शनिवार, 11 नवंबर 2017

अपराजिता की अभिलाषा,,,

                     
                           (चित्राभार इन्टरनेट)

मै आत्माओं का संभोग चाहती हूँ
वासनाओं के जंगलों को काट
दैविक दूब के नरम बिछौने
सजाना चाहती हूँ,,,

करवाऊँ श्रृगांर स्वयं का तुमसे
हर अंग को पुष्प सम सुरभित
खिलाना चाहती हूँ,,,,,

अधरों की पंखुड़ियों पर सिहरती
तुम्हारी मदमाती अंगुलियों की
चहलकदमी चाहती हूँ,,

भोर की लाली लिए अंशुमाली से
नयनों को तुम्हारी नयन झील
में डूबोना चाहती हूँ,,,,,

तन की अपराजिता बेल को सिहराते
तुम्हारे उच्छावासों की बयार से अपनी
हर पात को हिलाना चाहती हूँ,,,

खिल उठेगा भगपुष्प भुजंगीपाश से
प्रीत का रस छोड़ देंगी पुष्प शिराएं
यह रसपान तुम्हे कराना चाहती हूँ,

चहचहा उठेगीं खगविहग सी उत्कर्ष
की अनुभूतियां,मै आनंदोत्कर्ष का
यह पर्व मनाना चाहती हूँ,,,,

भौतिकता का भंवर अब नही सुहाता
संतुष्टि की जलधि में ज्वारभाटा बन
अपने चांद को छूना चाहती हूँ,,,

मै तुम संग आत्मिक संभोग चाहती हूँ

3 टिप्‍पणियां:

  1. लेखन जब जीवन की धड़कनों से जुड़ जाता है। कल्पनाएं जब सतरंगी दुनिया को भेदकर पार देखने को सक्षम हो जाती हैं। मानवीयता जब सूक्ष्मतर और गहन होकर आत्मकेंद्रित हो जाती हैं तब नवदृष्टि का निर्माण होता है। इस नवदृष्टि प्राप्ति पर ही ऐसी रचना लिखना संभव हो पाता है। प्रतिक्रियाएं बौनी होकर इस रचना को प्रणाम करती हैं। साधुवाद।

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  2. कल्पना के उच्चतम शिखर से भावों की अथाह झील में छलांग लगाती और फिर डूबकर उभरने के पश्चात तरंगित जल के साथ किलोल करती शब्द पुष्प लेखनी!!
    प्रणाम करती हूं आपको।

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  3. निःशब्द हूँ। बहुत गूढ़ रहस्यों को समेटे आपकी इस रचना को सादर वन्दन।

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