बुधवार, 17 अप्रैल 2019

कल्पनाओं को अपना 'यथार्थ' मिल चुका है,,,

                   (चित्राभार इन्टरनेट)

कैनवास फट चुका है
और रंग सूख चुके हैं
तूलिका विक्षिप्त पड़ी है,,
जब से 'कल्पनाओं' को
उनका जगत 'यथार्थ' में
मिल गया है,,
अब वे खुश हैं अपनी
संकल्पनाओं को मूर्त रूप
में पाकर,
वे अब मोहताज नही रहीं
किसी प्रेम चितेरे दो जोड़ी
हृदयों की 'एहसासी उधारी' की,,

कविताएँ बेरोज़गार हो गई हैं
कलम गर्त खोदने के काम
में लगी हैं,,
क्योंकि कावित्व को उसका
वास्तविक रसातल मिल चुका है,,
वह भी मोहताज नही रहा अब
कवि मन की प्रसव पीड़ा का,,

आस,प्यास,उजास सबने
सन्यास ले लिया है,,
जाओ बाबा! अपने दुनियावी
काम निबटाओ,,
ये बेकार की ख्याली मगजमारी
में हाथ रूक जाते हैं,
कामों के ढेर लग जाते हैं,,
मिलना-मिलाना कुछ नही होता,,
झमेले कम हैं इस जान को?
जो चले आते हो मुँह उठाए,,,,
हुह्ह,,,,,,,कैनवास पर कल्पनाओं
के रंग उकेरने हैं,,,!
कागज़ पर शब्दों का कावित्व
बहाना है,,,,!
जाओ बाबा जाओ,,
काम करो !



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें