शनिवार, 14 जुलाई 2018

मन का कोना

                      (चित्राभार इंटरनेट)

अंतस जब किसी
दूब की धार से छिल
जाता है,,
,,,,या,,
ओस की शीतल बूँद
से किसी भाग पर
फफोला पड़ा
जाता है,,
कराहती पीड़ा के
अंतरनाद से,,
द्रवित हो जाती हैं,
मुट्ठी में समा जाने
वाले हृदय की
तंग गलियां,,
तब ना आत्मसंगी का
कंधा काम आता है,,
ना किसी आत्मीय चंदन
का लेप शीतलता
पहुँचाता है,,
तब ,,,
बस,,
एकमात्र,,,
 मन के कमरे
का कोई सूनसान सा
कोना याद आता है,,
जिसे पहले अश्रुजल
से धोकर साफ़
किया जाता है,,,
फिर सिकुड़कर,,
समेटकर,,
अपने सख्त घुटनों
पर ,,
उदासीन ठुड्ढी को
टिकाया जाता है,,,
संवेदनाएं अपनी सभी
मनोविकृतियों-प्रवित्तियों
को गले लगा,,
खूब रोती है,,
तब जा कर कहीं,,,,,
दुखते दर्द को
कुछ आराम आता है,,,

अंतस जब किसी
दूब की धार से छिल
जाता है,,
किसी का कंधा नही,,,
 सख्त घुटनों पर
उदासीन ठुड्ढी को टिका,,
दर्द सहलाने के लिए,,
मन का सूनसान
कोना ही साथ
निभाता है,,,,






1 टिप्पणी:

  1. दूब की धार से छिल जाना और इस से फफोला पड़ जाना एक कोमल दर्द की अभिव्यक्ति है और सुंदर अभिव्यक्ति भी। मुट्ठी में समा जानेवाली हृदय की तंग गलियां वाक्य वस्तुतः हतप्रभ कर देता है। यहां रचनाकार हृदय को मुट्ठी में नहीं कर पा रही जबकि तंग गलियों को मुट्ठी में कर लेती हैं। यह उपमा रोमांचकारी है। यहां तक कवियत्री ने शब्द, भाव, उपमाएं आदि प्रभावशाली रूप से पिरोई हैं।
    लिली जी ने काव्य की सोच, गति को अचानक एक नई दिशा की ओर तब मोड़ दिया जब वह लिख बैठी कि संवेदनाएं अपनी सभी मनोविकृतियों - प्रवृत्तियों को गले लगा खूब रोती हैं। मन की वृत्ति जब विकृति प्रतीत होने लगती है तब वह प्रवृत्ति हो जाती है और यहीं कविता कश्मकश में दिखलाई पड़ती है एक विस्तृत भाव पटेल संग। मन का सूनापन कोना ही साथ निभाता है के संग कविता पाठक को उस कोना की ओर ले जाती है जिसको सही रूप में पहचान पाना हर किसी के वश की बात नहीं।

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