सोमवार, 3 मार्च 2025

पलाश

 







सुनो मेरे पलाश...झर गए हो तुम मेरी हृदयभूमि पर लेकर अपनी रक्तिमा, मेरी हरित संवेदनाओं को रंग रहे हो फाल्गुनी गुनगुनाहट से। बांध ली है मेरी मन मयूरी ने पग शिंजिनी। राग फाल्गुन में बजने लगी है ऋतु की सितार । कज्जल नयन हो रहें हैं चंचल। हस्तमुद्राएं बन गईं है अंग भंगिमा आमद के लिए है तैयार। प्रकृति दे रही है संगत मन के उल्लास को। गूंज उठे हैं पठन्त के स्वर... थई तत् ता..आ थई तत् आ...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें