शनिवार, 13 सितंबर 2025

मैं देवी नहीं हूँ तुम्हारी




 प्रस्तर की दमघोटू वर्जनाओं को 

तोड़ अपने खुले लहराते केशो में 

टांक कर स्वप्निल तारे

अपनी जमीन और अपना आसमान

खुद तराशती - मैं अब तुम्हारी देवी नहीं हूँ...

मुझे नहीं चाहिए -

आराधना के अभिमंत्रित पुष्प 

होम की शुद्ध की गई वेदी

नैवेद्य का दान

क्योंकि मैं जान चुकी हूँ 

पूजा में छुपा पाखंड

दान में छुपा दोहन

लोबान के सुगंधित धूम्र का 

भ्रमजाल...

मैने जान लिया है 

मानवीय इच्छाओं के उचकने का कौतूहल

छलकती संवेदनाओं को बहा देने का मर्म

दबी कुंठाओं को उलीच देने का सुकून

अपने लिए जीने का आनंद

मैं मुक्त हूँ संस्कृति और मर्यादा के

बोझिल दायित्व से क्योंकि - 

मैं अब देवी नहीं हूँ तुम्हारी

मैं अब देवी नहीं हूँ तुम्हारी 

लिली

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

चुप का अरण्य


 

चुप्पी को चुपचाप बैठ कर इस हद तक संवारा जाए-

'बातें' करने लगें खुसफुसाहट... घबराएं लब खोलने से

जमा करते-करते बहुत से जज़्बात एक दिन

बना डालें खुद को पहाड़

उग जाएंगे 'न कह पाए' बीजों से कितने ही पेड़

बन जाएगा एक हरियाला सा जंगल

जहां दर्द की चिड़ियां सुनाती फिरेंगी

गीत अपनी चहचहाट में

भाव सारे बन जाएंगे एक दरिया

वे भूल जाएंगे आँखों का रास्ता और बहने लगेंगे

पहाड़ों और जंगलों के बीच अपनी एक अलग राह बनाते हुए

उम्मीद का सूरज नहीं पहुंच पाएगा इन सदाबहारी जंगलों की दुर्दांत घनी छांव के पार जमीन तक,

पनपने लगेगा विचारों का एक अलग ही संसार-

कीट पतंगों और जीवों का

भुला दी जाएं मनुष्य निर्मित, भावों और संवेदनाओं को दिए गए जटिल नाम ..परिभाषाएं...और अर्थ

सरल होगा यहां सब कुछ ...क्यों.. क्या.. कैसे..किसलिए..से परे

जो है वही देखा जाएगा, वहीं समझा जाएगा

कोई परत नहीं होगी देखने और समझने के बीच..

मन को नहीं करनी होगी खुद को कुचलने की कोशिश

गा सकेगा दर्द चिड़ियों के साथ

वो बह सकेगा दरिया के साथ

उड़ सकेगा हवा के साथ

अरझ जाएगा किसी पेड़ की शाख से

बाहर की खिचपिचाती दुनिया के

झमेलों से बचकर

तितली बन कर उड़ता रहेगा

परों पर रंगो को सजाए

चंचलता की सभी हदों को पार करता हुआ

चुप के अरण्य में...

लिली


बुधवार, 27 अगस्त 2025

गणेश वंदना


 हे दुखहर्ता!

तुम सिद्धि विनायक
विघ्न हरो
 
हे श्री शुभदायक!
जय जय जय 
हे पार्वती नंदन!
देव,मुनि,मनु करे
सब जग वंदन।
प्रखर बुद्धि
तुम ज्ञान के सागर,
आनंददायक  प्रभु तुम!
 हम खाली गागर
सूर्य चन्द्र 
दो नेत्र तिहारे
असुर निकन्दन
जग पालनहारे।।
त्रिभुज ज्यामिति
सम मोदक हस्ते,
अष्टादश औषधि 
के तुम सृष्टे!
गं गं गणपति
हे गणनायक!
प्रथम पूजित तुम
मंगलदायक!
'ॐ गं गणेशाय नमः'
लिली 

शनिवार, 16 अगस्त 2025

आकाश कुसुम


 


मेघों ने खोल दिए हैं हृदय कपाट

अनवरत झरता जा रहा है 

संचित मेह तरल 

हृदय भूमि से निकल कर एक मनचली बेल

बढ़ाती हुई अपनी पेंग

 बारिश की टपकती हुई एक 

धार का लेकर अवलंबन 

जा पहुंची है आकाश के वक्ष स्थल तक

और देखो खिल उठा है

*आकाश कुसुम*


लिली


बुधवार, 30 जुलाई 2025

बीत जाना पलाश का


 (चित्र: रवींद्रनाथ टैगोर)


अपने भीतर की आग में खुद को स्वाहा कर चुका पलाश 
व्यतीत हो जाता है समय के साथ
भूरे अवशेषों में रह रह कर धधकती स्मृतियों का चटक लालपन
 इतिहास के पृष्ठों को रंगता...
संतुष्ट है अपने व्यतीत हो जाने से
लौट कर वापस जाना नहीं चाहता 
 बिछड़ी शाख की
हरी वादियों में
अपनी आग में खुद को जला देना...खुद को खपा देना
आसान नहीं होता 
तपी हुई अनुभूतियों का पुरस्कार है यह भूरापन
जो आज सूख कर भी संतुष्ट है
भरा हुआ है आत्मगौरव से
पूर्ण है एक अंश के रूप में
.
.
.
बीत जाना एक पलाश का 
बसंत को हर बार देता है एक नयापन
नया आरंभ...नया स्वप्न...
लिली

बुधवार, 30 अप्रैल 2025

लौट जाना चाहती हूँ



चाहती हूं कि आदमी फिर से लौट जाए गुफाओं में...
आग जला कर अपने डेरे के चारों ओर बिताए रात
करे सुरक्षा जंगली जानवरों से
पूरा पूरा दिन गुजार दे खाने की तलाश में
कुछ जड़ कुछ फल कुछ साग- पात हो
उसकी सारे दिन की खोज का परिणाम
प्राकृतिक आपदाओं से डरा हुआ वो करता हो 
पेड़, नदियों , सूरज ,चांद, पहाड़, समंदर, पृथ्वी की पूजा
यही हों उसके आराध्य देवी देवता
हवाओं के इशारे समझने में उसे लगती हो एक उम्र
हथेलियों पर पड़ी गांठों से सीखे जीवन की जटिल और नरम चोट का वार 
चाहती हूँ मन की अप्राप्य चाहनाएं बन कर परी कथाओं सी सुनी जाएं सितारों भरे आकाश को ताकते हुए।
अनुभूतियों को कहने के लिए नहीं हों शब्दों के अपरिमित भंडार, शब्दकोश
कुछ सीमित इशारे हों या फिर हाथ में हो गेरूआ और चूना पत्थर जिनसे उकेर दिए जाएं भाव गुफाओं की भित्तियां पर
बस इतना सा ही हो जीवन का उद्घाट्य 
शेष सब बन जाए एक गूढ़ रहस्य।
अबुझ उलझा हुआ
बहुत ज्यादा जान लेना कितनी ऊब पैदा करता है
मैं चाहती हूँ फिर से एक बार
सूरज का उगना
फूल का खिलना 
चिड़ियों का चहकना 
बीज से फसल का उगना 
पत्ते का नदी पर तैरना
हर छोटी से छोटी चीज का होना विस्मित करे 
हर एक स्पर्श चाहे वो किसी भी चीज का हो 
 हवा से हिलते नव कोपल सा कंपित करे
मैं ऐसी जगह लौटना चाहती हूँ जहां से सभ्यताएं एक नवजात की भांति पहली बार आँखें खोल कर अचंभित से देखती मिले।
एक नया आरंभ छोटे- छोटे परिवर्तन के साथ हो शनैः शनैः
बौखलाए विकास से बचाते हुए इंसानियत की तरल संवेदनाओं के तंतुओं को...
लिली



बुधवार, 26 मार्च 2025

कविताओं का एक प्रकाशित संग्रह


 देखती हूँ नीला आकाश 

तो दिखता है उसका अथाह नीलापन

उड़ते पक्षी, तैरते बदल

और उगते सूरज के साथ रंग बदलता 

कैनवास...

नहीं दिखती कोई कविता 

तैरती हुई बादलों पर... 

उड़ती हुई पक्षियों संग...

सुबह से लेकर रात तक सूरज संग

 रंग बदलते कैनवास पर...

अब सब वैसा ही दिखता है जैसा वो है

मैं भी नहीं देना चाहती उन्हें बिंबों 

का भुलावा...कल्पना का स्वप्नलोक

अब कविता ने मुझे ओढ़ लिया है

वो अब दिखती है मेरे जैसी...

 मैं दिखती हूँ अब- 

 कविताओं का एक प्रकाशित संग्रह

लिली