बुधवार, 1 नवंबर 2017

निष्कर्षविहीन मंथन,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

दमघोटूँ कालकोठरी
सा एक कोना मन का
एक दरार सा
झरोखा खींसे
निपोड़ता हुआ

दबी कुचली कुंठाएं
अपनी उखड़ी सांसों
का मातम मनाती हुई
विद्रोह जैसे अभी भी
बाकी है,इस बेदम शरीर में

एक मास्क लगा दे
कोई ऑक्सीजन का
तो थोड़ी देर और जी लें
जानती हैं कि इन कुंठाओं
कि नियति कुचल कर
मसल जाना ही है,,
फिर भी सिर पटक रही हैं

एक झरोखा खोज ही लेती हैं
और खोजना प्रकृति है
विकारों का जमावड़ा
स्व के लिए विस्फोटक,,,,
और विकारों का उद्गार
समाज के लिए विकृतिकारक,,

क्या किया जाए????????
स्व का सुधार या,
समाज का सुधार?????
चलो एक ऐसे विकृत
मनोभावों का एक
'डंपिंग ग्राउंड' बनाएं
अंतस के उस खींसे
निपोड़ते झरोखे के
आमंत्रण को अपनाएं,,,

कुछ सांसे तो खींच ली
बाह्य का आवरण अब
मुस्काए,तनाव,खींझ
कुछ हद तक शांति पाए,,
चलो अब समाज को
सुधारने का अभियान चलाएं,,,

लिली 😊

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