अभी पढ़ा कहीं-"तलब हो या ताल्लुक,गहरा होना चाहिए''। तलब और ताल्लुक के बीच दौड़ने लगी सोच। कोई भी ताल्लुक तलब से ही बनता है। उसमें गहराई का गर्त होना ज़रूरी है ताकि ताल्लुक बनते बनते जब तलब कम होने लगे तब चाह कर भी ताल्लुक के गर्त से निकला ना जा सके। क्योंकि तलब तो निकल पड़ती है एक नए सफर पर, नए ताल्लुक खोजने। जो एक इकलौता इन सब अफ़रा-तफ़री के चक्की के दो पाटों में पिसता है वो है 'दिल' बुरादा-बुरादा हो कर रह जाता है। 'पा' जाना मंज़िल नही होती शायद,,,, 'मंज़िल की तलाश' एक सबसे बड़ा छलावा। ठहर अगर गर्त में गिरने का नाम है तो फिर 'गहराइयों' से बचना ही अच्छा। हर तलब को लहर मान कर किसी तिनके की तरह ऊपर-ऊपर तैरते रहिए। तलबों के समन्दर बनाइए। ताल्लुक की गहराई अकेला कर देती है। कुछ महकती स्मृतियों के जलचर इर्द-गिर्द फैलाकर। जो आपकी भाषा भी नही बोल पाते। मौन एकतरफ़े संवादों संग बड़ बड़ाते रहिए गर्त के एक कोन से दूसरे कोन तक।
सामने एक छोटे से सेरामिक पाॅट में पानी भर कर कुछ लाल फूलों के गुच्छे सजा रखे हैं। अपने खाली समय में किताब पढ़ते हुए पूरी एकाग्रता संग, कभी-कभी कोई फूल 'टप्पप' की आवाज संग टेबल पर झरता है। मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लेता है। मैं उस फूल को उठाती हूँ ,अपनी अनामिका से सहला कर हल्का सा मुस्कुराती हूँ और फूल को हौले से प्रेस कर किताब के पढ़ चुके पृष्ठ तले दबा देती हूँ। ये स्मृति का पुष्प है मेरी तलब के ताल्लुक बनने की धरोहर। जिसे मैं भी दबा देती हूँ किताब के सफ़ों तले। वे दबे रहेगें ऐसे ही। साल दर साल,,,रंगों में आ जाएगा एक भूरापन पर फिर भी वे दफ़्न रहेगें उन्ही सफ़ों के तले। उनकी नियति में मोक्ष ना जाने कब नसीब होगा......
तिनका बनना चाहता है मन आज़ाद लहरों के ऊपर तैरता ,,गहराइयों में दफ़्न कर लिया बहुत कुछ,,अब और नही।
लिली🍁