चाहती हूं कि आदमी फिर से लौट जाए गुफाओं में...
आग जला कर अपने डेरे के चारों ओर बिताए रात
करे सुरक्षा जंगली जानवरों से
पूरा पूरा दिन गुजार दे खाने की तलाश में
कुछ जड़ कुछ फल कुछ साग- पात हो
उसकी सारे दिन की खोज का परिणाम
प्राकृतिक आपदाओं से डरा हुआ वो करता हो
पेड़, नदियों , सूरज ,चांद, पहाड़, समंदर, पृथ्वी की पूजा
यही हों उसके आराध्य देवी देवता
हवाओं के इशारे समझने में उसे लगती हो एक उम्र
हथेलियों पर पड़ी गांठों से सीखे जीवन की जटिल और नरम चोट का वार
चाहती हूँ मन की अप्राप्य चाहनाएं बन कर परी कथाओं सी सुनी जाएं सितारों भरे आकाश को ताकते हुए।
अनुभूतियों को कहने के लिए नहीं हों शब्दों के अपरिमित भंडार, शब्दकोश
कुछ सीमित इशारे हों या फिर हाथ में हो गेरूआ और चूना पत्थर जिनसे उकेर दिए जाएं भाव गुफाओं की भित्तियां पर
बस इतना सा ही हो जीवन का उद्घाट्य
शेष सब बन जाए एक गूढ़ रहस्य।
अबुझ उलझा हुआ
बहुत ज्यादा जान लेना कितनी ऊब पैदा करता है
मैं चाहती हूँ फिर से एक बार
सूरज का उगना
फूल का खिलना
चिड़ियों का चहकना
बीज से फसल का उगना
पत्ते का नदी पर तैरना
हर छोटी से छोटी चीज का होना विस्मित करे
हर एक स्पर्श चाहे वो किसी भी चीज का हो
हवा से हिलते नव कोपल सा कंपित करे
मैं ऐसी जगह लौटना चाहती हूँ जहां से सभ्यताएं एक नवजात की भांति पहली बार आँखें खोल कर अचंभित से देखती मिले।
एक नया आरंभ छोटे- छोटे परिवर्तन के साथ हो शनैः शनैः
बौखलाए विकास से बचाते हुए इंसानियत की तरल संवेदनाओं के तंतुओं को...
लिली