शनिवार, 29 दिसंबर 2018

तुम अब जिस्म से लगते हो,,,,,



अब तुम
जिस्म से लगने लगे हो,,
नही ,,,नही,,
इसे वासना से ना लपेटना,,
'जिस्म' केवल शारीरिक भूख
मिटाने का साधन नही,,,
वरन,,एक स्तम्भ भी होता है
जिसपर ना जाने कितनी ज़िन्दगियां
अपनी तमाम दुनियावी ज़रूरतों की पूर्णता
के लिए,,,कातर आंखों,,
फैलाए हाथ,,,
और
 मन भावनाओं के बिखराव
को समेटने की आस लगाए
देखते हैं,,,,
कभी-कभी मैं भी
कामना कर जाती हूं,,,,,
तुम्हारे ऐसे ही 'जिस्म-स्तम्भ' की,,
पर वह तो सम्भव नही,,,
वो तो हवाओं में बने,,,
बादलों से तैरते,,
कल्पना की परिकल्पना
से हमारे आत्मिक संबन्ध हैं,,,
उस 'व्योमी-समाज' में,,
इहलोकी नियम लागू नही होते,,,
लगता है,,सृष्टिकार ने
दो आंखें किसी ब्रश सी
और आकाश का विशाल कैनवास
दे दिया है,,,
कमरे की खिड़कियों का
फ्रेम जड़कर,,,
अपूरित सपनों के मनचाहे रंग
भरते रहो,,,
'आत्मअंश' की अलौकिक 'संकल्पना'
को चित्रित करते रहो,,,,
यहाँ 'जिस्म' नही बनाए जाते,,
यहाँ 'रूहें' बनाई जाती हैं,,
जन्मजन्मान्तर से भटकती हुई,,
कभी रोती तो ,,,
कभी मुस्कुराती हुईं,,,
ये नितांत अकेली,,,
एक आस लिए तड़पती ,,,,,
अगले जन्म हम मिलेगें,,,,,
हम दुनियावी जिस्मों में
ढलेगें,,,,
हम आसमानों में नही
ज़मीन से जुड़ेगें,,,

तो समझे क्या कुछ,,,???
पता नही मैने कहाँ से,,
क्या कहने को,,,?
क्या शुरू किया था,,,?
खुद ही भटक गई
इन 'आत्मअंशी-संकल्पनाओं'
के 'छलावे'में,,,
छलावे में नही भुलावे में,,
शायद किसी को बुरा लग जाए 'छलावा' शब्द,,,,
अच्छा 'अमृता' मिल चुकी होंगीं क्या????
'क्षितिज के उस पार,',???
नही बस एक कौतूहल जागा,,
तो लिख दिया,,
आदत हो गई हर मन की बात
लिख देनी की,,,
हाँ तो मैं कह रही थी,,,
तुम जिस्म से लगते हो,,,,,आजकल,,
'लगने' का क्या है,,,हर दिन कुछ
नया ही 'लगता' है,,,
उलझा रही हूं शायद ,,
इसलिए गुत्थी की डोर
यहीं तोड़ देती हूं,,,
तुम स्तम्भ बनों
सशक्त वाला,,,
किसी विशेष का ना सही,,
कइयों की दुनियावी ज़रूरतें पूरी करो,,,
यही धर्म कहता है,,
यही कर्म कहता है,,
यही जीवन कहता है,,,😊
लिली

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