आसमानी चादर के चारों कोंने समेट कर
सूरज को बांध कर पोटली में
हवाओं ने समेट लिया है
कल्पनाओं का असीम फैलाव
कैद हो गए हैं मन के
मनमौजी पक्षी
बन गया है वक्त किसी क्रूर बहेलिया सा।
मैं समझा रही हूँ आसमान की ओर
बढ़ती अपराजिता की बेल को
ऊपर नही मिलेगी तुझे कोई पकड़।
एक नरम सी फुनगी मुस्कुरा कर कहती है-
किसी पकड़ की आस नही है मुझे
जीवन का छोटा सा आसमान
मेरा उन्माद का विस्तार
और जमीन की मजबूत पकड़
है विस्तार की सीमा..
,
बंधन की उन्मुक्तता
में ही खिलती है
जीवन की अपराजिता