(साभार गूगल)
बहुत मुश्किल होता है तबाही के बाद
फिर से बसना
बहुत कुछ बिखरा होता है आसपास
अतीत के अवशेषों के साथ
कुछ अनमना सा अचकचाया सा
अंगड़ाई लेता...बहुत नाजुक
बहुत कच्चा, डरा हुआ...
ज़रा सी आवाज से चटख जाता है
छुप जाता है
भूल जाता है आरम्भ का 'अ'
और अंत का 'त'
घुमड़ती रहती है तो बस बीच की बेचैनी
वॉन गॉग की पेंटिंग के गहरे नीले सलेटी
घुमावदार बादलों की तरह
जो न बरस पाती है न गरज पाती है
अपने ही भीतर चलने लगती है - - - बखिया की तरह
सी देती है अभिव्यक्ति का मुख
कस देती है उंगलियों को ।
आदमी के भीतर बस जाता है
एक अभिशप्त 'कुलधारा'
अपने इतिहास को प्रेतात्माओं के रुदन
से बयान करता।