मंगलवार, 22 सितंबर 2020

इच्छाएँ


 छोटी-छोटी सी इच्छाएँ हैं,

किसी रोज़ ढलती शाम
समन्दर  किनारे
रेत पर बैठकर
ताकें सूरज को
एक टक,,,,,,
किसी सुबह,किसी पहाड़ के
सबसे ऊँचे शिखर पर
जहाँ सुनाई दे
तुम्हे मेरी
मुझे तुम्हारी साँसों
की कदम ताल,,
सूँघें हवा की हरी-गंध,
स्पर्श करें उगते सूरज की
स्वर्णिम किरण,
सुनें, नीचें दिखती
घाटियों की अनकही,,
रूह निकल कर तन के पिंजर से
बैठ जाए पीठ से पीठ
ठसा कर,,,
चाहना जाना चाहती है
सुदूर दक्षिण के
पुरातन गुहाओं, और मंदिरों
के प्राचीरों में
जहाँ सुनी जा सके
भग्न भित्ति चित्रों,
परित्यक्त देव प्रतिमाओं
के उच्छावास,,
देख सकें
चिर काल से बहते जलकुंड
शैवाल संग आलिग्न बद्ध
रह जाना चाहे
तन भी वहीं उन्ही पुरातन
गुहाचित्र एवं परित्यक्त देव प्रतिमाओं
संग,,
उनकी तरह ही जड़वत
आदि अनादि काल तक,,,,,,,,,,,,,
बताओ क्या इच्छाएँ मेरी
महत्वाकांक्षा सी प्रतीत होती हैं?
बोलो ?
लिली



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें