(चित्र: रवींद्रनाथ टैगोर)
अपने भीतर की आग में खुद को स्वाहा कर चुका पलाश
व्यतीत हो जाता है समय के साथ
भूरे अवशेषों में रह रह कर धधकती स्मृतियों का चटक लालपन
इतिहास के पृष्ठों को रंगता...
संतुष्ट है अपने व्यतीत हो जाने से
लौट कर वापस जाना नहीं चाहता
बिछड़ी शाख की
हरी वादियों में
अपनी आग में खुद को जला देना...खुद को खपा देना
आसान नहीं होता
तपी हुई अनुभूतियों का पुरस्कार है यह भूरापन
जो आज सूख कर भी संतुष्ट है
भरा हुआ है आत्मगौरव से
पूर्ण है एक अंश के रूप में
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बीत जाना एक पलाश का
बसंत को हर बार देता है एक नयापन
नया आरंभ...नया स्वप्न...
लिली