बुधवार, 10 नवंबर 2021

 कहता है बादल ,सोचती है धरा



बादल जता रहा है शिकायत- 


एक पल के लिए  सही 

उड़ो न संग मेरे


दिखा रहा है वितान का

तना हुआ नीलाभ


सहला रहा है 

नरम पात की धानी 

हुई शाख को


बहो तो सही मेरे साथ 

एकबार बवंडर बनाते हुए.....


धरती चुपचाप सुन रही है 

अपनी धुरी पर सधी हुई

सोचती हुई ...एक ओर हल्की सी 

झुकी हुई.....

मेरी गति का मंथर प्रवाह क्यों

नही महसूसते तुम?

बदलती हुई ऋतुएं और दिन के बाद रात,,,!

क्यों तुम चाह रहे मैं तजकर 

अपना नियत-धैर्य 

घूम जाऊं किसी तेज़ दौड़ते

रथ के पहिए सी

'

'

'

क्यों प्रेम के उच्छृंखल आवेग 

में शिथिल पड़ जाता है तुम्हारा विवेक ?

भूडोल से कब हुआ है कुछ निर्माण ?

 क्यों चाहते हो कि तुबड़ जाए मेरी

पूरी देह और ध्वंस हो जाए 

मुझ पर बसा जीवन सौन्दर्य.... 


अब ये मत कहना

'ये तो बस मनबतियां थीं'


इन मनबतियों से भी दरक जाता 

है भीतर बहुत कुछ

विवशता में सूख जाता है

हर बार संवेदना का एक अंश 

तरल ... 

पत्थरा जाता है 

अंतस...


लिली