शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

तुमसे पहले,,,तुम्हारे साथ और,,,,,,,तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,,

                     (एक सोच,,,एक ख़्याल,,,)

सुबह का सूरज निकला तो है,,,बहुत तेज,,,ऊष्मा,,,और प्रकाश लिए,,,,,,
पर मेरे अन्तरमन का सूरज आज कुछ मद्धम् है।
छुट्टी के दिन की सुबहें ऐसी तो ना होती थीं कभी,,,,,
   तुमसे पहले भी एक वजह थी,,,,तुमसे मिलकर 'वजह' को रफ्तार मिली, पर,,,,,,,,
तुम्हारे होकर भी ना होने से, बड़ी बेवजह,,मायूस और दिशाहीन है।
इन आंखों को जगाना नही पड़ता,,खुद ब खुद खुल जाती हैं,,,
तुमसे पहले भी यूँ ही खुलती थीं,,,एक "ललक" लिए कुछ दुनियावी कामों को निबटाने की,,,
    तुमसे मिलकर ये "ललक" रूहानी हो गई,,,तुम्हारी बातों की चमक,,शोखी,,और प्यार लिए,,,सारे दुनियावी काम इस छमक की लय पर कब खत्म हो जाते पता ही नही लगता,,,,!
    तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,जागी तो हैं,,,,एक सूनापन लिए,,अपलक कमरे की छत को निहारती,,,
तो कभी लक्ष्यहीन दृष्टि से खिड़की के बाहर देखती हैं,,,।
  खैर उठना तो है,,,,यूँ ही करवटों से बिस्तर पर सिलवटें बनाते हुए दिन तो नही गुज़ार सकती,,,,।
   उठकर बैठ गई,,,,हाथों मे मोबाइल लिया,,,,,,
तुमसे पहले भी मोबाइल उठाती थी,,,बहुत कुछ था देखने के लिए,,,,बहुत से ठिकाने थे तथाकथित 'इन्टरनेटी ज्ञानार्जन' कर सुबह की शुरूवात करने के,,,,,,।
     तुमसे मिलकर,,,,,बस तुम थे,,,,और सब कुछ तुम मे ही था,,,,एक तरंग थी,,उमंग थी,,,लहराती बलखाती हमारी हसरतें,,,,ख्याली दुनिया में गोते लगाती एक संग थीं,,,।
     तुम्हारे होकर भी ना होने पर,,,,सब कुछ बेज़ार है,,खुद से भी उठता अख़्तियार है,,।  उंगलियाँ स्क्रिन को बस अनमनी सी इधर -उधर खिसकाती रहीं,,,,,बहुत कुछ आज भी था,,,,,पर,,दिखा नही,,,,।
   खुद मे तुमको समेट कर,,,उठी हूँ,,,,शायद थोड़ी ताकत मिले,,,! पैर जिस्म के बोझ को उठा ,,,किचन की तरफ चल पड़े,,,सफर बड़ा लम्बा सा लगे,,,!
    गैस जला,,पानी गरम करने को रख,,,एक कोने पर खुद को टिका दिया,,,,कभी चुल्हे की लौ ,,तो कभी,,,गर्म होते पानी की सुगबुगाहट देखती रही,,,,,।
  तुमसे पहले भी चाय बनाती थी,,,,वह तो बस,,,,,,,चाय बनाती थी,,,सुनती थी ऐसा कि-' सुबह की चाय दिन को शुरूवात देती है,,,एक नई किक् स्टार्ट देती है।'  सब बनाते हैं,,, शायद यह भी एक 'ब्रह्मांडीय सत्य' हो,,,,,,,।
   तुमसे मिलकर भी चाय बनाती थी,,, पानी,,दूध,,शक्कर,,चाय की पत्ती सब तुम थे,,,,,एहसासों की आंच पर खूब पकाती थी,,,,,गजब की चुस्ती थी, हर चुस्की में,,,,,।गरम चाय की प्याली से उठते धुँएं से बनता तुम्हारा चेहरा,,,मुस्कुराता हुआ सा,,,मुझे बुलाता हूआ सा,,,,!!!!
    तुम्हारे होकर भी ना होने पर भी चाय बनाई है,,,,शायद थोड़ी चुस्ती मिले,,,,चम्मच से चीनी घोलते हुए चाय का भंवर तैयार कर रही हूँ,,,,और बस चाय ही पी रही हूँ,,,,,,।
  काश के हाथों की लकीरों को पढ़ पाती,,,,, ये लकीरें तुमसे पहले भी हथेलियों पर खिंचीं थीं,,,,देखती पहले भी थी,,,उनमे से कुछ खो गईं,,,,कुछ गहरा गईं,,,,,,एक जाल सा लगती थीं,,,जिसमे किस्मत उलझी थी,,,,।
    तुमसे मिलकर भी इन लकीरों को देखती थी,,,हर लकीर तुमसे जुड़ी नज़र आती थी,,,,ग़ुमान करातीं थी ,,, कितनी खुशनसीबी है,,,कितनी बरक्कत है,,,तुमसे मिलने के बाद।चूम लिया कई बार खुद अपनी ही हथेलियों को,,,,,क्योंकि तुम थे हर लकीर में,,,,,,,,,,।
   तुम्हारे होकर भी ना होने पर,, भी हथेलियों मे लकीरें हैं,,,सब बिखर गई हैं,,,जैसे तुमसे बिछड़ गई हैं,,,अब बस खोज रही हूँ,,,,,,कौन सी लकीर मे तुम थे?,,,,हथेलियों को घुमा फिरा कर,,,,चमड़ी को खींच-तान कर,,,,उंगलियों को खिसका कर,,,,,बस खोज रही हूँ -तुम कहाँ हो,,,,,,,,?
  'छुट्टियों की सुबहें' ऐसी तो नही होती थीं,,,,,,,,,
  ऐसी बिल्कुल भी नही होती थीं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
 

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

आपकी निजता,,आपका अपना आसमान,,,,,,

                       (चित्र इन्टरनेट से)
मनुष्य की निजता (privacy)उसकी सबसे बड़ी पूँजी है,,,, सदैव एक सीमा रेखा खींच कर रखिए,,उस सीमा को लांघने से पहले ,,,हर कोई चाहे वह आपके प्रियजन ही क्यों ना हो,,, एकबार पूछने को विवश हों,,कि "-क्या मैं इस सीमा के अन्दर प्रवेश कर सकता हूँ?" और आप अपने सामाजिक ,,परिवारिक पर्यावरण मे भले ही जितने परावलम्बी(dependent) हों,, यहाँ पूरी तरह से स्वतंत्र हों।
  आपकी निजता आपका आसमान,,, एकदम बाधा रहित,,जहाँ आपकी कल्पनाएँ,खुले व्योम मे आंख बंद कर के किसी भी दिशा मे उड़ सकें। आप जब उड़ान भरने के लिए पंख फैलाएं तो ऐसा ना हो कि पिंजरे की खांचों से टकरा कर चोट खाजाएं।
    आपके जीवन भवन का हर तल भले ही कई आधार स्तम्भों पर क्यों ना टिका हो,,, सम्बन्धों और बंधनों की दीवारो से निर्मित इसके कमरों मे चाहे जितने हवादार और बड़े खिड़की और दरवाजे क्यों ना बनवाए गए हों,,,एक झरोखा आपका अपना अवश्य होना चाहिए जो आपकी पसंदीदा कमरे मे आपकी पसंद की दीवार पर बना हो।
    जब आप दुनिया और उसकी दुनियादारी निभाते निभाते थक कर चूर हो जाएं,,।बड़ी बड़ी खिड़कियों और दरवाजों से आने वाली हवा मे दम घुटता सा प्रतीत हो,तब आप अपनी 'निजता' के कक्ष मे बैठ सकें। एक छोटा सा आपका अपना झरोखा जहां से आप अपने आसमान को निहार सकें। पंख पसार उड़ने की कल्पना कर सकें। अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को अपने आसमानी कैनवास पर अपनी रूचि के अनुरूप कुछ आंक सकें।
     कुछ पल केवल अपने साथ गुज़ार सकें,,,अपनी धुन पर ज़िन्दगी को नचा सके,,,आपकी कल्पनाओं की 'तीनताल' 16 मात्राओं की नही 24 मात्राओं की हो।ताल पर बजने वाले वाद्य आपके अनुसार ध्वनि तरंग निकालते हों। जीवन बंसुरी से  आपकी मनोहारिनी तान निकलती हो जो आपको आनंदीभूत करती हो।
    अपनी निजता का सम्मान करना अति आवश्यक है। यहीं से आपके आत्मबल का जन्म होता है। आप कल्पनाओं की अवधारणा कर स्वम् को पल्लवित और सशक्त बनाते हैं।
  व्यक्तित्व को लचीला बनाइए, पारदर्शी बनाइए परन्तु अपनी निजता की सीमारेखा तक,,,,,,,,। अपने आस-पास के घेरे को सशक्तिकरण प्रदान कीजिए,,क्योंकि वह आपकी क्षमता,उदारता, परिजनो के प्रति  प्रेम का प्रतीक है,,,ऊर्जायमान् कीजिए क्योंकी आप भी कहीं ना कहीं आवश्यकतानुजई प्रकाशित होते हैं। परन्तु सशक्तिकरण करने मे खुद शक्तिहीन हो जाएं,,,ऊर्जा प्रदान करते करते खुद ऊर्जाहीन हो जाएं,,यह तो स्वम् के साथ अन्याय है। खुद को शक्तिवान,ऊर्जावान बनाए रखने के लिए अपनी 'निजता' के सूर्य को अस्त मत होने दीजिए। सूर्य सा सितारा  बनिए,,,चन्द्रमा सा उपग्रह मत बनिए।
     अपनी 'निजता' को जिलाए रखिए और दूसरों की 'निजता' का सम्मान करिए।

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

विरह का हवनकुंड,,,

(चित्र इन्टरनेट से)

कोई विछोह से हो रहा तार तार,,,
तो कहीं मिलन की तड़प लिए
संजोता नित नए योजनाओं का संसार,,,
विरह के दोनो ही रूप से आकार लेता काव्य हार,,
प्रकृति मे खोजता उदाहरण
करता आत्मसात,,,
तो कभी कहता नियति की बिसात,,
नयन झरे निरन्तर ,
अश्रु उड़ जाएँ बन भाप,,,
श्रृवण संवेदना अति प्रबल,,
पुष्प विछोह दरख्त से
और सुनाई दे चीत्कार,,,,
सूर्य प्रचंड रहा धधक्,,
लगे जगत अन्धकार,,,,
साहित्य की विधा मे नही
बंध रहे हैं शब्द आज,,
गद्य नही ये पद्य नही
भाव बहे निर्बाध,,
 उच्च शिखर से गिर रहा हो
प्रबल वेग से जल प्रपात,,
परिस्थिति जनित या
नियति का मायाजाल,,
विछोह की आहुति कुंड मे
भस्मा रही वेदना हो निहाल,,
कालकठोर करे मंत्रजाप
निरर्थक भूलने का प्रयास,,
विरह वेदना को बहजाने दो
प्रीत सिन्धु को गहराने दो,,
विचारों से उत्पन्न विचार
प्रकृति संग मनुष्य सम्बन्धों
को दे रहे हैं विस्तार ,,,,,
भावनाएँ संवेदनाएँ घुल रही
हृदय निकालता निष्कर्ष
गहराता जाए रहस्य जाल,,,।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

धुंध,,,,,

(चित्र इन्टरनेट से)


                 कुछ रिश्तों के कोई नाम नही होते
                 गुमनाम भटकते, अंजाम नही होते।

                 खुले आसमान मे उड़ते रहने की सोच
                 कोई इनके,आसमानी दायरे नही होते।

ख्यालों की धुंध मे जीने की हो चाहत
पलभर की खुशियाँ, हल्की सी राहत।

हवाओं मे तराशे भावनाओं के बादल,
यर्थाथ के झोंके, बिखरता आत्मबल।

            जिन्दगी से जो ना मिला,चुराने की हसरत
            सभी पहलुओं को खुश रखने की कसरत

            दो कश्तियों पर फंसा जीवन पतवार
            नियति की नदिया तो बहे विपरीत धार।

सूरज से होते हैं ये ख्याली से रिश्ते,
सिकुड़ते से जीवन मे गरमी की किश्तें।

आगोश मे भरने की कोशिश बचकाना,
भस्माए हस्ती ख़ाक का भी न ठिकाना।

          कुछ रिश्तों के कोई नाम नही होते
          गुमनाम से भटकते कोई अंजाम नही होते।

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

मेरी ज़िन्दगी को मेरी भावमयी प्रस्तुती,,,,,

                   *जीवन की जीवटता को पहचानिए*

"कुछ लोग ज़िन्दगी मे नही होते,,,ज़िन्दगी होते हैं,,," यह पंक्तियां कहीं पढ़ी थी,,,तब से मेरे मानस पटल पर लहरों सी हिंडोले मारती रहीं,,मै इन लहरों के थपेड़ो से भीगती बचती, डूबती तैरती, कभी साहिल पर तो कभी गहराइयों मे उतरती रही। आखिर इन पंक्तियों मे ऐसा क्या है??? खुद भी उलझी हूँ ,,आइए आपको भी उलझाती हूँ शायद आत्मचिन्तन से मै पंक्तियों से तारतम्य बिठा सकूँ।
  किसी का ज़िन्दगी मे होना और ज़िन्दगी होना,,,,बहुत सारगर्भित आशय लिए है,,। जैसे सांसों का चलना और सांसों के चलने की वजह होना। इस चेतनापूर्ण जीवन का मूल क्या है? फूल मे सुगन्ध है, कोमलता और आकर्षण है,,,,सृष्टि की इस सौन्दर्यमयी रचना का अवश्य ही कोई निर्धारित कारण होगा।
   ऊषा की प्रथम किरण से फैलता प्रकाश,,,पक्षियों का कलरव, शीतल मंद बयार,,नदियों मे जल,,पहाड़ों की ऊचाँई,,,ज्वालामुखी की सच्चाई,,,,सभी कार्यों का कारण अवश्य ही है,,। इनका अस्तित्व अप्रत्यक्ष रूप से कहीं ना कहीं जीवन को लक्ष्य प्रदान करता है,,प्रेरणा प्रदान करता है। इनका होना ही जीवन है।
    मनुष्य एक लम्बा सफर तय कर जीवन के हर पड़ाव पर पहुँचता है। एकान्त मे कभी ना कभी अवश्य ही अपने अस्तित्व के 'कारण' पर चिन्तन करता है,,जोकि अति स्वाभाविक है। जब शिशु होता है ,,तो अविभावक की खुशियों की फुहार,,,,उनके जीवन कर्तव्यों की गुहार,,,,फिर खुद की पहचान बनाने मे जुट,,, झेलता संघर्ष ललकार,,। हृदय  स्पन्दन की धुन पर सांसो का नर्तन,,,,इन्द्रियों के छन्दन पर भावनाओं का आवर्तन,,,,,। जीवन का यह संगीत नित नयी राग पर झूमता,,,क्यों??????????आवश्य ही किसी संगीतकार की रचनात्मकता का सृजन हो रहा हो,,,जीवन संगीत निर्मित हो रहा हो।
     जिसप्रकार पदार्थ की संरचना अणुओं और परमाणुओं का संघटन है,,,उसी प्रकार मनुष्य जीवन भी उसके आस पास के वातावरण से पोषित एंवम् पल्लवित होता है।उसका जीवन कई अन्य जीवन से प्रभावित,संरक्षित एंवम् सुचारू भाव से चलायमान होता है,,। परन्तु ,,,,,,,इन सब के होते हुए भी एक कोई ऐसा होता है जो,अणुओं परमाणुओं के भांति मानव शरीर रुपी पदार्थ को स्थूलता नही प्रदान करता,,,,परन्तु जीवन उसके लिए बना होता है,,,,,आस-पास सशरीर विद्यमान नही,,,किन्तु 'उससे' संचारित होने वाली जीवनमयी तंरगें 'जीवन' का कारण होती हैं ।
    वह शक्तिपुंज है,,वह शरीर रूपी ब्रह्माण का सूर्य,,,वह वायुमण्डल की वायु,,वह समस्त इन्द्रियों का नियंत्रणकर्ता है। 'उसके' लिए दैनिक दिनचर्या के कर्तव्यों का निर्वहन नही करना पड़ता फिर भी वह दैनिक जीवन को निर्धारित करता है। 'वह जिन्दगी मे नही,,,,,वह तो ज़िन्दगी होता है।'
  आत्मा का आत्मा से मिलन परमानंद की अनुभूति देता है। सब अदृश्य है,स्थूल और नग्न आंखों से दर्शनीय नही है,,,,फिर भी सांसों के प्रवाह में,,,,शक्तिपुंज के अवगुंठन मे,,,चेतना के तारतम्य मे वह अप्रत्यक्ष रूप जीवन को दीप्तमान किए,,,,वह जीवन मे नही,,,जीवन ही होता है,,,।
   खिली चांदनी रात में सागर की लहरों मे आया 'ज्वार भाटा' ,,,,,,यह प्रकृति की कौन सी शक्ति है जो पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण की गहनतम शक्ति को चुनौती देती है। समुद्र की अथाह जलराशि को आन्दोलित कर आसमान छूने को उद्वेलित करती है,,,,,? पृथ्वी से सहस्त्र योजन दूर सूर्य को संध्या काल मे सागर मे समाहित कर देती है,,? प्रचंड तांडव मचाते मन मस्तिष्क मे यह आश्चर्यपूर्ण प्रश्न,,,,क्या सम्बन्ध इनका एक सामान्य मानव जीवन से,,,,? ये हमारे दैनिक कार्यकलापों का हिस्सा नही,,,फिर भी ये अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। ये सृष्टि के अटल सत्य,,जीवनमूल के आवश्यक मानदंड ,,,,,,"यही जीवन होते हैं।"
    विचारों का तानाबाना बुनती गई,,, उँगलियों मे उलझते अनगिनत सूत को अलग-अलग करती,, अभिव्यक्ति का वस्त्र तैयार करने की कोशिश,,,, समझने की कोशिश कि कुछ लोग ज़िन्दगी कैसे होते हैं?? आवश्यकता है अपनी ज़िन्दगी को पहचानने की। जिससे मिलकर परमानंद की अनुभूति हो,,, जीवन मे ऊर्जासंचार हो,,,जीवन जीने की प्रेरणा मिले,,, सृष्टि के रहस्यों और रोमांच को खोजने का मन करे ,रचनात्मकता को सृजन मिले ऐसे लोग ज़िन्दगी मे नही होते ज़िन्दगी होते हैं।
"मेरी ज़िन्दगी को मेरी भावमयी प्रस्तुती,,,,,,,।"

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

चाय की गुमटी के पास का वो बहता 'नलका',,,,,,

(चित्र इन्टरनेट से)

प्रत्येक मनुष्य अपनी दिनचर्या के कुछ काम बड़े नियमित और मनोयोग से करता है,यह काम उन्हे अधिक प्रिय हो जाते हैं क्योंकि यह उनका 'अपना नीजि समय' होता है। कार्य का कार्यवहन काल भले ही छोटा  क्यों ना हो, उन्हे पूरी तन्मयता से जिया जा सकता है।मेरी भी दिनचर्या मे कुछ ऐसे काम हैं जिन्हे मै पूरी तन्मयता से जीती हूँ,,,ऐसा ही एक काम है, सुबह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर बस स्टाॅप  से बस पर चढ़ाकर दूध लेने निकट के 'मदर डेयरी बूथ' जाना। मौसम चाहे जैसा भी हो, इतवार के अलावा मै आलस्य नही करती।
   एक सुनिश्चित रफ्तार मे,एक निश्चित समय के अन्दर ,स्वयं के विचारों की आवाजाही लिए घर वापस आ जाती हूँ। कभी किसी जटिल पहेली का हल खोज, एक सफल वार्तालाप की उपलब्धी लिए,,,,,, तो कभी बुरी तरह उलझ माथे परे प्रश्नसूचक रेखाओं के लिए वापस लौटती हूँ।
    मेरी काॅलोनी के गेट के सामने से निकलने वाली सड़क जैसे ही बाज़ार की ओर मुड़ने वाली तिमुहानी से जुड़ती है, वहीं फुटपाथ के दूसरी तरफ एक चाय की गुमटी है। चाय की दुकान के पास ही जमीन से बहुत कम ऊँचाई  पर लगा एक 'नलका' रोज़ मेरा ध्यान आकर्षित करता है। आज भी मेरी दृष्टि उस नलके से बह कर गिरने वाले पानी की आवाज़ ने खींच ली । कभी इस नलके पर "टोटी" लगी होती है,तो कभी बिना टोटी के सरकटे पाइप से अनवरत् जल बहता रहता है।
   आज नलका गायब था,,या तो टूट गया होगा या सार्वजनिक सम्पत्ति पर कोई सज्जन हाथ साफ कर गया होगा। "जल ही जीवन है" ,, "पानी  का मोल पहचानिए" या "जलसंरक्षण जागरुकता अभियान" जैसे ढेरो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के किए जा रहे प्रयास तब मुझे नलके के नीचे बने गड्ढे मे बहते दिखे। मै भी दूध का पात्र लिए 'अमूल्य स्वच्छ पेय जल' को बहता देख कर भी अनदेखा कर आगे बढ़ गई। मै शायद यह जानती हूँ कि- यदि मैने 'नलका'  लगवा भी  दिया, चार दिन बाद यही हश्र होना है।
   पर ऐसा नही की मै जल संरक्षण नही करती,,,,,जहाँ मेरी पहुँच है,,और मुझे पता है की मै यहाँ अपने दायित्व का निर्वाहन अधिक सक्षम् रूप से कर सकती हूँ, वहाँ पूरी तरह से अनुपालन करती हूँ । और मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि परिवार के सदस्य इस महत्व को अच्छे से समझते हैं एंवम् जागरूक हैं।
     आत्मचिन्तन कर मैने पाया है कि,,,किताबी ज्ञान,,वेद-पुराण कभी 'प्रकृति' से अधिक प्रभावशाली शिक्षक नही सिद्ध हो सकते।कितने ही जनसंपर्क साधनों से हम स्वंय को  जागरूक बनाते हैं ,,परन्तु ज़रा सोचिए,,, हम मे से कितने इस जागरूकता से अर्जित ज्ञान को व्यवहार मे लाते हैं,,,, आधी बाल्टी पानी से भी कार की सफाई हो जाती है,,,,लेकिन कुछ लोगों की कारें जब तक पाइप से तेज प्रवाह मे निकलते पानी से पूरी तरह सड़कों तक को नही नहला लेतीं ,,चमक नही आती उनमे,,,,,यह मात्र एक छोटा सा उदाहरण रोज़ देखती हूँ दूध लाते समय।
    बात मात्र जल संरक्षण की ही नही,अनगिनत मुद्दे हैं,,,,,। व्यक्तिगत, पारिवारिक,सामाजिक,राष्ट्रीय या उससे भी ऊपर के स्तरों पर जीवन को व्यवस्थित,सुसंगठित एंवम् सुचारु रूप से चलाने के लिए एक तथाकथित 'नियमावली' है,,, निर्देशानुसार अनुपालन विरले को करते ही देखा गया हैं। मै दोषारोपण नही कर रही,,एक स्वाभाविक मानव आचरण की चर्चा कर रही हूँ,,,,।कहीं न कहीं मै भी इस श्रेणी मे आती हूँ।
    'नल के बहते जल' को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। क्योंकी अभिव्यक्तियों के भवन निर्माण के लाए एक नींव की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे दिन आगे खिसकता जाएगा,,आस -पास की 'फूड स्टाल' या 'मोटर मैकेनिक' अपने प्रयोजन अनुसार पानी ले जाएगें। टोटी ना होने के कारण खोलने और बंद करने का  ऊगँलियों का श्रम बच जाएगा,,, जल का महत्व तब समझ आता है जिस दिन पानी की सप्लाई ठप्प हो जाती है। पानी की तलाश मे या तो भटकना पड़ता है या एक ही दिन मे 'कम पानी मे काम कैसे चलाए',,के गुर आ जाते हैं।
    कुछ दिनो पहले पुत्र के साथ भौतिक विज्ञान के एक विषय पर  चर्चा हुई  उसने बताया,, इस पृथ्वी पर कुछ भी कभी व्यर्थ नही जाता' एक सिद्धान्त का उल्लेख इस परिपेक्ष मे उसने किया 'ऊर्जा कभी व्यर्थ नही जाती वह परिवर्तित हो जाती है',,, यह तथ्य बहुत रोचक लगा।पढ़ा मैने भी होगा परन्तु कुछ तथ्य आत्मानुभव से ही स्पष्ट होते हैं। मै आज की अभिव्यक्ति के विषय को यदि विज्ञान के इस नियम से जोड़कर देखूँ तो,,,,,, 'नल का बहता पानी' यदि किसी 'ऊर्जा' का  स्वरूप है तो वह बह कर गड्ढे से वापस धरातल मे पहुँच रहा है,,यदि पक्की जमीन पर है तो सूर्य की गरमी से वाष्पीकृत हो वायुमंडल मे पहुँच रहा है,,,,,,, परन्तु मेरे इस कथन का कदापि यह अभिप्राय नही की हमें नलको से पानी बहता छोड़ देना चाहिए। 'पेय जल' सीमित प्राकृतिक संसाधन है,,और इसका संरक्षण परमावश्यक है।  कार्य और कारण मे एक पारस्परिक गुथाव होता है,,जो विषय,वस्तु एंवम् परिस्थितियों के अनुरूप स्वभावतः वैभिन्नता लिए होते हैं,,,मेरे विचार 'चाय की दुकान के पास बहते नलके' को देख उपजे हैं।
   उस बहते हुए स्वच्छ पेय जल को देख अन्य व्यक्तियों मे भी 'जलसंरक्षण की चेतना' अवश्य जागृत हुई होगी,,,।वह भी अपने परिजनों को इस चेतना के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करेंगें,,,,,,तो जल का 'बहना' व्यर्थ नही ,,,,यह कार्य परिस्थिति जन्य था,,,।,मेरे विवेक ने 'जल ही जीवन' के महत्व को इतने व्यवहारिक रूप मे समझा। भविष्य मे 'भूमिगत जल' के क्षय होने के दुष्परिणाम को सोच अभी से  इसके संरक्षण मे प्रयासरत होने की सिख दी।
    विज्ञान, प्रकृति और मानव विवेक एंवम् बौद्धिक विश्लेषण द्वारा कार्य कारण सम्बन्ध स्थापित करते प्रयोगों का लेखा जोखा है। जिसकी प्रयोगशाला, पाठशाला, निष्कर्षशाला सब प्रकृति ही है। यही बात मानव आचरण पर भी लागू होती है । यहाँ व्यर्थ और अकारण कुछ भी नही। आवश्यकता है ,,,समस्त इन्द्रियों को जागृत रखिए,,,अनुभवों का सही विश्लेषण कर उनसे सीखिए,,,और अपनी ऊर्जा का उपयोग कीजिए,,,,क्योंकी 'ऊर्जा कभी व्यर्थ नही जाती ,,,परिवर्तित हो जाती है'।
   रोज सुबह दुध लेने जाने मे लगने वाली ऊर्जा ने मुझसे यह लेख लिखवा दिया,,,,,अवश्य ही इसके पीछे प्रकृति का कोई नियम या कारण निहित होगा। जिसके परिणाम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं अवश्य प्रस्फुटित होंगें। परन्तु मेरा मन अब परिणामों की चिन्ता नही करता,,,,,जो मिल रहा है बस उसे देखने,,,करने,,और जीने का करता है।