मंगलवार, 7 नवंबर 2017

खुद को एक समुद्री लहर सा पाती हूँ,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कभी कभी खुद को
एक समुद्री लहर सा
पाती हूँ,,,,,,,,,

कई मनोभावों का एक
समग्र गठा हुआ रूप
जो किसी ठोंस अडिग
चट्टान से टकरा जाने
को तत्पर है,,,,,,,,,,

क्षितिज की अवलम्बन
रेखा से बहुत कुछ भरे हुए
खुद में,लहराती बलखाती
तरंगित होती,एक लम्बा
सफर तय करती हुई 'मैं'
चली आ रही,,,
मै बही आ रही,,,,,,,,

कई बार टूटी हूँ,कई बार
जुड़ी हूँ,यह मेरा व्यक्तित्व
यूँ ही नही गढ़ गया,असंख्य
छोटी बड़ी लहरों में घुली हूँ
भंवर में खींची हूँ,तब कहीं
अनुभवी हिंडोलों संग
तट तक पहुँचती, देखो!
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,



बहुत कुछ बर्फ के शिला
खंडों में जमा दिया मैने
फिर भी बढ़ती रही शेष
के अवशेष को   समेटे
किनारे पर घंसी हुई मेरी
चट्टान से टकराने को व्यग्र
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,

एक गहन शोर है उल्लास का
एक जोश है आनंदानुभूति का
जो बहुत तेज़ है,शान्त किए दे
रहा है यह  निनाद,आस -पास
का सब कुछ,,,,एक वेग
से टकरा कर छिटक जाने को
जो भर कर लाई हूँ दूर से, उसे
असंख्य जलबिन्दुओं में फैला
कर छितरा देने को, देखो !
मै चली आ रही हूँ,,
मै बही आ रही हूँ,,,

मुझे है दृढ़ विश्वास के तुम
सह जाओगे मेरा वेग,,,,
लेट जाओगे 'शिव' से शान्त
होकर धरा पर,'काली' के
प्रचण्ड रौद्र को सह लोगे
अपने वक्षस्थल पर,और
कर दोगे सब शान्त,,देखो !
मै चली आ रही हूँ,,,
मै बही आ रही हूँ,,

लौट जाऊँगीं फिर मै एक
शांत 'गौरी' बनकर 'शंकर' की
पुनः नव निर्माण करने,,,
बस यही आस लिए ,तुमसे
मिलकर खुद को विखंडित
कर,पुनः निर्मित करने, देखो !
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,,

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