(एक सोच,,,एक ख़्याल,,,)
सुबह का सूरज निकला तो है,,,बहुत तेज,,,ऊष्मा,,,और प्रकाश लिए,,,,,,
पर मेरे अन्तरमन का सूरज आज कुछ मद्धम् है।
छुट्टी के दिन की सुबहें ऐसी तो ना होती थीं कभी,,,,,
तुमसे पहले भी एक वजह थी,,,,तुमसे मिलकर 'वजह' को रफ्तार मिली, पर,,,,,,,,
तुम्हारे होकर भी ना होने से, बड़ी बेवजह,,मायूस और दिशाहीन है।
इन आंखों को जगाना नही पड़ता,,खुद ब खुद खुल जाती हैं,,,
तुमसे पहले भी यूँ ही खुलती थीं,,,एक "ललक" लिए कुछ दुनियावी कामों को निबटाने की,,,
तुमसे मिलकर ये "ललक" रूहानी हो गई,,,तुम्हारी बातों की चमक,,शोखी,,और प्यार लिए,,,सारे दुनियावी काम इस छमक की लय पर कब खत्म हो जाते पता ही नही लगता,,,,!
तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,जागी तो हैं,,,,एक सूनापन लिए,,अपलक कमरे की छत को निहारती,,,
तो कभी लक्ष्यहीन दृष्टि से खिड़की के बाहर देखती हैं,,,।
खैर उठना तो है,,,,यूँ ही करवटों से बिस्तर पर सिलवटें बनाते हुए दिन तो नही गुज़ार सकती,,,,।
उठकर बैठ गई,,,,हाथों मे मोबाइल लिया,,,,,,
तुमसे पहले भी मोबाइल उठाती थी,,,बहुत कुछ था देखने के लिए,,,,बहुत से ठिकाने थे तथाकथित 'इन्टरनेटी ज्ञानार्जन' कर सुबह की शुरूवात करने के,,,,,,।
तुमसे मिलकर,,,,,बस तुम थे,,,,और सब कुछ तुम मे ही था,,,,एक तरंग थी,,उमंग थी,,,लहराती बलखाती हमारी हसरतें,,,,ख्याली दुनिया में गोते लगाती एक संग थीं,,,।
तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,सब कुछ बेज़ार है,,खुद से भी उठता अख़्तियार है,,। उंगलियाँ स्क्रिन को बस अनमनी सी इधर -उधर खिसकाती रहीं,,,,,बहुत कुछ आज भी था,,,,,पर,,दिखा नही,,,,।
खुद मे तुमको समेट कर,,,उठी हूँ,,,,शायद थोड़ी ताकत मिले,,,! पैर जिस्म के बोझ को उठा ,,,किचन की तरफ चल पड़े,,,सफर बड़ा लम्बा सा लगे,,,!
गैस जला,,पानी गरम करने को रख,,,एक कोने पर खुद को टिका दिया,,,,कभी चुल्हे की लौ ,,तो कभी,,,गर्म होते पानी की सुगबुगाहट देखती रही,,,,,।
तुमसे पहले भी चाय बनाती थी,,,,वह तो बस,,,,,,,चाय बनाती थी,,,सुनती थी ऐसा कि-' सुबह की चाय दिन को शुरूवात देती है,,,एक नई किक् स्टार्ट देती है।' सब बनाते हैं,,, शायद यह भी एक 'ब्रह्मांडीय सत्य' हो,,,,,,,।
तुमसे मिलकर भी चाय बनाती थी,,, पानी,,दूध,,शक्कर,,चाय की पत्ती सब तुम थे,,,,,एहसासों की आंच पर खूब पकाती थी,,,,,गजब की चुस्ती थी, हर चुस्की में,,,,,।गरम चाय की प्याली से उठते धुँएं से बनता तुम्हारा चेहरा,,,मुस्कुराता हुआ सा,,,मुझे बुलाता हूआ सा,,,,!!!!
तुम्हारे होकर भी ना होने पर भी चाय बनाई है,,,,शायद थोड़ी चुस्ती मिले,,,,चम्मच से चीनी घोलते हुए चाय का भंवर तैयार कर रही हूँ,,,,और बस चाय ही पी रही हूँ,,,,,,।
काश के हाथों की लकीरों को पढ़ पाती,,,,, ये लकीरें तुमसे पहले भी हथेलियों पर खिंचीं थीं,,,,देखती पहले भी थी,,,उनमे से कुछ खो गईं,,,,कुछ गहरा गईं,,,,,,एक जाल सा लगती थीं,,,जिसमे किस्मत उलझी थी,,,,।
तुमसे मिलकर भी इन लकीरों को देखती थी,,,हर लकीर तुमसे जुड़ी नज़र आती थी,,,,ग़ुमान करातीं थी ,,, कितनी खुशनसीबी है,,,कितनी बरक्कत है,,,तुमसे मिलने के बाद।चूम लिया कई बार खुद अपनी ही हथेलियों को,,,,,क्योंकि तुम थे हर लकीर में,,,,,,,,,,।
तुम्हारे होकर भी ना होने पर,, भी हथेलियों मे लकीरें हैं,,,सब बिखर गई हैं,,,जैसे तुमसे बिछड़ गई हैं,,,अब बस खोज रही हूँ,,,,,,कौन सी लकीर मे तुम थे?,,,,हथेलियों को घुमा फिरा कर,,,,चमड़ी को खींच-तान कर,,,,उंगलियों को खिसका कर,,,,,बस खोज रही हूँ -तुम कहाँ हो,,,,,,,,?
'छुट्टियों की सुबहें' ऐसी तो नही होती थीं,,,,,,,,,
ऐसी बिल्कुल भी नही होती थीं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
सुबह का सूरज निकला तो है,,,बहुत तेज,,,ऊष्मा,,,और प्रकाश लिए,,,,,,
पर मेरे अन्तरमन का सूरज आज कुछ मद्धम् है।
छुट्टी के दिन की सुबहें ऐसी तो ना होती थीं कभी,,,,,
तुमसे पहले भी एक वजह थी,,,,तुमसे मिलकर 'वजह' को रफ्तार मिली, पर,,,,,,,,
तुम्हारे होकर भी ना होने से, बड़ी बेवजह,,मायूस और दिशाहीन है।
इन आंखों को जगाना नही पड़ता,,खुद ब खुद खुल जाती हैं,,,
तुमसे पहले भी यूँ ही खुलती थीं,,,एक "ललक" लिए कुछ दुनियावी कामों को निबटाने की,,,
तुमसे मिलकर ये "ललक" रूहानी हो गई,,,तुम्हारी बातों की चमक,,शोखी,,और प्यार लिए,,,सारे दुनियावी काम इस छमक की लय पर कब खत्म हो जाते पता ही नही लगता,,,,!
तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,जागी तो हैं,,,,एक सूनापन लिए,,अपलक कमरे की छत को निहारती,,,
तो कभी लक्ष्यहीन दृष्टि से खिड़की के बाहर देखती हैं,,,।
खैर उठना तो है,,,,यूँ ही करवटों से बिस्तर पर सिलवटें बनाते हुए दिन तो नही गुज़ार सकती,,,,।
उठकर बैठ गई,,,,हाथों मे मोबाइल लिया,,,,,,
तुमसे पहले भी मोबाइल उठाती थी,,,बहुत कुछ था देखने के लिए,,,,बहुत से ठिकाने थे तथाकथित 'इन्टरनेटी ज्ञानार्जन' कर सुबह की शुरूवात करने के,,,,,,।
तुमसे मिलकर,,,,,बस तुम थे,,,,और सब कुछ तुम मे ही था,,,,एक तरंग थी,,उमंग थी,,,लहराती बलखाती हमारी हसरतें,,,,ख्याली दुनिया में गोते लगाती एक संग थीं,,,।
तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,सब कुछ बेज़ार है,,खुद से भी उठता अख़्तियार है,,। उंगलियाँ स्क्रिन को बस अनमनी सी इधर -उधर खिसकाती रहीं,,,,,बहुत कुछ आज भी था,,,,,पर,,दिखा नही,,,,।
खुद मे तुमको समेट कर,,,उठी हूँ,,,,शायद थोड़ी ताकत मिले,,,! पैर जिस्म के बोझ को उठा ,,,किचन की तरफ चल पड़े,,,सफर बड़ा लम्बा सा लगे,,,!
गैस जला,,पानी गरम करने को रख,,,एक कोने पर खुद को टिका दिया,,,,कभी चुल्हे की लौ ,,तो कभी,,,गर्म होते पानी की सुगबुगाहट देखती रही,,,,,।
तुमसे पहले भी चाय बनाती थी,,,,वह तो बस,,,,,,,चाय बनाती थी,,,सुनती थी ऐसा कि-' सुबह की चाय दिन को शुरूवात देती है,,,एक नई किक् स्टार्ट देती है।' सब बनाते हैं,,, शायद यह भी एक 'ब्रह्मांडीय सत्य' हो,,,,,,,।
तुमसे मिलकर भी चाय बनाती थी,,, पानी,,दूध,,शक्कर,,चाय की पत्ती सब तुम थे,,,,,एहसासों की आंच पर खूब पकाती थी,,,,,गजब की चुस्ती थी, हर चुस्की में,,,,,।गरम चाय की प्याली से उठते धुँएं से बनता तुम्हारा चेहरा,,,मुस्कुराता हुआ सा,,,मुझे बुलाता हूआ सा,,,,!!!!
तुम्हारे होकर भी ना होने पर भी चाय बनाई है,,,,शायद थोड़ी चुस्ती मिले,,,,चम्मच से चीनी घोलते हुए चाय का भंवर तैयार कर रही हूँ,,,,और बस चाय ही पी रही हूँ,,,,,,।
काश के हाथों की लकीरों को पढ़ पाती,,,,, ये लकीरें तुमसे पहले भी हथेलियों पर खिंचीं थीं,,,,देखती पहले भी थी,,,उनमे से कुछ खो गईं,,,,कुछ गहरा गईं,,,,,,एक जाल सा लगती थीं,,,जिसमे किस्मत उलझी थी,,,,।
तुमसे मिलकर भी इन लकीरों को देखती थी,,,हर लकीर तुमसे जुड़ी नज़र आती थी,,,,ग़ुमान करातीं थी ,,, कितनी खुशनसीबी है,,,कितनी बरक्कत है,,,तुमसे मिलने के बाद।चूम लिया कई बार खुद अपनी ही हथेलियों को,,,,,क्योंकि तुम थे हर लकीर में,,,,,,,,,,।
तुम्हारे होकर भी ना होने पर,, भी हथेलियों मे लकीरें हैं,,,सब बिखर गई हैं,,,जैसे तुमसे बिछड़ गई हैं,,,अब बस खोज रही हूँ,,,,,,कौन सी लकीर मे तुम थे?,,,,हथेलियों को घुमा फिरा कर,,,,चमड़ी को खींच-तान कर,,,,उंगलियों को खिसका कर,,,,,बस खोज रही हूँ -तुम कहाँ हो,,,,,,,,?
'छुट्टियों की सुबहें' ऐसी तो नही होती थीं,,,,,,,,,
ऐसी बिल्कुल भी नही होती थीं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,।