सोमवार, 11 मार्च 2019

पतझड़ की हवा

हवा की आवाज़ में
एक कराहट सी सुनी
दर्द पुराना अरसे बाद
उभरा है शायद,,
सांय-सांय में टीस
इतनी की,,, टसक से
पेड़ बदहवास से डोलते दिखे
हवाओं की पीर
दरवाज़ों को खड़काती
तो कभी खिड़कियों
से टकराती,,
गुहार लगाती फिरीं
दर्द की चीख से
चीरती वेदना को जब
कुछ ना मिला तो
वह बहा चली सड़कों पर पड़े
सूखे पत्तों को मुट्ठियों में
दबोच कर,,,
पतझड़ की  हवा
आद्रता आँसुओं की सूख चुकी है
खुश्क,कराहती सांय-सांय,,
कोई दर्द पुराना
उभरा है शायद


2 टिप्‍पणियां:

  1. दर्द के उत्सव में अपने अंदाज में भांगड़ा करती लिली की लिलीमय कृति, बस जय हो।

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    1. यहाँ आपकी उपस्थिति एंव प्रतिक्रिया पाकर प्रसन्नता हुई राजेश जी! साभार धन्यवाद।

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