गुरुवार, 23 मई 2019

अजय कुमार जी की समीक्षा 'अतृप्ता' पर,,




लिली जी की अतृप्ता अब मैंने भी पढ़ ली है.. आद्योपांत... और इस किताब पर लिखी गयी  कुछ समीक्षाएं भी...यूं तो बहुत कुछ कहा जा चुका है इस बहुचर्चित किताब के बारे में... पर फिर भी मैं इस पुस्तक के संदर्भ में कुछ बातें  रखना चाहूंगा...
        पहले एक बात कविता के बारे में मेरी समझ को ले कर...हर अंतस का एक मौलिक और एक निर्दोष  आईना होती है एक सच्ची  कविता...जिसमें कोई पाठक भी बरबस ही अपना चेहरा , अपना मन और स्वयं के जीवन को देख सकता है...
          और अब उनकी  किताब अतृप्ता..जिसके आवरण पर स्वयं उन्होंने लिखा है.."अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को विकसित करने का प्रयास है ये"....मैं कहूंगा और कि लेखिका के द्वारा ये अपने मन और अनुभव से खुद को ही टटोलने का एक तटस्थ और बेबाक प्रयास है...जिसके आईने में हमें अपनी जानी पहिचानी लिली जी अपनी पूरे गांभीर्य और एक स्पष्ट सोच के साथ परिलक्षित होती दिखती हैं...
        अपने 'स्व' की हर मुमकिन सींवन को स्वयं बेरहमी से उधेड़ना...अपने मन के एकान्त विवर में जो भी भाव छुपा बैठा हो उसको कविता दर कविता उद्घाटित करना
सचमुच एक प्रशंसनीय और ईमानदार  कार्य है...किताब का शीर्षक 'अतृप्ता' ही जैसे ये किताब हर कविता के पढ़ने के बाद हर बार
एक सिक्के की तरह आपके जेहन में छन्न से उछाल देती है...पर इसके बारे में भी एक बात कहना चाहूंगा...एक स्त्री की  अतृप्ति का आयाम केवल सामाजिक और आर्थिक ही नहीं होता...बल्कि एक सभ्य शालीन महिला से ये भी अपेक्षा की जाती है कि वह शारारिक तौर पर भी हर संयम और हर मर्यादा को बरते ..किसी किस्म की भी प्रगल्भता या वाचालता को  चाहते हुए भी न दिखाए...ये केवल और केवल पुरूषों का युगों से क्लासिक क्षेत्र है..पर बस इसी आयाम में ये किताब सर्वाधिक मुखर सर्वाधिक निर्भीक दिखाई पड़ती है...इसी बात को रेखाकिंत करती हैं इस किताब की ये तीन कविताएं...वो दिसंबर की भोर...भूड़ोल और शीर्षक कविता अतृप्ता...पर  यही  प्रेम एक पूर्णता एक अध्यात्म और अपने ही अस्तित्व को भी तलाशता नजर आता है..मेरे आत्मसंगी...सुनो मेरे वट और समुद्र लहर सा पाती हूं...कविताओं में...
किताब की पहली चार कविताओं में लिली जी ने अपनी इस काव्य यात्रा अपने शिल्प और शैली पर आत्मकथ्यात्मक कविताएं लिखीं हैं जो हर कवि का बेहद निजी और अनुसंधान का क्षेत्र है...इस बारे मैं कुछ भी नहीं कहना चाहूंगा...पर हां एक और कविता है...एलिफैंटा के भित्तिचित्र ..जिसमें कवयित्री विस्मित है एलिफैंटा की गुहाओं के प्रस्तरों पर उकेरे गये भित्तिचित्रों को देख कर...पर मेरे ख्याल से सायास ये कार्य उन्होंने स्वयं कर डाला है हमारे समक्ष अपने मन के भित्तिचित्रों को एक काव्य संकलन के् रूप  में प्रस्तुत कर के...और उनको नये सिरे से समझने का हमें एक मौका दे कर...
         इस किताब के लिए मेरी  उनको हार्दिक बधाई और उनकी इस कमाल की निड़र रचनाक्षमता पर मेरा उनको सलाम और उनके कावित्व के सतत उज्ज्वल भविष्य के लिए सादर शुभकामनाएं....

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