सोमवार, 19 अगस्त 2019

परित्यक्ता,,,



 हे पुरूष सुनो!
तुम प्रेम करना,,
फिर,
राम बन जाना,,
कृष्ण बन जाना
बुद्ध बन जाना
कालिदास बन जाना
मै तुम्हारे हर अवतार की
सहचरी बन
तुम्हारे पौरूष को
अपने सुकोमल प्रेमिल
स्पर्श से,,वज्र सा पुरूषत्व
गढती रहूगीं,,,
फिर,
तुम बेहिचक चले जाना
अपने कर्तव्यपथ पर,,,
मै बस चुप रहूँगीं,,
तुम्हारे संग बिताए
अह्लादित प्रेम सरोवर
को हृदय में दबोचकर
सीता सी सुमरी जाऊगीं
राधा सी पूजी जाऊगीं
यशोधरा सी घुटती जाऊगीं
मल्लिका सी बिसरा दी जाऊगीं

1 टिप्पणी:

  1. एक गहन अभिव्यक्ति अगहन मास सा ऋतु लिए। भाव इतने धारदार हैं कि नारी के हर किरदार के आगे पुरुष शर्मसार सा प्रतीत होता है पर क्या यह सत्य है? एक शोध और विश्लेषण को उकसाती रचना।

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