बुधवार, 29 जुलाई 2020

दोहराव



दोहराव
*******
कान भी असहाय से
लाचारी में परदों को बाए
हर दोहराव को
प्रविष्टि देते जा रहे
'दोहराव'
वही एक सी बात,,
एक ही बात का
ना मुहँ थकते हैं
ना 'बातें' उकताती हैं,,
लकीर की फकीर सी
चलती हुई
बहुत गहरी धारियां बनाती,
जिसमें उनके खुद के ही पैर
धंस जाते हैं,,,
पर गन्तव्य प्रभावित नही होते,,
वे 'बेहया' से अपनी धुन में
अलमस्त,
हर दोहराव, का किसी
पीछे के गोदाम में
ढेर लगाते जा रहे।
अनगिनत मुहँ से निकली
एक ही बात
अनगिनत कानों तक का
सफर तय करती
एक ही बात
बार बार,,,,लगातार,,हरबार
खुद को दुहराती ,तिहराती
एक गोदाम में
कबाड़ की तरह जमा होती जाती हैं
लिली

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही शानदार कविता है लिली मित्रा ! कितनी ख़ूबसूरती से तुमने दोहराव को अलग-अलग नज़रिए से देखा-परखा और जिया है। एक ही बात को हम बार-बार, बार-बार दोहराए चले जा रहे हैं और हमारे पांव तक भी चलते-चलते उसी दोहराव में धंस रहे हैं... क्या बात है ! उस दोहराव को हम पीछे अपनी स्मृतियों के गोदाम में इकट्ठा करते चले जा रहे हैं... बहुत मार्मिक, गहरी, ऊंची और इस समय की अनुभवपगी कविता है। हालांकि ये भी सत्य है कि ये ज़िन्दगी भी दोहरावों से ही अटी पड़ी है। रोज़-रोज़ सब वही, सब वही... रोज़ सूरज का निकलना, रोज़ डूबना, फिर रोज़ निकलना, रोज़ डूबना...
    मेरा एक दोहा है -
    रोज़-रोज़ ही दिन उगे, रोज़-रोज़ ही रात।
    सपना दिखना-टूटना, रोज़-रोज़ की बात।।
    तो इस रोज़-रोज़ की बात को, इस दोहराव को आपने बख़ूबी, बख़ूबी, बख़ूबी जिया है। बहुत ही सुंदर शब्दावली में, बहुत ही सुंदर भावभूमि में अपनी ऊहापोह, अपने भीतर उमड़ते-घुमड़ते द्वंद्व को शब्द-दृश्य रूप में ठहरी और गहरी अभिव्यक्ति दी है। बहुत दिनों बाद मौलिक एहसासों से भरी कविता से गुज़रा हूं। आज तो दिन ही बना दिया तुमने.. धन्यवाद

    - नरेश शांडिल्य

    जवाब देंहटाएं