किसी शाम कोई गजल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फिज़ा को मनाओ
मै बिखरा ज़ुल्फ़े बैठूं बगल में
तुम चाँद बनकर उनमें समाओ
किसी शाम कोई गज़ल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फ़िज़ा को मनाओ
तलब कोई भूली लहरा के झूमे
खड़कते से पत्ते टहनी को चूमें
बंद जज़्बात बह जाऽऽए हवा संग
तुम पुरानी वही नज़म गुनगुनाओ
किसी शाम कोई ग़जल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फिज़ा को मनाओ
झरने लगे फिर से बातों के मोती
तुम तकते मुझे मै तुमको पिरोती
आँखों आँखो में बनने लगे सूत कोई
महकी सी तुम कोई माला बनाओ
किसी शाम कोई ग़जल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फ़िजा को मनाओ
यूं ही राग अलहदा गुनगुनाओ
जवाब देंहटाएंतारों की आंगन में महफ़िल सजाओ
शब्दों में भर दो भावों का शहद
अभिव्यक्ति से यूं सदा महकाओ।