असंतुष्ट प्रश्न
कमरे की हर दीवार,छत, खिड़की दरवाज़े पर
प्रेम बसाया,
एक साथ बैठकर, खिड़की के बाहर दिखने वाले
आभास के आकाश पर
तराशे कल्पनाओं के बादल,
दरवाज़े से होकर गुज़रने वाली अजनबी पदचाप से,
होकर सतर्क
हम मुँह दबा कर हथेलियों से, हँसते रहे एक शरारती हँसीं
मोबाइल पर होते संवादों की नही थी कोई सीमारेखा,
परन्तु अब कुछ अजीब सा हो गया है
हृदय उद्वेलित है भीतरी उथल-पुथल से,
अशान्त मन उसी कमरे की दीवारों और कोनों
में बसे प्रेम से पूछने लगा है सवाल,
लगाने लगा है आक्षेप,
करने लगा है अपेक्षाएँ
खिड़कियों के बाहर दिखने वाला आभास का आकाश
लगने लगा है सीमेन्ट की पक्की सड़क सा,
जिसपर तैरते नही बादल,
दौड़ रहे हैं वाहन,
जिससे निकलते काले धुएँ बादलों का भ्रम देते हैं
पर तराशे नही जा सकते,
अब संवादों को मिटाते वक्त प्रेम गिन कर बता देता है
वाक्यों की संख्याएँ,
'संवादों' ने बदल लिया है पैराहन
अब वे पहनते हैं 'चर्चा का जामा,
और कहा जाता है पूछने पर -"आदतन,बता दिया,
क्योंकि छुपा नही सकता कुछ''..
कभी-कभी पारदर्शिता का अतिरेक भी
बाधित कर देता है सांसों की अविरल आवाजाही!
इसलिये, बस इसीलिए,भागना चाहता है कमरे में बैठा
प्रेम, खुले मैदानों की ओर,
हाट बाज़ारों की ओर,,
होना चाहता है 'अन्यमनस्क',
बंद कर लेना चाहता है हृदय गुहा के कपाट,
यह कैसा पड़ाव है? यह कैसा विस्तार है?
प्रश्न असंतुष्ट हैं सभी यहाँ,
लिली😊