पष्ट रूप से खोल दिया��। मुझसे से रचना क्यों लिख गई मैं खुद ही नही समझ पाई थी,,पर आपकी टिप्पणी ने मेरी हर उलझन को सुलझा दिया����
    हार्दिक आभार आपका धीरेन्द्र जी!!

    जवाब देंहटाएं