शुक्रवार, 1 मार्च 2019

प्रतिक्रिया अजय जी द्वारा

रजनीगंधा,,मै गीत हूं उसके लिए

हम हमारे हर अनुभव में सर्वथा अकेले होते हैं...अपनी ही परिधि में कैद ..हम हर चीज को पहचानते भी अपनी ही तरह है...हर अवधारणा हमारी अपनी समझी हुई व्याख्या है...बस प्रेम ही एक माध्यम है जब हम खुद पर किसी दूसरे को प्राथमिकता देते हैं हमें अपने अहम् और अपनी पहिचान से बाहर निकलना होता है ..हम होते तो हम है पर हमारी वल्गा दूसरे के हाथों में चले जाते हैं...आपकी दो कविताएं "मैं गीत हूं उसके लिए"और "तुम्हारी यादों की रजनी गंधा" इसी भाव इसी उत्सर्ग और समर्पण के भाव को लिए  हुए हैं...एक बात और सतही प्रेम की पहली कोशिश ये होती है कि वो अपने को देने की बजाय दूसरे पर काबिज होने का प्रयास करता है यानि पजैशन का भाव पर दिव्यता या प्रेम का अमरत्व है जब है कि वो खुद को दे कर और खुद को ही पाता है एक निर्मलता और नयी परिभाषा के साथ जिसमें प्रेम अपनी उत्कृष्टता तक पंहुचता है...बस इसी भाव का विस्तार है इन कविताओं में....


सीमा का बंधन,,,
सीमाओं का बंधन...पढ़ी...ये हमारे असतित्व की चाह है...होने की...ये साबित करने की कि हम हैं..सभ्यता...वर्जना है..कल को संवारने की इच्छा है..एक के लिए नहीं सब के लिए करने की सबसे जुडे रहने का सलीका है...पर हमारा क्या..हमारी आदिम लालसा का क्या..जो सभ्यता से हर बंधन से हर रिश्ते से अधिक पुरानी और शाश्वत है...और तुरंत हमें सुख देती है...ये एक यक्ष प्रश्न है...और इसका उत्तर आसान नहीं है..हम एक क्षण के लिए जिएं या एक युग के लिए...
आपकी ये कविता उसी दर्शन का उच्छवास है जिसका मैं भी विद्यार्थी हूं...बांध कर रखती है ये कविता...

हर कवि के समक्ष ये समस्या है कि वो शब्द चुन सकता है,अपने को अलंकृत रूप में प्रस्तुत कर सकता है..भाषा का एक मायावी जाल भी रच सकता है पर वो मौलिक तब होता है जब वो खुद को लिखता है..बेलाग वस्त्रहीन प्रस्तुत होता है सबके समक्ष...आपकी पहली तीन कविताएं पढ़ी..पहली में आप स्वयं आहूत करती हैं कावित्व को की वो आपके जीवन में भी प्रवेश करे...बस यही बात खास है..शब्द छल हैं...उनका आयोजन भी छल है..और वो नश्वर भी हैं..जब तक आप स्वयं उनमें सहज भाव  प्रस्तुत न हों...वही बात वही पीड़ा मुखरित है आपकी पहली कविता में...दूसरी और तीसरी कविता में भी..
          कविता रचना आसान है उसका हो जाना और कठिन और उस भाव को जीवन का व्यवहार और आधार बना लेना सर्वाधिक कठिन...आप उस तरफ जाने की बात करती हैं तो आपकी ये यात्रा स्वयमेव एक साधना बन जाती है...
        आपने कहीं लिखा था कि चित्रलेखा को पढ़ कर आपका मन बदल गया उसमें एक अत्याधिकता से अघायी एक नगरवधू एक योगी से अधिक वैराग्य को समझती है और अपनाती है
आप में ये भाव कविता के प्रति समर्पित होते दिखता है
        ये नहीं कहूंगा कि आपकी कविता शिल्प और
आधुनिक कविता के आजकल के कलेवर में बहुत ऊपर या समकक्षी है पर आपका ये भाव निसंदेह आपको अलग करके दिखाता है...
        पहला जोश दिखा दिया है..बहुत उत्सुक था आपकी किताब के लिए पर अब आराम से चबा चबा कर आगे लिखू़गा..जल्दी जल्दी लिखा है कोई शब्द इधर उधर हो तो देख लीजिएगा.....

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