शनिवार, 4 नवंबर 2017

सीमाओं का बंधन ,,उच्छृंखल बना देता है,,,

                      ( चित्राभार इन्टरनेट)

पड़ी हुई हैंउनींदी
आंखें तकिए पर
खिड़की से बाहर
झांकती हुईं,,,,
आसमान तो यहाँ से
भी दिखता है लेकिन
खिड़कियों की सलाखों
और जालियों में जकड़ा हुआ,,,,

चहकती गौरैया
पलड़ों पर फुदक
जाती है, झांक जाती है,,
हिलती पेड़ों की शाखों
से चलती बयार रह रह
कर मेरे चेहरे पर फूँक
सी मार कर छू जाती है,,,

सब कुछ तो मिलता है
बंद कमरों में बनी इन
खिड़कियों से, फिर भी
आंखें पुतलियों को फैलाकर
सलाखों और जालियों
के बंधन से परे क्यों देखना
चाहती हैं,,,???

कैसी चाहत है ये, जो
जालियों के छोटे से छेद
से आंखों का 'लेंस' पूरे
आकाश को खींच लेना
चाह रहा,,???
बहुत देर तक पड़ी
रहती हैं तकिये पर शून्य
को निहारती आंखें,,,,,

सरदियों की दोपहर
और गुनगुनी धूप तो
पड़ती है मेरे बिछौने पे
घंटों पड़े रहकर बदन भी
कुनकुना हो जाता है,,
फिर भी चाह किसी
फैले समुन्दर की रेत पर
औधें पड़ी रहूँ,,,,

रात का चाँद भी समा
जाता है इन खिड़कियों
के नक्काशीदार 'फ्रेम' में,,
फिर क्यों मन नदी का
किनारा और किसी पेड़
कि शाखाओं से झांकते
चाँद की तमन्ना करता है,,,??

मन बड़ा चंचल
सीमाओं का बंधन
इसे उच्छंख्ला बना देता है,,,,

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