मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

माँ

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

।।1।।

गीले तौलिए को
लाख समझाने के
बावजूद बिस्तर पर
रख जाते हैं,,,
किताबों के ढ़ेर
बेतरबीबी से यहाँ वहाँ
छितर जाते हैं,,,
बाहर से आकर कपड़ों
को कभी फर्श कभी
कुर्सियों,सोफों पर कैसे
भी पटक,बड़ी बेफ्रिकी
से टी वी के सामने
बैठ जाते हैं,,,,

जानते हैं ये 'माँ' है ना,,!
थोड़ा चिल्लाएगी,,
थोड़ा खुद में ही
भन्नाएगी,,,,,,
"अगली बार नही करूँगी,
सब बाहर सड़क पर फेंक दूँगीं" ,!
जैसी अर्थहीन चेतावनियाँ
देकर हर बार सब सजाकर
रखती जाएगी,,

तुम्हे छुट्टियों का इन्तेज़ार
रहता है,,,,,
"आज क्या अच्छा
बनाओगी माँ"? का प्रश्न
रसोई के बाहर हर रोज़
खड़ा होता है,,,,
पर माँ के हिस्से में कभी
कोई अवकाश या इतवार
कहाँ होता है,,?

थककर इन रोज़मर्रा की
आपाधापी से,,
मशीन सी चलती दिमागी,
और दिली कार्यवाही से
कितनी बार ऐलान करती है,
"मै जारही हूँ,कहीं तुम सब से
दूर,,उफ्फफ मुझे भी चाहिए
कुछ पल का सुकून",,!!
पर क्या 'माँ' कभी ऐसा
कर पाती है,,,???

      ।।2।।

महसूस किया मैने 'माँ' बनने
और अपनी 'माँ' को खोने
के बाद,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
शब्दों में नही बांध पा रही
मैं अपने एहसास,,,
पता नही क्यों यह दृश्य
मस्तिष्क पटल पर सहज
नही लगता,,,
'माँ' कभी बिमार भी होती है,,?
'माँ' कभी आराम भी करती है,?
यह प्रश्न सदैव अटपटा लगता,,!
वो इतनी गम्भीर बिमारी में भी
सब करती गई,,
चली जाएगी कुछ समय बाद
यह बोध पा,भविष्य तक के लिए
कितनी अलमारियां सहेजती गई,,
मैने कभी उसको बैठे नही देखा,
बैठकर भी शायद बनाती रही वो
अपने कर्तव्यों की रूप रेखा,,

जानती हूँ मैं उपर जाकर भी
वह एकजगह नही बैठी होगी,
वहाँ जा कर भी कुछ अपने
बच्चों के लिए आशीष स्वरूप
कर ही रही होगी,,!

आज भी मन अवचेतना
में उसको पाता है,,
कितनी बार उसके फोन
के इन्तज़ार में भ्रमित
हो जाता है,,,
वह रास्ता जिनपर
हर शाम नियमानुसार
दौड़ती थी स्कूटर,,
वहाँ फिर से हैंडल घुमा
देने को हाथ कसमसाता है,,

उसकी वह फटकार
जो उसके रहते बड़ी
चुभती थी,,
अक्सर वह सुनने को
कान ललच जाता है,,,!

'माँ' कोई शरीर नही,,,
'माँ' भावनाओं का संबल है
वह एक अदृश्य चेतना,जो
भरता आत्मबल है,,,,
नही समेट सकती मैं
उसे शब्दों में,,,
कुछ अंश खुद में पा सकूँ
यही प्रार्थना प्रतिपल है,,।

लिली 😊

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